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अंधविश्वास विरोधी कानून-- सुभाष गताडे

झारखंड पिछले दिनों दो घटनाओं के चलते देश भर में सूर्खियों में रहा. पहली घटना में जहां चोटीकटवा होने के आरोप में एक गरीब महिला की लोगों ने पीट-पीट कर हत्या कर दी, तो दूसरी घटना में दुमका की एक महिला ने अपनी संतान को कुएं में फेंक दिया और अपनी चोटी खुद काट ली. ऐसी घटनाओं के लिए इन दिनों कोई राज्य, कोई इलाका अपवाद नहीं हैं.

मामला महज आम लोगों तक सीमित नहीं है, राज्य या समाज में जिम्मेदारी के पद पर बैठनेवाले लोग भी अपनी संलिप्तताओं से अंधश्रद्धा को नयी मजबूती प्रदान करते रहते हैं. एक घटना पिछले माह गुजरात में की है, जब झाड़फंूक करनेवाले ओझाओं के ‘सम्मान समारोह' में राज्य के दो अग्रणी मंत्रियों ने शिरकत की, यह जानते हुए कि राज्य के ग्रामीण इलाकों में यह झाड़फंूक करनेवाले लोग जनता के अज्ञान का फायदा उठाते हुए उनका दोहन करते हैं.

 

प्रश्न उठता है कि 21वीं सदी की दूसरी दहाई में क्या ऐसी घटनाओं से मुक्ति की की कोई सूरत नजर आती है. आखिर सरकारें, नागरिक समाज क्यों ऐसी घटनाओं के सामने असहाय नजर आता है? 

 

संविधान की वह धारा 51-ए, जो मानवीयता एवं वैज्ञानिक चिंतन को बढ़ावा देने में सरकार के प्रतिबद्ध रहने की बात करती है, जो अनुच्छेद राज्य पर वैज्ञानिक एवं तार्किक सोच को बढ़ावा देने की जिम्मेदारी डालता है, वह क्या महज उसकी शोभा बढ़ाने के लिए है?

 

निश्चित ही चित्र इतना इकतरफा नहीं है. ऐसे लोग, ऐसे संगठन, ऐसी कोशिशें इस समाज में जारी हैं, जो उसी संविधान के तहत लोगों के बीच वैज्ञानिक चिंतन के प्रचार प्रसार के लिए प्रतिबद्ध हैं, उन्हें उन ताकतों से मुक्ति दिलाने के लिए प्रयासरत हैं, जो उनकी आस्थाओं का दोहन कर रहे हैं. 

 

पंजाब का नयी बुलंदियों को छूता तर्कशील आंदोलन हो या उत्तर प्रदेश में अर्जक संघ जैसे प्रयास हों, या लोगों की स्वतःस्फूर्त कोशिशें हों, ये सब अनाचारों, दुराचारों में लिप्त बाबाओं के विरोध में सड़कों पर उतर रहे हैं. सुदूर ओडिशा पिछले दिनों ऐसे कई बाबाओं के खिलाफ एक नयी तरह की सरगर्मी का गवाह बना और किन्हीं सारथी बाबा फिर किन्हीं सुरा बाबा और उसके बाद किन्हीं बाना बाबा की करतूतों के खिलाफ लोगों ने सक्रिय प्रतिरोध करके उन्हें अपना बोरिया बिस्तर समेटने के लिए मजबूर किया.

 

अभी शायद इसी बात की ताईद करते हुए पुणे में अंधश्रद्धा निर्मूलन के लिए अपनी ताउम्र संघर्षरत रहे डाॅ नरेंद्र दाभोलकर की चौथी बरसी पर दिन भर का आयोजन हुआ, जिसमें एक तरफ जहां लोगों ने मांग की कि डाॅ दाभोलकर के कातिलों को जल्द से जल्द पकड़ा जाये, वहीं साथ-साथ यह बात भी रेखांकित की कि उनके अचानक गुजर जाने से मुहिम ठंडी नहीं पड़ी है, बल्कि और तेजी से आगे बढ़ी है.

 

हम जानते हैं कि 20 अगस्त 2013 को पुणे में डाॅ दाभोलकर पर कातिलाना हमला हुआ था, जब वह रोजमर्रा की तरह मार्निंग वाॅक से लौट रहे थे. और लोगों को लगा था कि अंधश्रद्धा के खिलाफ संघर्ष की अगुआई कर रहे इस अलग किस्म के ‘कमांडर' के न रहने से मुहिम धीमी हो जायेगी. यह अलग बात है कि दाभोलकर ने जिस मिशन के प्रति अपने आप को न्यौछावर किया था, वह उतने ही उत्साह से आगे बढ़ रहा है. 

 

डाॅ दाभोलकर ने जिस कानून के निर्माण के लिए लगभग डेढ़ दशक लगाया था, उसे उनके जाने के बाद ही सरकार ने स्वीकारा है. और ‘काला जादू कानून' नाम से अधिक चर्चित इसी कानून के निर्देशों के मद्देनजर ऐसे बाबाओं को जेल भेजा जा चुका है, जो चमत्कार दिखा कर लोगों को गुमराह कर रहे थे.

 

एक अखबार ‘मिंट' में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक, विगत साढ़े तीन वर्षों में इसके तहत चार सौ ऐसे बाबाओं के खिलाफ केस दर्ज हुए हैं, जो जनता को गुमराह करने में लगे थे. अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति उन तीन सौ इकाइयों के जरिये सक्रिय हैं, जो महाराष्ट्र के सभी जिलों में ही नहीं, बल्कि कर्नाटक एवं गोवा के कुछ हिस्से में भी कायम की गयी हैं. 

 

दिलचस्प बात है कि अपनी मौत के पहले महाराष्ट्र या उनके आसपास के क्षेत्रों के अलावा शेष भारत में लगभग अनभिज्ञ रहे डाॅ दाभोलकर के विचारों एवं कार्यों को लेकर लोग परिचित हुए हैं और अपने अपने स्तर पर उसी किस्म के प्रबोधन के काम में व्यस्त हो रहे हैं और और अब यह आवाज देश के बाकी हिस्सों में भी उठनी शुरू हो गयी है कि ‘काला जादू कानून' समूचे देश के लिए भी बने.

 

यह तलाश भी तेज हुई है कि आखिर तर्कविरोध की ताकतों को कहां से खाद पानी मिलता है. डाॅ दाभोलकर अपने अंतिम दिनों में अलग-अलग जाति पंचायतों द्वारा व्यक्ति के अधिकार के हनन के खिलाफ भी सक्रिय थे, उनके द्वारा लोगों पर डाले जानेवाले सामाजिक बहिष्कार का भी विरोध कर रहे थे.