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अंग्रेजी की दीवार गिराए बिना नहीं मिलेगी हिंदी को जमीन-- आशुतोष कुमार

हिंदी को लेकर माहौल फिर गर्म होने लगा है। इसके पीछे दो केंद्रीय मंत्रियों के ताजा बयान हैं। एक ने कहा कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है। सच्चाई यही है कि संविधान में राष्ट्रभाषा की कोई अवधारणा नहीं है। हिंदी सरकारी भाषा है, अंग्रेजी के साथ-साथ। संविधान लागू करते समय कहा गया था कि अगले पंद्रह वर्षों में अंग्रेजी हटा दी जाएगी। लेकिन गैर हिंदीभाषी राज्यों के विरोध के कारण ऐसा नहीं हो सका। मंत्री के बयान के बाद वह पुराना विरोध फिर से मुखर हो उठा है।


इधर, विदेश मंत्री ने पासपोर्ट को हिंदी में भरने का विकल्प देने का सुझाव दिया है। पासपोर्ट में हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाएं हैं। लेकिन कॉलम सिर्फ अंग्रेजी में भरे जाते हैं। जैसे नाम अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में पूछा जाता है, लेकिन उत्तर की जगह को केवल अंग्रेजी में भरा जा सकता है। इसका मतलब यह है कि भारतीय नागरिक के नाम का अंग्रेजी हिज्जा ही मान्य है।


हिंदी में अपना नाम देखना किसी भी हिंदीभाषी को अच्छा लगेगा। जैसे तब लगता है जब कोई विदेशी राष्ट्रध्यक्ष हिंदी बोल कर या हिंदी में ट्वीट कर भारतीय प्रधानमंत्री का स्वागत करता है। यह अच्छा लगना बताता है कि भाषा का जुड़ाव कहीं न कहीं जातीय और राष्ट्रीय स्वाभिमान से है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी को देख कर एक हिंदीभाषी को जैसा सुखद अहसास होता है, क्या उसे वही अहसास अन्य भारतीय भाषाओं को देखकर भी होगा? अगर नहीं तो फिर उसे दूसरी भारतीय भाषा बोलने वालों से यह आशा क्यों करनी चाहिए कि वह हिंदी का जलवा देख कर खुश होगा?


भाषा को अगर जातीय सम्मान का प्रतीक बनाया जाएगा तो जाहिर है कि सभी भाषाएं बराबर सम्मान पाना चाहेंगी। सम्मान में कमी-बेसी होने पर कमतरी का अहसास पैदा होगा। एक भाषा का सम्मान ही दूसरी भाषा के अपमान का कारण बन जाएगा। जातीय अपमान एक ऐसी चीज है, जो राष्ट्रीय एकता की धज्जियां उड़ा सकता है। संविधान निर्माता इस बात को जानते थे, इसलिए उन्होंने किसी एक भाषा को राष्ट्रभाषा की संज्ञा नहीं दी। बल्कि आठवीं सूची में शामिल सभी बाइस भाषाओं को राष्ट्रीय भाषाएं कहकर सभी को समान सम्मान दिया गया।


यह बात ध्यान देने योग्य है कि विरोध हिंदी भाषा का नहीं, बल्कि हिंदी के वर्चस्ववाद का है। खड़ी बोली उर्दू/हिंदी तो हमेशा से एक राष्ट्रीय संपर्क भाषा रही है। यह कभी भी किसी क्षेत्र विशेष की बोली नहीं रही। दिल्ली और आसपास की कौरवी बोली, बृजभाषा, अवधी, राजस्थानी और बिहारी बोलियां- इन सब ने मिलजुल कर खड़ीबोली का राष्ट्रव्यापी रूप तैयार किया है। यही कारण था कि राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान हिंदी सहज ही भारतीय जनता की राष्ट्रीय भावनाओं को व्यक्त करने वाली भाषा बन गई।


