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वैश्विक आपदा के बहाने ऑनलाइन उच्च शिक्षा देश के गरीब और ग्रामीण वर्ग के बीच असमानता की खाई को और बढ़ाएगी

-द प्रिंट,

कोविड-19 जैसी वैश्विक आपदा का दुष्प्रभाव उच्च शिक्षा पर पड़ना स्वाभाविक है. लेकिन इस आपदा को भारत सरकार इलीट समुदायों के लिए ‘अवसर’ बनाने की नीयत से काम कर रही है. आपदा के वक्त वैकल्पिक निर्देशों की आड़ में तमाम विवादित आपत्तिजनक प्रावधानों को लागू किया जा रहा है. उसमें एक नई चुनौती बनकर सामने आई है- ऑनलाइन उच्च शिक्षा.

दिल्ली विश्वविद्यालय ने हाल ही में निर्देश दिया कि वह अपने अंतिम वर्ष के छात्रों के लिए ऑनलाइन ओपेन बुक इम्तेहान आयोजित कराएगा. दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ ने एक सर्वे किया जिसमें लगभग पचास हज़ार छात्रों ने हिस्सा लिया. इसमें 85 फीसदी से अधिक बच्चे ऑनलाइन कक्षा, ऑनलाइन परीक्षा के लिए नकारात्मक जवाब दे रहे हैं. जब दिल्ली विश्वविद्यालय की हक़ीकत ऐसी है, तो देश के बाकी हिस्सों में इंटरनेट के ज़रिए ‘अवसरों की समानता’ क्योंकर सुनिश्चित होगी. बिना गुरु के विश्व गुरु बनने की दिशा में यह एक गहरी साजिश है.

ऑनलाइन शिक्षा के खतरे
आज अगर ऑनलाइन कक्षाएं व परीक्षाएं करा ली गईं, तो इसे वैकल्पिक नहीं, स्थायी नीति बनाया जा सकता है. कैंपस व कक्षाओं की उपयोगिता ही खत्म कर दी जाएगी. जिन्होंने सदियों में पहली बार सामाजिक-सांस्कृतिक ‘कैदखानों’ को तोड़कर सार्वजनिक दायरों में अपनी उपस्थिति दर्ज़ की, वे फिर से अपनी चारदीवारों में क़ैद कर दिए जाएंगे. आत्मविश्वास छीनकर जिन्हें मानसिक तौर पर गुलाम बनाए रखा गया, उन महिलाओं और वंचितों के लिए ये प्रावधान विनाशक साबित होंगे.

आज भारत के विश्वविद्यालयों तक पहुंचने वालों की संख्या काफी कम है. उच्च शिक्षा में ग्रॉस एनरोलमेंट रेशियो 26 फीसदी ही है जो ज्यादातर देशों से कम है. इनमें भी महिलाओं व दलित, पिछड़े, आदिवासी, पसमांदा जैसी वंचितों शोषितों की पहली पीढ़ी इन विश्वविद्यालयों की दहलीज़ तक आ सकी है. ऐसे तमाम पाठ्यक्रम व कैंपस हैं, जिनमें आरक्षित वर्ग की अधिकांश सीटें अमूमन खाली रह जाती हैं. ऐसे में उस वंचित शोषित तबके तक तकनीकी की पहुंच क्योंकर हो सकेगी? उच्च शिक्षा को तकनीकी आधारित करना समानता के सिद्धांत की अवहेलना करते हुए वंचित शोषित तबके की पहली पीढ़ियों को भी सायास बेदखल कर देगी.

ऑनलाइन तकनीक की पहुंच बेहद संकुचित
इंटरनेट व सूचना तकनीकी की पहुंच बेहद संकुचित है. जातिगत, लैंगिक व क्षेत्रगत आधार पर सबके लिए इंटरनेट उपलब्धता की कल्पना बेमानी है. नेशनल सैंपल सर्वे के 2017-18 के आंकड़ों के मुताबिक सिर्फ 42 फीसदी शहरी और 15 फीसदी ग्रामीण घरों में इंटरनेट की सुविधा है. अगर एक महीने में एक बार इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों को इंटरनेट से जुड़ा हुआ माना जाए तो सिर्फ 34 फीसदी शहरी और 11 फीसदी ग्रामीण लोग ही इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं. स्मार्टफोन अभी तक हर हाथ में नहीं पहुंचा है.

अगर देश के किसी भी विश्वविद्यालय में पढ़ाई को या पढ़ाई के एक हिस्से को ऑनलाइन कर दिया जाएगा, तो उसमें महिलाओं और वंचित शोषित जातियों के युवा सबसे पहले अवसरों से वंचित होंगे. देश के अभिन्न हिस्से कश्मीर में इंटरनेट स्पीड 2जी ही रखी जा रही है. गांवों में बिना सरकारी फरमान के ही स्पीड कम रहती है. उच्च शिक्षा को ऑनलाइन किया जाना इन सभी प्रकार के वंचितों शोषितों को समान अवसरों की उपलब्धता से ही वंचित कर देगा. यह नीतिगत और नैतिक दोनों तौर पर गलत है.

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