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अडानी पर आरोप, क़ानूनी नोटिस और संपादक का इस्तीफ़ा- क्या है पूरी कहानी?

सरकारी नीति में बदलाव करके गौतम अडानी को 500 करोड़ रुपए का फ़ायदा पहुंचाने के आरोप लगाने वाले संपादक ने किन हालात में इस्तीफ़ा दिया, इससे जुड़ी नई बातें सामने आई हैं.

अडानी समूह पर आरोप, इसके बाद पत्रिका को नोटिस और उसके बाद संपादक परंजॉय गुहा ठाकुरता का इस्तीफ़ा. अब इस बारे में पत्रिका छापने वाली समीक्षा ट्रस्ट ने बयान जारी किया है.

इसमें ट्रस्ट ने पूर्व संपादक परंजॉय गुहा ठाकुरता पर वादाख़िलाफ़ी और उन पर किए गए भरोसे को तोड़ने का इल्ज़ाम लगाया है.

वहीं इस मामले में बीबीसी से बातचीत में ठाकुरता ने ये भी कहा कि इस पूरे मामले में ट्रस्ट सदस्यों के बर्ताव से वो "दुखी और हताश" हैं.

18 जुलाई मंगलवार को ठाकुरता ने अपने पद से ये कहकर इस्तीफ़ा दे दिया था कि ट्रस्ट का उन पर भरोसा नहीं रहा. वहीं ट्रस्ट ने मीडिया के एक हिस्से में लगाए जा रहे उन आरोपों को भी ख़ारिज किया कि वो बाहरी दबाव में आ गया है.

क्या है मामला?

दरअसल, पत्रिका ने गुजरात के अडानी पावर कंपनी से जुड़े दो लेख छापे थे जिसे लेकर कंपनी ने पत्रिका को क़ानूनी नोटिस भेज दिया. इन लेखों में सरकार पर कथित तौर पर कंपनी को आर्थिक फ़ायदा पहुंचाने का आरोप लगाया गया था.

अपने क़ानूनी नोटिस में अडानी पावर ने लेख को निंदनीय, बहकानेवाला और अपमानजनक बताया जिसका मकसद अडानी ग्रुप और उसके प्रमुख गौतम अडानी की "छवि को ख़राब करना" था.

क़ानूनी नोटिस में कंपनी ने ईपीडब्ल्यू से बिना शर्त क्षमायाचना छापने और लेखों को हटाने की मांग की थी. ईपीडब्ल्यू के वकील ने क़ानूनी नोटिस के जवाब में आरोपों को बेबुनियाद बताया था.

इसी क़ानूनी दांव पेच के मद्देनज़र मंगलवार 18 मई को दिल्ली के लोधी एस्टेट में ट्रस्ट सदस्यों और परंजॉय के बीच बैठक हुई.

इस्तीफ़ा
दिल्ली के लोधी एस्टेट इलाक़े में हुई बैठक में परंजॉय के अलावा समीक्षा ट्रस्ट के चेयरमैन डॉक्टर दीपक नैयर, मैनेजिंग ट्रस्टी डीएन घोष, इतिहासकार रोमिला थापर, दीपांकर गुप्ता, राजीव भार्गव और श्याम मेनन मौजूद थे.

ट्रस्ट के सदस्यों की शिकायत थी कि परंजॉय ने उन्हें नहीं बताया था कि ईपीडब्ल्यू की ओर से वकील की सेवाएं ली गईं और अडानी पावर के क़ानूनी नोटिस का जवाब दिया गया.


उनका कहना था कि वकील की सेवा लेने से पहले या फिर क़ानूनी नोटिस का जवाब देने से पहले परंजॉय को ट्रस्ट की अनुमति लेनी चाहिए थी. परंजॉय कहते हैं, "मैंने माना कि उन्हें वकील की सेवाओं के बारे में नहीं बताना मेरी ग़लती थी. मैंने ये काम हड़बड़ी में किया था."

उधर ट्रस्ट का कहना था कि क़ानूनी जवाब में ये कथित तौर पर कहना कि ऐसा ट्रस्ट की अनुमति से किया गया था ग़लत था. ट्रस्ट ने कहा है कि इस बारे में बात करने के लिए उसने 18 जुलाई की बैठक बुलाई थी जहां ठाकुरता ने इस्तीफ़ा दे दिया.

