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किसान आन्दोलन से दूरी क्यूं बनाए हुए है अहीरवाल

-गांव सवेरा, 

जब से किसान आन्दोलन शुरू हुआ है तब से हरियाणा में भाजपा और जेजेपी के कोई भी कार्यक्रम किसान नहीं होने दे रहें हैं. वहीँ दूसरी और अहीरवाल में भाजपा और जेजेपी बिना किसी विरोध के बड़ी आसानी से अपने सभी कार्यक्रम कर रही है.

26 नंवबर 2020 को जब किसान दिल्ली की सीमाओं पर पहुंचे तो उनकी योजना थी कि दिल्ली को चारों तरफ़ से घेरा जाए ताकि सरकार पर ज़बरदस्त दबाव बनाया जा सके.

सिंघु, टिकरी और ग़ाज़ीपुर बॉर्डर घेरने में तो किसान सफ़ल रहें. मगर दिल्ली का गुडगाँव की तरफ़ सरहौल गाँव के नज़दीक लगने वाला बॉर्डर किसान नहीं घेर पाए. ये बॉर्डर मुख्यतः दिल्ली को जयपुर से जोड़ने वाले नेशनल हाईवे नम्बर 8 पर पड़ता है. किसानों द्वारा दिल्ली – गुडगाँव बॉर्डर न घेर पाने के पीछे मुख्य कारण था अहीरवाल.

दक्षिणी हरियाणा के तीन ज़िलों गुडगाँव, रेवाड़ी और महेंद्रगढ़ को मिलाकर बने क्षेत्र को अहीरवाल बोला जाता है. हालांकि अहीरवाल में कुछ क्षेत्र राजस्थान के अलवर ज़िले का भी आता है जिसमें बहरोड़, तिजारा, कोटकासिम आदि मुख्य रूप से शामिल है.

अहीरवाल बोले जाने के पीछे कारण है इस इलाक़े में अहीर (यादव) जाति के लोगों की सबसे अधिक आबादी होना. हरियाणा की राजनीति में जाति के आधार पर क्षेत्रों का नाम रखे जाने की परंपरा काफ़ी प्रचलित है जैसे जाटलैंड, अहिरवाल आदि.

हरियाणा के कुल क्षेत्रफ़ल का लगभग 10.74 प्रतिशत भू भाग अहीरवाल में पड़ता है. वहीँ अगर जनसंख्या की बात करें तो समूचे प्रदेश की लगभग 11.70 प्रतिशत आबादी अहीरवाल में निवास करती है.

अहीरवाल की राजनैतिक ताक़त

अहीरवाल के तीनों ज़िलों को मिलाकर वहां 11 विधान सभा सीटें पड़ती हैं. गुडगाँव में 4, रेवाड़ी में 3 और महेंद्रगढ़ में 4 सीटें आती है.

इसके अलावा अगर लोकसभा सीटों की बात करें तो अहीरवाल में मुख्य रूप से 2 सीटें आती है. गुडगाँव और भिवानी – महेंद्रगढ़ सीट. इनमें से गुडगाँव सीट पर अहीरवाल के लोगों का सीधा हस्तक्षेप रहता है वहीँ भिवानी- महेंद्रगढ़ सीट पर आंशिक रूप से उनका प्रभाव रहता है.

पहले महेंद्रगढ़ अपने आप में अलग और अहीरवाल की इकलौती लोक सभा सीट हुआ करती थी. साल 2008 में परीसीमन के बाद महेंद्रगढ़ और भिवानी को मिलाकर एक लोक सभा सीट बना दी गई वहीँ गुडगाँव को अलग लोक सभा सीट बना दिया गया.

इन सब से इतर अहीरवाल की सामाजिक और राजनीतिक पहचान यहाँ के रेवाड़ी राजघराने से भी रही है. रेवाड़ी के राजा राव तुलाराम ने 1857 की क्रान्ति में अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ अहीरवाल क्षेत्र के नसीबपुर गाँव में लड़ाई लड़ी थी. हालांकि वो इस युद्ध को जीत नहीं पाए और 23 सितम्बर 1863 को उनकी मृत्यु हो गई. हर वर्ष हरियाणा सरकार 23 सितम्बर को राव तुलाराम के शहीदी दिवस के रूप में मनाती है.

आज़ादी के बाद रेवाड़ी राजघराना चुनावी राजनीति में आ गया और यहाँ उसे रामपुर हाउस के नाम से जाना जाने लगा. रामपुर रेवाड़ी में राव तुलाराम का पैतृक गाँव है. राव तुलाराम के पहले राजनीतिक वंशज हुए राव बिरेंदर सिंह. राव बिरेंदर सिंह हरियाणा – पंजाब के बंटवारे के बाद हरियाणा के पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री बने. हालांकि वो ज्यादा दिन टिक नहीं पाए और केवल 241 दिन बाद ही उनकी सरकार गिर गई.

राव बिरेंदर सिंह दोबारा कभी हरियाणा के मुख्यमंत्री नहीं बन पाए और तब से लेकर आजतक अहीरवाल के राजनीतिक गलियारों में इस इलाक़े से प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का सपना कई नेताओं के दिलों में बरकरार है. इलाक़े के कुछ लोग भी ये चाह रखते हैं.

राव बिरेंदर सिंह के बाद रामपुर हाउस की कमान आई उनके सबसे बड़े बेटे राव इंद्रजीत सिंह के पास जो कि वर्तमान में गुडगाँव से भाजपा की टिकट पर सांसद है. प्रदेश में सरकार किसी की भी रही हो मगर अहीरवाल में हमेशा रामपुर हाउस का ही दबदबा रहा है. इस समय राव इंद्रजीत सिंह अहीरवाल के सबसे बड़े नेता है और पिछले 40 सालों से लगातार राजनीति में बने हुए हैं.

किसान आन्दोलन में अहीरवाल के शामिल न होने के प्रमुख कारण

दिल्ली से सटे हरियाणा के सभी इलाक़ों में किसान आन्दोलन की मज़बूत पकड़ है. चाहे आप दिल्ली से सटे बहादुरगढ़ – रोहतक बॉर्डर को देख लीजिए, सोनीपत- कुंडली बॉर्डर को देख लीजिए या फिर गाज़ीपुर बॉर्डर को देख लीजिए. मगर इन सब में एक अपवाद है दिल्ली- गुडगाँव बॉर्डर जहाँ आपको किसान आन्दोलन का जरा सा भी असर देखने को नहीं मिलेगा. ऐसा क्यों है कि किसान आन्दोलन को लेकर अहीरवाल के लोगों में किसी प्रकार का कोई उत्साह नहीं है, इसको विस्तार से समझतें हैं.

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