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उत्तराखंड ग्लेशियर : आपदा आसन्न विपदा की चेतावनी

-आउटलुक,

“चमोली की आपदा फिर हिमालय की पारि‌स्थितिकी पर सोचे-विचारे बिना बेरोकटोक परियोजनाओं पर फौरन पुनर्विचार का मौका दे गई”

उत्तराखंड के चमोली जिले के रैणी गांव की प्रसिद्घि 7 फरवरी के पहले उस गौरा देवी के लिए थी, जो तकरीबन तीन दशक पहले महिलाओं के जत्थे के साथ पेड़ काटने आए बंदूकधारी ठेकेदार के आदमियों को चुनौती दी थी और पेड़ों से चिपक कर उन्हें कटने से बचाया था। उनकी स्मृति में बना गांव का प्रवेश द्वार आज भी पर्यावरण रक्षा के उस पराक्रम को याद दिलाता है। लेकिन वर्षों के अंतराल ने प्राकृतिक संसाधनों के बेरोकटोक दोहन की ऐसी आंधी बहाई कि 7 फरवरी को नंदा देवी चोटी पर झूलते ग्लेशियर का एक हिस्सा खिसका तो ऐसा सैलाब उमड़ा कि बहुत कुछ नेस्तनाबूद कर गया। ऋषिगंगा पनबिजली परियोजना तो स्वाहा ही हो गई, उससे कुछ दूरी पर धौलीगंगा नदी पर तपोवन-ऋषिगाड में एनटीपीसी पनबिजली परियोजना भी बर्बाद हो गई। रैणी और तपोवन क्षेत्र के पांच पुल और कुछ मकान भी बह गए। पिछले पखवाड़े तक मृतकों की आधिकारिक संख्या 55 थी और 150 से ज्यादा लोग लापता थे।

इस आपदा में पनबिजली परियोजना में काम कर रहे ढाई सौ से अधिक श्रमिकों और कर्मचारियों के हताहत होने का अनुमान है। आपदा एक बार फिर यह चेतावनी दे गई कि हिमालय की संवेदनशीलता पर फोकस नहीं किया गया तो भयावह आपदाओं के लिए तैयार हो जाएं। आपदा यह भी बता गई कि 2013 में भयावह केदारनाथ आपदा से कोई सबक नहीं लिया गया है। ग्लेशियरों का अध्ययन करने के लिए बनी विशेषज्ञों की एक कमेटी की रिपोर्ट पिछले 15 साल से सरकारी फाइलों में ही कैद है। अध्ययन के लिए हिमनद विकास प्राधिकरण गठन की पहल 10 साल में भी परवान नहीं चढ़ सकी है। अर्ली वार्निंग सिस्टम पर कोई ध्यान हीं नहीं दिया गया।

दरअसल, हिमालय एक क्रियाशील पर्वत शृंखला है। इसमें आंतरिक हलचल स्वाभाविक प्रक्रिया है। यही कारण है कि भूकंप, भूस्खलन तथा एवलांच की घटनाएं हिमालयी भूभाग में अन्य स्थानों की अपेक्षा ज्यादा होते है। विभिन्न शोध के बावजूद हिमालय के व्यवहार के बारे में आज भी हमारा ज्ञान बहुत ही कम है। आधुनिकतम तकनीक के जरिए आपदाओं के आकलन और अनुमान पर हिमालय क्षेत्र में खास पहल नहीं हो पाई है। यहां नारायण दत्त तिवारी सरकार में मसूरी के निकट डॉप्लर रडार लगाने की बात हुई थी। फिलहाल नैनीताल जनपद के मुक्तेश्वर और टिहरी जनपद के सुरकंडा में लगने की बात हो रही है। पर क्या यह पर्याप्त है? सवाल यह भी है कि 2013 की केदारनाथ भीषण आपदा के बाद भी क्या राज्य की सरकारों और नौकरशाही ने आपदाओं को घटाने की क्या कोई सीख ली है। इस घटना ने एक तरह से बता दिया है कि हमारी तैयारियां आखिर कितनी खोखली हैं। आधुनिकतम तकनीक, जैसे अर्ली वार्निंग सिस्टम से पूरे राज्य के जलतंत्र या संवेदनशील क्षेत्रों को चिन्हित करके आपदाओं का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। उत्तराखंड भूकंप आशंकित जोन में है।

इस तरह की आपदाएं हिमालय के संवेदनशील मिजाज के प्रति सजग रहने की नसीहत देती रहती हैं। इन आपदाओं से भारी-भरकम पनबिजली परियोजनाओं या अन्य बड़ी विकास परियोजनाओं पर नए सिरे से सवाल खड़े हो गए हैं। 2014 में पर्यावरणविद डॉ. रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में बनी समिति ने हिमालय के ऊंचाई वाले इलाकों में बन रही कई बड़ी पनबिजली परियोजनाओं को पर्यावरण के विरुद्ध करार दिया था। लेकिन उन सिफारिशों को भुला दिया गया।

इसी तरह एन.डी. तिवारी सरकार के समय ग्लेशियरों और झीलों की बाढ़ के खतरे और उसके बचाव पर अध्ययन के लिए एक विशेषज्ञ समिति गठित की गई थी। इस समिति ने 2006 में ही अपनी सिफारिशें सरकार को सौंप दी थी। लेकिन 15 साल से ये सिफारिशें सरकारी फाइलों में ही कैद हैं।

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