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अंधेरी जिंदगी में ज्ञान की रोशनी बिखेर रहे 'निमंत्रण पत्र'

इंदौर। दृष्टिबाधितों की अंधेरी जिंदगी में इल्म की रोशनी बिखेरने में पुराने निमंत्रण पत्र उपयोगी साबित हो रहे हैं। इन विशेष बच्चों की परवरिश और पढ़ाई की जिम्मेदारी संभाल रही संस्थाएं उपयोग में आ चुके कार्ड का इस्तेमाल ब्रेल लिपि के जरिए अध्ययन के लिए कर रही हैं।

शादियों के सीजन में अमूमन हर घर में दर्जनों विवाह पत्रिकाएं आती हैं, जिन्हें शादी के बाद आमतौर पर रद्दी में फेंक दिया जाता है। इसके अलावा कॉलेज स्टूडेंट्स के प्रोजेक्ट वर्क, कंपनियों के मैनुअल और पेंपलेट समेत कई पुराने डॉक्यूमेंट्स हैं जिनका उपयोग ब्रेल लिपि एजुकेशन में हो रहा है।

दृष्टिहीनों के लिए काम कर रही संस्थाएं इन लाखों पत्रिकाओं को एकत्र कर विशेष बच्चों को ब्रेललिपि सिखाने के लिए इस्तेमाल कर रही हैं। पहले भी इस तरह की कोशिशें होती रही हस मगर पर्यावरण संरक्षण में जागरुकता के साथ ही अब ऐसे प्रयासों में तेजी आ गई है।

हर साल 25 लाख पेपरों की जरूरत

'नेशनल एसोसिएशन फॉर द ब्लाइंड' के डेवलपमेंट ऑफिसर संजय लोखंडे के मुताबिक शहर के विभिन्न स्कूलों और कॉलेजों में करीब एक हजार दृष्टिबाधित बच्चे पढ़ रहे हैं। एक साल में एक बच्चे को ए4 साइज के 140 जीएसएम के करीब 2500 पेपर लगते हैं। सहारनपुर मिल से एक पेपर 1.90 रु. में मिलता है।

इस तरह मोटेतौर पर शहर के दृष्टिबाधित बच्चों की पढ़ाई पर साल में लगभग 50 लाख रु. पेपर पर खर्च होते हैं। मगर असल खर्च इससे आधा ही होता है क्योंकि दानदाताओं द्वारा लाखों की संख्या में पुराने आमंत्रण कार्ड संस्थाओं को मुफ्त में मुहैया कराए जाते हैं। जो बच्चे किसी संस्था से संबद्ध नहीं हैं उनमें से भी ज्यादातर को उनके मिलने-जुलने वाले लोग हर साल सैकड़ों पुराने कार्ड दे देते हैं।

लोकसभा स्पीकर के दफ्तर से भी मिलते हैं पेपर

मूक बधिर विद्यालय एवं अंधशाला के नितिन बड़जात्या बताते हैं कि आमंत्रण पत्रों के अलावा भी कई क्लबों, संगठनों और बड़ी संस्थाओं से हर साल हजारों की संख्या में ए4 साइज के (ड्राइंग शीट जैसे मोटे पेपर) मिल जाते हैं। इनमें मुख्य रूप से कंपनियों के बेकार हो चुके कैटलॉग और पेम्पलेट होते हैं। इसके अलावा लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन, गोपीकृष्ण नीमा और सुरेश मिंडा सरीखे कई लोगों के घरों-दफ्तरों से हर साल कई बोरे मोटे पेपर्स संस्था को मुहैया कराए जाते हैं।

साधारण प्रिटिंग से नहीं होती दिक्कत

महेश दृष्टिहीन कल्याण संघ से जुड़ी डॉली जोशी कहती हैं कि सामान्यत: कार्ड्स और मैनुअल आदि पर साधारण प्रिंटिंग से ब्रेल लिपि में पढ़ने वालों को कोई दिक्कत नहीं होती है, मगर लेमिनेटेड पेपर पर अक्षर का उभार स्पष्ट नहीं आ पाता है। उन्होंने बताया कि 44 साल पुरानी संस्था में फिलहाल 172 बच्चियां हैं। नर्सरी से 8वीं तक ये संस्थान के स्कूल में पढ़ती हैं, जबकि 9वीं से 12वीं क्लास की लड़कियां अहिल्या आश्रम में। स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर की पढ़ाई ओल्ड जीडीसी में कराई जाती है।

तथ्य: एक नजर में

- 1000 के करीब दृष्टिहीन बच्चे पढ़ते हैं शहर के विभिन्ना स्कूलों, कॉलेजों में

- 25 लाख ए4 साइज, 140 जीएसएम के पेपर उपयोग करते हैं ये बच्चे सालभर में

- 1.5 से 2 रु. तक है एक पेपर की कीमत।

- 50 लाख रु. की कीमत के पेपर एक साल में चाहिए 1000 बच्चों को।

- 25 लाख रु. बच जाते हैं पुराने इन्विटेशन कार्ड्स के जरिए। सैकड़ों पेड़ भी बच जाते हैं।