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Resource centre on India's rural distress
 
 

सवाल यह है कि पहले कभी ये मजदूर आते-जाते क्यों नहीं दिखे?

-गांव कनेक्शन,

पूरा भारत लॉकडाउन में है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों से अपील कि 21 दिन तक कोरोना से बचाव के लिए वो घरों के बाहर लक्ष्मण रेखा खींच लें। होटल-ढाबे बंद हैं, बस-ट्रेनें बंद हैं, ऐसे में दूसरे राज्यों में फँस चुके लाखों मजदूर सैकड़ों किलोमीटर दूर पैदल ही अपने घर की ओर निकल पड़े हैं, यह मजदूर क्या चाहते हैं और क्यों इन मजदूरों की ऐसी दशा हुई, पढ़ें प्रवासी मजदूर के लिए राजस्थान में काम कर रही संस्था आजीविका ब्यूरो के प्रोगाम मैनेजर कमलेश शर्मा का विशेष लेख ...

पिछले दो दिनों से सोशल मीडिया के माध्यम से और ऑनलाइन मीडिया पोर्टल्स के जरिये जो खबरें सबसे ज्यादा पढ़ने में आ रही है वो है लॉकडाउन के बाद प्रवासी मज़दूरों के घर लौटने और उनके साथ आ रही दिक्कतों की समस्याएं। जमीनी स्तर पर जो भी हेल्पलाइन मदद खड़ी की जा रही है उनमें भी सबसे ज्यादा मज़दूरों का ही जिक्र है।

मीडिया भरा पड़ा है इसी तरह की खबरों से। बहुत दया और करुणा से भरी कहानियां सुनने देखने को मिल रही है।

सवाल यह है कि यह वर्ग अब तक क्यों नही दिख रहा था सबको। सरकार ने लॉकडाउन से पहले क्या इस वर्ग के बारे ज़रा भी सोचा था। मोदी जी एक झटके में कह गए, "सबको बस अपने अपने घर मे रहना है।" उनके पूरे भाषण में 'घर' पर रहने पर इतना ज़ोर था।

आज जिनके बारे में मीडिया इतना सब कुछ दिखा रहा है उनके घरों के बारे में न कभी पहले झांक कर देखने कोशिश हुई न शहरों में उनके हालतों के बारे में कभी कोई रणनीति सामने आई।

सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घर को पैदल ही निकल पड़े मजदूर । फोटो साभार : ट्विटर

आज गांवों में लौटे मज़दूरों को लेकर जो माहौल बन रहा है और जो आगे आने वाले दिनों में बनेगा उसके पीछे कौन जिम्मेदार है?
क्यों लोकप्रिय प्रधान सेवक की मार्मिक अपील के बावजूद लाखों लोग वहीं नहीं रुके जहाँ वे थे?

क्यों शहर अपने 'दिलों' में इन मज़दूरों के लिए इतनी आत्मीयता नहीं विकसित कर पाए कि लोग वहाँ से गाँव लौटने की बजाए ये निर्णय कर पाते कि कुछ दिनों की बात है हम यही रुक जाते हैं।

जो करोड़ों रुपए के दान अब निकल कर आ रहे हैं पहले क्यों नही निकल कर आये?

शहरों और सरकारों ने इन मज़दूरों की सस्ती उपलब्धता की हमेशा भुनाया और उन्हें हमेशा शहर के सबसे गंदे, वंचित और सबसे बेकार इलाको में रख कर अछूत जैसा व्यवहार किया?

इन मज़दूरों को हमेशा बाहरी, गरीब और जरूरतमंद कहकर संबोधित किया जाता रहा। कभी इसके दूसरे पहलू जिसमें शहरी जरूरतों में इनकी मुख्य भूमिका को उस तरह न तो आंका गया, न ही वो महत्व दिया गया।

दूसरी बात, अगले कुछ हफ़्तों में अगर कोरोना संक्रमण बढ़ा तो इसकी जिम्मेदारी इन वंचित मज़दूरों के सिर पर मढ़ने की कवायद शुरू हो जाएगी इसकी पूरी आशंका है। आज जिनको करुणा से दाल पूरी खिला-खिला कर सेल्फियां ली जा रही हैं कल उनको अपने-अपने गाँवों में जहाँ वो बड़ी मुश्किलों से पहुँचे हैं, वहीं पर अभिशप्त कर दिया जाएगा।

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