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अदूरदर्शी नीतियों से बदहाल किसान - रमेश दुबे

भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ आम आदमी पार्टी की जंतर-मंतर पर आयोजित रैली के दौरान एक किसान की खुदकुशी दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे भी बड़े दुर्भाग्य की बात यह है कि खेती-किसानी की बदहाली पर संजीदा होने के बजाय सभी पार्टियां सियासी रोटी सेंकने में जुट गई हैं। जहां 'आप" दिल्ली पुलिस के बहाने केंद्र सरकार पर दोषारोपण कर रही है, वहीं कुछ भाजपा विरोधी कह रहे हैं कि यदि राजस्थान सरकार किसान गजेंद्र को समय पर मुआवजा दे देती तो वह खुदकुशी न करते। अब तो खुदकुशी करने वाले किसान के परिजनों को दिए जाने वाले मुआवजे को लेकर भी राजनीति हो रही है।

भले ही प्रधानमंत्री से लेकर कांग्रेस उपाध्यक्ष तक मुसीबत की घड़ी में किसानों के साथ खड़े होने की बात करें, लेकिन सच्चाई यह है कि किसानों की समस्या को लेकर किसी भी राजनीतिक दल में वह एका नहीं है, जैसा कि आर्थिक उदारीकरण को लेकर है। इसी का नतीजा है कि पिछले दो दशकों से किसानों की खुदकुशी का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। 1991 में पीवी नरसिंह राव-मनमोहन सिंह द्वारा शुरू की गई नई आर्थिक नीतियां आज भी जारी हैं, जबकि इस दौरान कई सरकारें आई और चली गईं। यहां सबसे अहम सवाल यह है कि परंपरागत सिंचाई की सीमित सुविधा, छोटी होती जोत, महंगा कर्ज, बिजली-पानी की किल्लत जैसी समस्याएं पहले भी थीं, लेकिन बदहाली के बावजूद किसान खुदकुशी जैसा आत्मघाती कदम नहीं उठाते थे। किसानों की खुदकुशी नब्बे के दशक के मध्य से शुरू हुई, जब उदारीकरण की नीतियों के तहत खेती-किसानी को हाशिए पर धकेल दिया गया।

बेमौसम बारिश व ओलावृष्टि का सीधा संबंध भले ही जलवायु परिवर्तन से हो, लेकिन इसके कारण किसानों की जो दुर्दशा हो रही है उसका संबंध हमारी अदूरदर्शी आर्थिक नीतियों से है। महंगे बीज, उर्वरक और कीटनाशक, गिरते भूजल स्तर, बढ़ती मजदूरी के कारण खेती की लागत बेतहाशा बढ़ चुकी है। ऐसे में बिना कर्ज लिए खेती संभव नहीं रह गई है। यद्यपि सरकार ने कृषि कर्ज में भरपूर इजाफा किया है, लेकिन इसकी पात्रता के दायरे को

बढ़ाने के कारण वास्तविक किसानों को उसका बहुत कम लाभ मिल पाता है। यहां महाराष्ट्र का उल्लेख प्रासंगिक होगा जहां कुल कृषि ऋणों का 50 फीसद मुंबई, पुणे और नासिक शहरों में बांटा गया। यही हाल पूरे देश का है। पिछले कुछ सालों में दिल्ली और चंडीगढ़ में खेती के नाम पर 32 हजार करोड़ रुपए का कृषि ऋण वितरित किया गया। खेती-किसानी के नाम पर शहरों के कारोबारियों को बांटे जा रहे कृषि कर्जों का नतीजा यह निकल रहा है कि किसानों को मजबूरन साहूकारों-महाजनों की शरण में जाना पड़ रहा है। यही परिस्थिति फसल चौपट होने पर किसानों को आत्मघाती कदम उठाने पर मजबूर कर रही है।

खेती-किसानी की बदहाली का दूसरा कारण पेट के लिए नहीं, अपितु बाजार के लिए खेती का बढ़ता प्रचलन है। पहले किसान विविध फसलों की बुवाई करता था और पशुपालन जीवन का अभिन्न् अंग था, जिससे किसानों के नुकसान की कुछ भरपाई हो जाती थी। लेकिन अब किसान अपने ही खेत में नहीं, बल्कि पट्टे पर जमीन लेकर भी एक फसली खेती कर रहा है। गृहस्थी का पूरा दारोमदार उस फसल की बाजार में बिक्री पर रहता है और बाजार का चरित्र अपने आप में शोषणकारी होता है। मसलन, पिछले साल किसानों को आलू की अच्छी कीमत मिली थी। इससे उत्साहित होकर इस साल किसानों ने खेत पट्टे पर लेकर और साहूकारों से कर्ज लेकर आलू की खेती की, लेकिन जब फसल तैयार होने को हुई, तब अचानक आई बारिश ने पूरा गणित बिगाड़ दिया।

अब किसानों को कुदरती आपदाओं और घरेलू बाजार के साथ-साथ विदेशी बाजार की नीतियों से भी जूझना पड़ रहा है। उदारीकरण के दौर में सरकार ने कृषि व्यापार का उदारीकरण तो कर दिया, लेकिन भारतीय किसानों को वे सुविधाएं नहीं मिलीं कि वे विश्व बाजार में अपनी उपज बेच सकें। दूसरी ओर विकसित देशों की सरकारें और एग्रो बिजनेस कंपनियां भारत के विशाल बाजार पर कब्जा करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहती हैं। यहां चीनी की कीमत का उदाहरण प्रासंगिक है। पिछले चार साल से बाजार में चीनी की कीमत जस की तस बनी हुई है, जबकि इस दौरान न सिर्फ चीनी उत्पादन की लागत, बल्कि गन्न्े के खरीद मूल्य में भी बढ़ोतरी हो चुकी है। इसका नतीजा यह है कि चीनी मिलें घाटे में चल रही हैं और गन्न्ा किसानों को अपने बकाए के भुगतान के लिए आंदोलन करना पड़ रहा है। एक बड़ी समस्या कृषि उपजों की सरकारी खरीद के सीमित नेटवर्क की भी है। जिन राज्यों में सरकारी खरीद का नेटवर्क नहीं है, वहां किसानों को अपनी उपज को औने-पौने दामों पर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

उपज की कम कीमत के अलावा कृषि पर अत्यधिक जन-भार भी किसानों की बदहाली का एक प्रमुख कारण है। 1950-51 में देश की जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 55 फीसदी था जो कि आज 15 फीसदी से भी कम रह गया है, जबकि इस दौरान कृषि पर निर्भर लोगों की तादाद 24 करोड़ से बढ़कर 72 करोड़ हो गई है। यही कारण है कि खेती पर निर्भर लोगों की आमदनी घटती जा रही है। कृषि क्षेत्र में कम आमदनी के कारण ही गांवों से शहरों की ओर पलायन शुरू हो गया है। इसकी पुष्टि 2011 की जनगणना के आंकड़ों से होती है, जिसके मुताबिक पिछले एक दशक में किसानों की कुल तादाद में 90 लाख की कमी आई है। अर्थात हर रोज 2460 किसान खेती छोड़ रहे हैं। अकेले पंजाब में ही हर साल 10,000 किसान खेती छोड़ रहे हैं। इनमें से एक-तिहाई लोग अपनी जमीनें बेचकर दूसरों के खेतों में या फिर छोटी मंडियों में मजदूरी कर रहे हैं। उदारीकरण के समर्थक भले ही इसे अपनी कामयाबी बताएं, लेकिन सच्चाई यह है कि किसान मजदूर बन रहा है।