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कोरोना: महामारी के दौर में मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देना भी ज़रूरी है

- द वायर, 

किसी वैश्विक महामारी का मनोवैज्ञानिक परिणाम सामाजिक ताने-बाने पर भी असर डालता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के पहले महानिदेशक ब्रॉक चिशहोम, जो कि एक मनोरोग चिकित्सक भी थे, की प्रसिद्ध उक्ति है : ‘बगैर मानसिक स्वास्थ्य के, सच्चा शारीरिक स्वास्थ्य नहीं हो सकता है.’

उनके ये शब्द इस विचार का समर्थन करते हैं. सालों के रिसर्च के बाद इस बात को लेकर कोई शक नहीं रह गया है कि मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बुनियादी तौर पर और अभिन्न रूप से आपस में जुड़े हुए हैं. आज की तारीख में हालांकि किसी समाचार को पढ़ने के लिए कोविड-19 को लेकर सही और फर्जी सूचनाओं की बाढ़ से होकर गुजरना पड़ता है, लेकिन इस जारी महामारी के मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े पहलू के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं हैं.

यह आश्चर्यजनक है क्योंकि वैज्ञानिकों ने यह दर्ज किया है कि ऐतिहासिक रूप से संक्रमणकारी महामारियां आम लोगों में चिंता और घबराहट को बड़े पैमाने पर बढ़ाती हैं. नया रोग अपनी प्रकृति में अपरिचित होता है और इसके परिणामों के बारे में कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता है. साथ ही यह अगोचर या अदृश्य होता है. इसकी ये सब खासियतें इसे गंभीर चिंता का स्रोत बना देती हैं.

2003 में सार्स के प्रकोप के दौरान, रिसर्चरों ने बीमारी के साथ-साथ आने वाली कई मानसिक स्वास्थ्य चिंताओं को भी रेखांकित किया, जिनमें अवसाद, तनाव और मनोविकृति और पैनिक अटैक शामिल हैं. इसके कई कारण संभव हैं. सार्स से संक्रमित और उसका इलाज पा रहे लोगों को संभवतः सामाजिक एकांतवास का भी सामना करना पड़ा. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उन्हें अलग-थलग रखा गया था.

उनकी बीमारी को भी शायद कलंक के तौर पर देखा गया हो और जिसके कारण उन्होंने अपने साथ भेदभाव होता हुआ महसूस किया हो. यह भी संभव है कि सार्स से ग्रसित लोगों में दूसरों को संक्रमित करने का भी अपराध बोध घर गया हो.

वर्तमान में कोविड-19 से प्रभावित लोगों के अनुभवों को समझने और सार्वजनिक स्वास्थ्य की नीति बनाने के लिए इन कारकों पर ध्यान देना जरूरी है. ऐसा करके ही उनके मानसिक स्वास्थ्य की चिंताओं पर भी ध्यान दिया जा सकेगा.

यह साफ है कि संक्रामक रोग सभी लोगों पर एक गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालते हैं- उन लोगों पर भी जो वायरस से प्रभावित नहीं हैं. इन बीमारियों को लेकर हमारी प्रतिक्रिया मेडिकल ज्ञान पर आधारित न होकर हमारी सामाजिक समझ से भी संचालित होती है.

इंटरनेट के युग में हम ज्यादातर सूचनाएं ऑनलाइन हासिल करते हैं. यह एक व्यवहारवादी परिवर्तन है, जिसने स्वास्थ्य विषयों पर लोगों के आपसी संवाद को क्रांतिकारी तरीके से बदल कर रख दिया है. मिसाल के लिए, ट्विटर पर इबोला और स्वाइन फ्लू के प्रकोप का विश्लेषण करने के लिए किये गए एक अध्ययन में यह पाया गया कि ट्विटर यूजर्स ने इन दोनों बीमारियों को लेकर गहरे डर का इजहार किया.

समाचार माध्यमों के आलेखों और सोशल मीडिया पोस्ट्स में आउटब्रेक को सनसनीखेज बनाने और गलत जानकारी का प्रसार करने की प्रवृत्ति होती है, जिससे डर और भगदड़ की स्थिति बनती है.

हालांकि महामारी के फैलने के दौरान इन प्रतिक्रियाओं को उस समय की स्थिति के हिसाब से आनुपातिक माना जाता है और उन्हें जागरूकता फैलाने का माध्यम माना गया.

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