दुर्भाग्य से इसी दौर में हिंदी को विभाजनकारी सांप्रदायिक राजनीति के मोहरे के रूप में भी इस्तेमाल करने की कोशिश की गई। खड़ी बोली हिंदी और उर्दू के रूप में दो स्वतंत्र भाषाओं में विभाजित हो गई। सबसे पहले अंग्रेजों ने, और उसके बाद खुद हिंदी-उर्दू के लेखकों ने, हिंदी की पहचान हिंदुओं से जोड़ दी और उर्दू की मुसलमानों से। सचाई यह है कि भाषा का किसी धर्मविशेष से कोई संबंध नहीं होता। न तो भारत में न ही दुनिया में कहीं और। भाषा का बंटवारा ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान' के राष्ट्रवादी दौर में भारतेंदु युग के हिंदी लेखकों की ईजाद है, जिसे बाद में तनिक परिवर्तित रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपना लिया। गोलवलकर के लिए राष्ट्रभाषा के रूप में पहली पसंद संस्कृत थी, लेकिन जब तक संस्कृत का प्रचार-प्रसार नहीं हो जाता, तब तक वे हिंदी को राष्ट्रीय स्वाभिमान की भाषा बनाने के लिए राजी हो गए। वे यह भूल गए कि किसी एक भाषा को राष्ट्रीय स्वाभिमान से जोड़ते ही देश की बाकी सभी भाषाओं की नागरिकता दूसरे दर्जे में धकेल दी जाती है। कोई भी स्वाभिमानी समाज इस स्थिति को स्वीकार नहीं सकता। बहुभाषी देशों में भाषिक राष्ट्रवाद केवल वैमनस्य और विभाजन पैदा करता है। पाकिस्तान से बांगलादेश का अलग होना और श्रीलंका का जातीय संघर्ष इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। बहुभाषिक देशों में बहुभाषिक राष्ट्रीयता ही राष्ट्रीयता एकता को मजबूत बना सकती है। इसी समझदारी के कारण संविधान निर्माताओं ने राष्टÑभाषा के रूप में किसी एक भाषा को मान्यता नहीं दी।


संविधान में हिंदी राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित है। हिंदी की इस हैसियत को कभी चुनौती नहीं दी गई। अगर उसकी यह हैसियत व्यवहार में दिखाई नहीं देती तो इसका एक ही कारण है अंग्रेजी का निरंतर जारी वर्चस्व। इस वर्चस्व का कारण है शिक्षा और शासन की भाषा के रूप में अंग्रेजी का एकाधिकार। भारतीय भाषाओं को उनका वाजिब और जरूरी हक देने के लिए इस वर्चस्व को तोड़ने की जरूरत है। सरकार चाहे तो आठवीं अनुसूची की सभी बाइस भाषाओं को तत्काल प्रभाव से शिक्षा और शासन के हर स्तर पर वैकल्पिक माध्यम के रूप में स्वीकृति दे सकती है। तकनीकी क्रांति के इस युग में इसे लागू करना बेहद आसान है। जरूरत सिर्फ राजनीतिक इच्छाशक्ति की है।


अंग्रेजी की दीवार के हटते ही सभी भारतीय भाषाओं को उभरने का बराबर मौका मिल जाएगा। फिर हिंदी का राजनीतिक विरोध भी खत्म हो जाएगा। तब हिंदी सहज ही राष्ट्रीय संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार कर ली जाएगी। इस भूमिका के लिए कोई दूसरी भाषा उपलब्ध नहीं है। महज दस फीसद लोगों के द्वारा इस्तेमाल की जा सकने वाली अंग्रेजी केवल सत्ता की ताकत से राजभाषा बनी हुई है।


गौरतलब है कि देश की सरकारें अंग्रेजी के वर्चस्व को तोड़ने के लिए कोई कदम नहीं उठा रहीं। मई में अदालतों में हर स्तर पर भारतीय भाषाओं का विकल्प सुलभ करने की मांग के साथ प्रधानमंत्री कार्यालय के पास धरने पर बैठे हिंदी आंदोलनकारी श्यामरूद्र पाठक को पुलिस प्रताड़ना झेलनी पड़ी। अंग्रेजी के वर्चस्व को चुनौती दिए बिना हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा' के रूप में आगे बढ़ाने का मतलब क्या है? क्या केवल सांकेतिक और भावनात्मक मुद्दे के रूप में हिंदी का कार्ड खेला जा रहा है? ऐसा होने पर विरोध और विवाद के स्वरों का उठना अपरिहार्य है।

आशुतोष कुमार
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर