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अति पिछड़ों की राजनीतिक भूमिका-- बद्री नारायण

बिहार में अब सिर्फ दलितों और पिछड़ों की राजनीति नहीं हो रही, इसकी राजनीति का नया रुझान महादलित और अति पिछड़ों से जुड़ा है। ये दो श्रेणियां बताती हैं कि जिन्हें हम दलित और पिछड़े वर्गों की तरह देखते हैं, उनका स्वरूप हर जगह एक सा नहीं है। इन वर्गों के भीतर भी गैर-बराबरी, ऊंच-नीच या भेदभाव है।

इसके चलते संसाधनों का समान वितरण नहीं हो पाता। इनके भीतर भी ऐसी श्रेणियां हैं, जो सरकार से मिलने वाली सुविधाओं और योजनाओं के ज्यादातर हिस्से को आसानी से हासिल कर लेती हैं और इनका लाभ नीचे तक पहुंचने नहीं देतीं। कई कारणों से ये वंचित श्रेणियां बाकी पिछड़ों व दलितों से पीछे रह जाती हैं।

अति पिछडे़ और महादलित जैसे सामाजिक समूह एक तो छोटी संख्या वाली जातियां होती हैं। दूसरे इनका बसाव किन्हीं विशेष जगहों पर केंद्रित न होकर फैला और छितराया हुआ होता है। यानी लोकतांत्रिक राजनीति में इनका संख्याबल ज्यादा नहीं होता। फिर फैली हुई और बिखरी हुई बसाहट के कारण इन समूहों के वोट चुनावों में प्रभावी स्थिति में भी नहीं होते।

शिक्षा के अभाव के कारण इनमें कोई बड़ा राजनीति नेतृत्व विकसित नहीं हो पाता। ऐसे तमाम सामाजिक और आर्थिक कारण हैं, जिनके चलते इनका राजनीतिकरण भी तेजी से नहीं हो पाता और ये जनतांत्रिक राजनीति में अदृश्य सामाजिक समूह बनकर रह जाते हैं। आमतौर पर कोई राजनीतिक दल इन्हें ज्यादा महत्व नहीं देता। लेकिन जब कोई राजनीतिक दल इनके बीच काम करता है, तो धीरे-धीरे ये छोटे-छोटे सामाजिक समूह लामबंद होकर राजनीति के समीकरण को बदलने की क्षमता रखने लगते हैं।

राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में अति पिछड़ों का मत निर्णायक होगा। बिहार में पिछड़े वर्ग की लगभग 51 प्रतिशत आबादी में करीब 24 प्रतिशत अति पिछडे़ हैं। इनमें लगभग 94 जातियां हैं, जिनमें कुशवाहा, तेली जैसी थोड़ी बड़ी जातियों को अगर छोड़ दें, तो निषाद, चंद्रवंशी (ततवां, धानुक, गड़ेरिया) जैसी जातियों की आबादी काफी कम है। उत्तर बिहार में निषाद की संख्या थोड़ी प्रभावी है।

अति पिछड़ों में आने वाली जातियों को बिहार में पचपनिया, पंचपवनियां जैसे नामों से पुकारा जाता रहा है। सामंती यजमानी व्यवस्था में ये जातियां अपनी सेवा के बदले सामंतों-मालिकों से अपना हिस्सा लेकर जीविका निर्वाह करती थीं। सेवा से जुड़ी जाति होने के कारण अनेक गांवों में तो इनकी संख्या दो या तीन घर से ज्यादा नहीं होती, क्योंकि इनकी जरूरत खास मौकों जैसे शादी-ब्याह, मृत्यु तथा विभिन्न संस्कारों में होती थी। इनके अतिरिक्त इनकी जरूरत ज्यादा नहीं होती थी। पारंपरिक रूप से ये खेतिहर, श्रमिक नहीं होते थे, जिनकी जरूरत गांवों में ज्यादा थी।

इसीलिए ये बिखरी हुई व छोटी आबादी वाली जातियां हैं। अकेली जाति के रूप में इनका आधार बहुत बड़ा नहीं होता, इसलिए इन जातियों से नेता नहीं पैदा हो सके हैं। आजादी के बाद की बिहार की राजनीति को अगर देखें, तो इन समूहों से बड़े नेता कम ही दिखाई पड़ते हैं। उत्तर बिहार में निषाद समूह की संख्या ज्यादा है, इनमें जरूर समय-समय पर नेता उभरते रहे हैं। अति पिछड़ों की अनेक जातियां इसीलिए अपने को अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने की भी मांग करती रही हैं, क्योंकि ये पिछड़ों में आगे बढ़ी जातियों की स्पर्द्धा में टिक नहीं पातीं। इसी कारण से वे आरक्षण का लाभ नहीं ले पा रही हैं। इन्हें महसूस होता है कि इस जनतंत्र में उनकी जितनी हिस्सेदारी है, वह उन तक नहीं पहुंच पा रही है।

