Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/अंतिम-समाधान-तो-पुलिस-ही-है-विभूति-नारायण-राय-11653.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | अंतिम समाधान तो पुलिस ही है-- विभूति नारायण राय | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

अंतिम समाधान तो पुलिस ही है-- विभूति नारायण राय

दुनिया भर का अनुभव बताता है कि नागरिक असंतोष यदि समय से सुलझाया न जा सके और उसे अनुकूल खाद-पानी मिले, तो अंततोगत्वा वह एक सशस्त्र प्रतिरोध में तब्दील हो जाता है। खास तौर से जब धर्म जैसा कोई मजबूत दर्शन इसके पीछे हो और बिना किसी गंभीर प्रयास के सरकारें सिर्फ लीपापोती कर रही हों, तब स्थिति अधिक बिगड़ सकती है। शुरुआत में तो इस उभार का सामना नागरिक पुलिस करने का प्रयास करती है, किंतु अक्सर राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव, संसाधनों की कमी व प्रभावी नेतृत्व की अनुपस्थिति में वह मुकाबले में पिछड़ती चली जाती है और शीघ्र ही एक ऐसी स्थिति आती है, जब वह पूरी तरह हतोत्साहित होकर समर्पण करती सी दीखती है। यही वह समय होता है, जब राज्य मजबूरन लड़ाई में पुलिस को पीछे हटाकर सेना या अर्द्ध-सैनिक बलों को मैदान में उतारता है। उत्तरी भारत में पंजाब और कश्मीर इन अनुभवों से गुजरे हैं। हमें उन कारणों की पड़ताल करनी चाहिए, जिनसे डेढ़ दशक में पंजाब को शांत किया जा सका और उससे दोगुना समय बीत जाने के बाद भी अभी तक कश्मीर सुलग रहा है।

 


साल 1983 की गरमियों में, जब पंजाब पुलिस के डीआईजी अवतार सिंह अटवाल अमृतसर के स्वर्ण मंदिर से मत्था टेककर बाहर निकल रहे थे, तो भिंडरावाले के चेलों ने उन्हें मार डाला। इस हत्या के बाद पंजाब पुलिस लगभग बगावत पर उतारू हो गई थी और तब उसे स्वर्ण मंदिर में घुसकर कार्रवाई करने से रोकने में पुलिस और राजनीतिक नेतृत्व के पसीने छूट गए। उस दिन पुलिस को रोकने का नतीजा यह निकला कि एक वर्ष बाद ही फौज को टैंकों और बख्तरबंद गाड़ियों की मदद से स्वर्ण मंदिर में अभियान चलाना पड़ा तथा काफी खून-खराबे के बाद ही अंदर छिपे आतंकियों पर काबू पाया जा सका। ऑपरेशन ब्लू स्टार के देश को क्या नतीजे भुगतने पडे़, यह किसी से छिपा नहीं है।


बीते 22 जून को श्रीनगर की जामिया मस्जिद में डीएसपी मोहम्मद अयूब पंडित की हत्या के बाद मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती का यह कथन कि पुलिस का धैर्य कभी भी टूट सकता है, पंजाब के उन्हीं दिनों की याद दिलाता है। इस नृशंस हत्या के एक सप्ताह पहले अनंतनाग के अचबल थाने के प्रभारी फिरोज अहमद डार समेत छह पुलिसकर्मियों को उस समय घात लगाकर मार डाला गया, जब वे एक वाहन में अपनी ड्यूटी पर जा रहे थे। कहीं जम्मू-कश्मीर सरकार ने पुलिस के धैर्य को टूटने से रोककर वही गलती तो नहीं की है, जो अटवाल की हत्या के बाद पंजाब सरकार ने स्वर्ण मंदिर में पुलिस को कार्रवाई न करने देकर की थी? कश्मीर के डीजीपी का यह बयान सरकार को गौरतलब क्यों नहीं लगा कि हुर्रियत के जिन नेताओं की वजह से डीएसपी पंडित की हत्या हुई, उनकी सुरक्षा में लगे पुलिस बल को हटा लेना चाहिए? आखिर पंडित भी तो सुरक्षा शाखा में ही तैनात थे। विडंबना यह है कि पुलिस पर हमले के लिए उकसाने वालों की सुरक्षा में भी पुलिस लगी है। यह एक सामान्य जानकारी है कि एक-दूसरे को फूटी आंखों से न देख सकने वाले हुर्रियत नेता बिना पुलिस सुरक्षा घर के बाहर कदम नहीं रख सकते।


दुनिया भर का अनुभव यह भी बताता है कि नागरिक असंतोष से फौज कभी भी निर्णायक लड़ाई नहीं जीत पाती। उसके बल पर राज्य अस्थायी कामयाबी भले हासिल कर ले, पर निर्णायक लड़ाई तो हमेशा पुलिस को ही लड़नी पड़ती है। कारण भी बड़े स्पष्ट हैं। अपनी सिखलाई और इस्तेमाल किए जाने वाले अस्त्र-शस्त्र के कारण एक निश्चित सीमा के बाद सेना का इस्तेमाल आत्मघाती होने लगता है। कोई सरकार विश्व जनमत की उपेक्षा कर अपने नागरिकों के खिलाफ सैन्य बल का प्रयोग देर तक नहीं कर सकती। असंतोष के पहले दौर में तो सेना का प्रयोग इसलिए जायज हो जाता है कि नॉन स्टेट एक्टर शुरुआत में राज्य के ऊपर भारी पड़ते दिखलाई देते हैं और वे राज्य के साथ किसी भी तरह के संवाद से इनकार करते हैं। तब यह फौज ही होती है, जो अपनी नृशंस शक्ति से उन्हें बातचीत की मेज पर बैठने के लिए तैयार करती है। पर इसके बाद उसकी भागीदारी सीमित हो जाती है। यहां से नागरिक पुलिस की निर्णायक भूमिका एक बार फिर शुरू होती है। यही वह समय होता है, जब पुलिस से पहले चक्र की हताशा, प्रशिक्षण व संसाधनों के अभाव और राजनीतिक अनिर्णय से उबरकर एक पेशेवर संगठन में तब्दील होने की अपेक्षा की जाती है। इसके ज्यादातर कर्मी स्थानीय होते हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से उनके पास बेहतर इंटेलिजेंस और मुखबिरों का जाल होता है। लेकिन इसके लिए उसे एक मजबूत नेतृत्व व स्पष्ट राजनीतिक इच्छाशक्ति मिलनी चाहिए।


पंजाब में क्या हुआ? एक दौर ऐसा आया था, जब पंजाब पुलिस पूरी तरह से नेतृत्व विहीन और हतोत्साहित दिखाई देती थी। रिबेरो और केपीएस गिल के नेतृत्व ने पासा पलट दिया। उन्हें मुख्यमंत्री बेअंत सिंह का पूरा समर्थन हासिल था। राजनीतिक व पुलिस नेतृत्व ने मिलकर पंजाब में क्या किया, हम सभी जानते हैं। दुर्भाग्य से कश्मीर में दोनों का अभाव दिख रहा है। रिबेरो और गिल ने पंजाब पुलिस के उस गुस्से का फायदा उठाया, जो गांवों में रह रहे उनके रिश्तेदारों पर खालिस्तानी आतंकियों के कहर से उपज रहा था। एक समय ऐसा भी आया था कि दूरदराज के गांवों में पुलिस वालों के रिश्तेदारों को नुकसान पहुंचाने वाले आतंकी खुद के संबंधियों के साथ इसी तरह के व्यवहार की अपेक्षा करने लगे थे।


यदि धैर्य चुकने की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की बात सही है, तब तो ऐसा लगता है कि कश्मीर में भी लड़ाई के दूसरे व निर्णायक चरण का समय आ गया है। अब सेना को क्रमश: नागरिक क्षेत्रों से हटाने की जरूरत है। उनका स्थान लेने के लिए एक समर्थ व पेशेवर पुलिस बल खड़ा किया जाना चाहिए। अपने साथियों की हत्या से क्षुब्ध पुलिस बल स्थानीय मुखबिरों की सहायता से चुन-चुनकर आतंकियों का सफाया कर सकता है। धैर्य चुकने का एक नतीजा तो फौरन सामने आ भी गया है। अचबल के थानाध्यक्ष और अन्य पांच पुलिस कर्मियों की हत्या के जिम्मेदार और दस लाख के इनामी बशीर लश्करी को सुरक्षा बलों ने एक पखवाड़े के अंदर ही मार गिराया। यह एक मजबूत स्थानीय खुफिया तंत्र के बिना संभव नहीं हो सकता था। धैर्य चुकना हमेशा बुरा नहीं होता, कुछ मामलों में उसके फायदे भी हैं। राजनीतिक नेतृत्व को पुलिस के धैर्य चुकने का लाभ उठाना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)