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अंदेशे के भय से अतिरंजित प्रतिक्रिया - ए. सूर्यप्रकाश

पहली नजर में संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्मावती के सामूहिक विरोध के पीछे कोई तर्क नजर नहीं आ रहा है। प्रदर्शनकारियों ने स्वयं कबूला है कि उन्होंने अभी तक इस फिल्म को नहीं देखा है, लेकिन उत्तर भारत के राज्यों में खासकर राजपूत समुदाय और अन्य हिंदू जातियों के लोग सड़कों पर आकर फिल्म को प्रतिबंधित करने की मांग कर रहे हैं। उनकी चिंता इस बात को लेकर ज्यादा है कि संजय लीला भंसाली ने संभवत: अलाउद्दीन खिलजी और रानी पद्मिनी उर्फ पद्मावती के बीच कुछ ऐसे रोमांटिक दृश्य फिल्माए हैं, जिनसे हिंदू समुदाय की भावनाएं आहत हो सकती हैं। हालांकि कुछ मीडिया पेशेवरों, जिनके लिए फिल्म की विशेष स्क्रीनिंग रखी गई थी, ने इन अफवाहों को निराधार बताकर विरोध की आग को शांत करने की कोशिश की है। उन्होंने दावा किया है कि फिल्म में दोनों पात्र- पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी, कहीं भी एक साथ नहीं आए हैं। बावजूद इसके फिल्म का विरोध जारी है। इससे प्रतीत हो रहा है कि उनका भय कितना बढ़ गया है।

 

 

राजपूत समुदाय के प्रतिनिधियों की उग्र व तर्कहीन प्रतिक्रियाओं को छद्म सेक्युलर और वामपंथी इतिहासकारों द्वारा लिखे भारतीय इतिहास (खासकर मध्यकालीन भारत के इतिहास) के प्रति हिंदू समुदाय के अविश्वास के रूप में भी देखा जा सकता है। वामपंथी इतिहासकारों ने उस दौर के इतिहास की ढेरों तथ्यहीन कहानियां गढ़ी हैं। उन्होंने औरंगजेब पर सेक्युलर होने का ठप्पा लगा रखा है, लेकिन लंबे समय से इसे कोई चुनौती देने वाला नहीं है, जबकि लोग जानते हैं कि वह एक ऐसा निरंकुश शासक था, जिसने मंदिरों को न सिर्फ लूटा, बल्कि हिंदुओं के खिलाफ बर्बरता की सारी हदें लांघीं। आजादी के बाद दशकों तक इस सच्चाई को स्वीकारने में इन बुद्धिजीवियों ने मानसिक बेईमानी का परिचय दिया, जबकि देश की मौखिक ऐतिहासिक परंपरा के जरिए वे इस हकीकत से पूरी तरह वाकिफ थे।

 

 

चंूकि वर्ष 2014 तक नई दिल्ली में महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों पर नेहरूवादी और वामपंथी विचारकों की पकड़ थी, लिहाजा साहित्य और सिनेमा तक में उनका प्रभाव बढ़ता गया। इससे कला जगत के लोगों के हौसले इतने बढ़ गए कि वे अपनी कला के जरिए हिंदुओं को नीचा दिखाने को अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बताने लगे, लेकिन अब जनता जागरूक होने लगी है। इसके दो कारण हैं। पहला, लोगों ने झूठ पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है, क्योंकि कला के आधुनिक रूप सिनेमा ने उस झूठ को काफी विस्तृत कर दिया है। दूसरा, शिक्षा जगत में मौजूद वामपंथी विचारकों की कुटिल चालों के बावजूद देश में कुछ ऐसे भी इतिहासकार हैं, जिन्होंने उनकी मिथ्या बातों से पर्दा उठाने का भरसक प्रयास किया है और इतिहास को सच के करीब लाया है। आरसी मजूमदार से लेकर प्रो. केएस लाल, डॉ. एसपी गुप्ता, प्रो. मक्खन लाल और प्रो. बीबी लाल ऐसे ही कुछ इतिहासकार हैं, जिन्होंने वामपंथियों के प्राचीन व मध्यकालीन इतिहास को चुनौती दी है। यह भूल सुधार अभी शुरुआती दौर में है। 'पद्मावती फिल्म को लेकर अतिरंजित भय इसी प्रक्रिया का हिस्सा है।

 

 

अब अलाउद्दीन खिलजी पर वापस लौटते हैं। कहा जाता है कि वह आठ जनवरी, 1303 को दिल्ली से चित्तौड़ के लिए रवाना हुआ। एक थ्योरी, जो कि ज्यादा प्रभावी है, कहती है कि वह अनेक राज्यों को जीतना चाहता था और विश्व विजेता बनना चाहता था। दूसरी थ्योरी कहती है कि वह रानी पद्मावती पर मोहित था और उन्हें किसी भी कीमत पर पाना चाहता था। यहां तक कि इसके लिए उसने ढेरों कुचक्र रचे और खूनी लड़ाइयां भी लड़ीं। वह लंबे समय तक चित्तौड़गढ़ के किले को घेरे रहा। राजपूत इतिहास और संस्कृति को लिपिबद्ध करने वाले इतिहासकार दशरथ शर्मा के अनुसार खिलजी ने बेड़च और गंभीरी नदियों के बीच डेरा डाल दिया था। उसकी घेरेबंदी के चलते राजा रतन सिंह ने हार मान लेने का फैसला किया, लेकिन उनके लोगों ने कुछ और समय तक लड़ने का निर्णय किया। युद्ध उपरांत किले पर जब खिलजी का कब्जा हुआ, तब एक दिन में ही 30 हजार हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया गया। इसी के साथ पद्मावती और उनकी सहेलियों ने स्वयं को आग के हवाले कर दिया, अर्थात जौहर कर लिया। दशरथ शर्मा 'पद्मावत के रचयिता मलिक मोहम्मद जायसी को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि 'पद्मावती को जीवित हासिल करने के लिए हरसंभव कुचक्र रचने के बावजूद अलाउद्दीन के हाथ दो मुट्ठी राख के अलावा कुछ नहीं आया।

 

 

कई इतिहासकारों ने जायसी की कविता के आधार पर ही अपनी बातें आगे बढ़ाई हैं। शर्मा कहते हैं कि राजस्थान की शायद ही किसी अन्य नायिका ने पद्मिनी से ज्यादा कवियों और लेखकों का ध्यान अपनी ओर खींचा हो। सभी के केंद्र में यही है कि 'बहादुर, सुंदर और अदम्य पद्मिनी एक लंपट और क्रूर शासक को चकमा देने में सफल रहीं और उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान की रक्षा की खातिर अपने आप को आग के हवाले कर दिया।

 

रानी पद्मावती के बारे में लोकजन में प्रचलित कथा का सार भी यही है। दशकों से पद्मावती की यह कहानी भारतीयों के दिलो-दिमाग में बैठी हुई है। यह शैक्षणिक संस्थाओं के पाठ्यक्रम में भी शामिल है। अलाउद्दीन खिलजी की अधीनता स्वीकार करने के बजाय जौहर करने के पद्मावती के निर्णय को राजपूत और अन्य हिंदू जातियां सर्वोच्च वीरता के रूप में देखती हैं। परिणामस्वरूप लोगों के मन में पद्मावती का दर्जा एक देवी के रूप में है। राजपूत संगठनों की अतिरंजित व्यग्रता उनके इस डर में देखी जा सकती है कि बॉलीवुड रानी पद्मावती की साहसिक और सुंदर छवि को विकृत करने पर आमादा दिखता है। अधिकांश लोगों का यह मानना है कि पद्मावती का वजूद था। वह काल्पनिक चरित्र नहीं है। उन्होंने उन मूल्यों की रक्षा की, जो एक भारतीय नारी को प्रिय हैं। हालांकि इस उग्र विवाद के दौरान ही देश के कुछ जाने-माने वामपंथी बुद्धिजीवी न सिर्फ इन मान्यताओं पर सवाल उठा रहे हैं, बल्कि पद्मावती को काल्पनिक चरित्र बताकर उनकी भावनाओं से भी खेलने का काम कर रहे हैं।

 

 

परेशानी का सबब बनने वाले ऐसे दु:साहसी बुद्धिजीवियों से बॉलीवुड को बचकर रहना चाहिए, जो खुलेआम हिंदू मान्यताओं और मतों को चुनौती देते हैं। एक बार समस्या की जड़ पकड़ में आ जाने पर भंसाली की टीम के लिए इसका निराकरण करना आसान हो जाना चाहिए। हालांकि यहां पर सवाल यह भी उठता है कि यदि पद्मावती की छवि से फिल्म में किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं की गई है तो संजय लीला भंसाली ने इस विवाद को आरंभ में ही ठंडा करने का प्रयास क्यों नहीं किया? जाहिर है, बॉलीवुड जब बुराई और संकट के स्रोतों की पहचान कर लेगा, जो कि नेहरूवादी और वामपंथी इतिहासकारों द्वारा लिखित नकली इतिहास है, तब वह एक समुदाय से टकराव को टालने में भी सक्षम हो जाएगा। बहरहाल, भारतीय शासन व्यवस्था का यह कर्तव्य बनता है कि वह संजय लीला भंसाली की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और फिल्म के कलाकारों को जान से मारने की धमकी देने वालों के खिलाफ कड़ी कानूनी कार्रवाई सुनिश्चित करे।

 

 

(लेखक प्रसार भारती के पूर्व अध्यक्ष तथा वरिष्ठ स्तंभ्ाकार हैं)