परंजॉय के अनुसार इस बैठक में ट्रस्ट के सदस्यों ने उनसे कहा कि उनका भरोसा परंजॉय पर से ख़त्म हो गया है और कि उन्होंने पत्रिका का चरित्र बदल दिया है जो कि पत्रिका के लिए ठीक नहीं है.

मानहानि
परंजॉय के अनुसार ट्रस्ट सदस्यों ने कहा कि भारतीय मानहानि क़ानून के अंतर्गत "किसी को जेल में डाला जा सकता है, किसी को सज़ा दी जा सकती है, किसी के ऊपर जुर्माना लग सकता है और मैंने ट्रस्ट को ख़तरे में डाला."

परंजॉय के मुताबिक ट्रस्ट सदस्य चाहते थे कि वो एक सह-संपादक के साथ काम करें, संपादक और ट्रस्ट के बीच संपर्क 'कोड ऑफ़ कंडक्ट' पर आधारित हो, अडानी पावर के लेखों और वकीलों की चिट्ठियों को वेबसाइट से हटाया जाए और उनकी बाइलाइन में कोई लेख न छपे.

परंजॉय ने कहा, "दोपहर पौने एक बजे का वक़्त था. मैंने कहा मुझे एक कोरा काग़ज़ दे दीजिए. मैंने उसी वक़्त इस्तीफ़ा दे दिया. मैंने उनसे तुरंत इस्तीफ़ा स्वीकार करन को कहा. मेरा अनुरोध मान लिया गया और बात ख़त्म हो गई. 15 महीनों और दो हफ्तों का रिश्ता ख़त्म हो गया."

परंजॉय के अनुसार उन्होंने नौकरी की शुरुआत में ही सदस्यों को बताया था कि वो राजनेताओं और पूंजीपतियों के बीच गठबंधन और कथित कॉरपोरेट घोटालों जैसे विषयों पर लिखना चाहेंगे और उसे लेकर ट्रस्ट सदस्यों ने कोई आपत्ति नहीं जताई थी.

परंजॉय कहते हैं, "उन्होंने बोला, ज़रूर कीजिए. किसी ने रोका नहीं, किसी ने ना नहीं कहा."

'दुखी'
वो कहते हैं, "मैं ट्रस्ट सदस्यों के व्यवहार से हताश और दुखी हूं." लेकिन क्या ट्रस्ट सदस्यों की चिंता वाजिब नहीं कि पत्रिका बेवजह क़ानूनी पचड़ों में क्यों फंसे?

परंजॉय के अनुसार, "अगर समीक्षा ट्रस्ट को चिंता है तो मैं उससे सहमत नहीं हूं. हर नागरिक का ये मौलिक अधिकार है कि वो किसी के ख़िलाफ़ मामला शुरू कर सकते हैं."


ये लेख अभी भी 'द वायर' वेबसाइट पर मौजूद हैं और समाचार वेबसाइट के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन कहते हैं कि उनका इन लेखों को वेबसाइट से हटाने का कोई इरादा नहीं है.

वो कहते हैं, "अगर अडानी साहब अदालत में जाएंगे तो हम अदालत में जवाब देंगे."

सिद्धार्थ वरदराजन कहते हैं, "समीक्षा ट्रस्ट का एक क़ानूनी नोटिस पर ऐसा क़दम उठाना ठीक नहीं था. ये ठीक होता कि समीक्षा क़ानूनी ढंग से इसका जवाब देता. वही लीगल नोटिस हमें भी मिला है. हमारी प्रतिक्रिया अलग है."

"हो सकता है कि समीक्षा ट्रस्ट के ट्रस्टीज नहीं चाहते हों कि कोर्ट कटहरी के चक्कर में मैगज़ीन फंसे. लेकिन आज के माहौल में जिस तरह का दवाब मीडिया पर आ रहा है, समीक्षा ट्रस्ट को ऐसा क़दम उन्हें नहीं लेना चाहिए था. ईपीडब्ल्यू मीडिया का हिस्सा है."

"उद्योगपति की कोशिश होती है कि मीडिया में इनकी कोई आलोचना न हो लेकिन पत्रकारिता का काम होता है कि नए और असुविधाजनक तथ्य खोज निकाले. उन्हें पाठकों और दर्शकों के सामने पेश करे."

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