पिछले कई वर्षों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुडे़ संगठन अपने 'सामाजिक समरसता अभियान' के तहत इन जातियों के अस्मिता-बोध और हिंदू गौरव को जगाकर उन्हें अपने से जोड़ने की कोशिश करते रहे हैं। इसके लिए इन जातियों पर आधारित अनेक हिंदू सम्मेलन भी आयोजित किए जा चुके हैं, जिनमें अनेक जाति नायकों का गौरवगान हिंदू अस्मिता के विस्तार के रूप में किया जाता है और साथ ही इन जातियों के वंचित होने के एहसास को सहलाकर उन्हें अपने साथ जोड़ने की कोशिश की गई है। ऐसे कई जातीय सम्मेलन पिछले कुछ वर्षों में भारतीय जनता पार्टी ने भी किए हैं।

इतना ही नहीं, भाजपा ने इन जातियों में से कई नेताओं को इस विधानसभा चुनाव में टिकट भी दिए हैं। इसलिए संभव है कि इनमें से कुछ प्रतिशत मत भाजपा को मिले भी। वैसे कई और कारण हैं, जिनके चलते भाजपा अपने को अति पिछड़े वर्ग का नजदीकी घोषित कर रही है। पहला- नरेंद्र मोदी खुद वैश्य समुदाय से आते हैं, जो बिहार में अति पिछड़े वर्ग का हिस्सा है। दूसरा, सुशील मोदी, जो कि बिहार में भाजपा के सबसे बड़े नेता हैं और मुख्यमंत्री पद के एक सशक्त दावेदार भी हैं, वह भी वैश्य समाज से आते हैं। तीसरा उपेंद्र कुशवाहा, जो राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के नेता हैं और एनडीए में शामिल हैं, वह भी अति पिछड़ी कुशवाहा जाति से आते हैं। इसलिए अति पिछड़ी जातियां जैसे कुशवाहा, सोढ़ी, तेली, जो कि व्यापारिक जातियां भी हैं, भाजपा व एनडीए को वोट दे सकती हैं।

अति पिछड़े मतों पर महागठबंधन का दावा भी सशक्त है। नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन ने इनका राजनीतिक महत्व समझते हुए इनमें से कुछ समूहों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी दिया है, पर महागठबंधन और एनडीए, दोनों की राजनीति में इन्हें पर्याप्त स्पेस दिए जाने की अब भी जरूरत है। नीतीश कुमार इन जातियों का समर्थन पाने का दावा कर रहे हैं, क्योंकि उनका मानना है कि पिछड़े में अति पिछड़ों की श्रेणी उन्होंने ही बनाई, उनको सांविधानिक दर्जा दिया और स्थानीय निकाय चुनावों में 17 प्रतिशत आरक्षण भी दिया। उनका मानना है कि ये जातियां चुनाव में उनकी तरफ ही जाएंगी। दिन-ब-दिन बिहार की राजनीति में 'बिखरे-छितराए' समूहों की भूमिका बढ़ती जाएगी। राजनीतिक प्रतिनिधित्व, अस्मिता बोध के साथ ही इन्हें विकास योजनाओं में भी पर्याप्त हिस्सेदारी दिए जाने की जरूरत है।

 

देखना यह है कि इस बिहार विधानसभा चुनाव में इन 94 अति पिछड़ी जातियों का कितना प्रतिनिधित्व होता है। देखना यह भी है कि आधार तल पर ये जातियां अतिरिक्त पिछड़े वर्ग की एकता को स्वीकार कर आगामी चुनाव में मत दे पाती हैं या नहीं। इनका राजनीतिक भविष्य इनके विकास के भविष्य से भी जुड़ा है, जिसके लिए जरूरी है कि ये छितराई-बिखरी छोटी-छोटी जातियां वर्तमान स्थिति से निकलकर अति पिछड़ों की बड़ी श्रेणी के रूप में संगठित हों और एक बड़े बोट बैंक में तब्दील होकर जनतंत्र का दरवाजा खटखटाएं ।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)