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अधर में महिला आरक्षण- संजीव चंदन

अचानक कोई निर्णय नहीं लिया गया तो इस बार शीत-सत्र में भी भाजपा सरकार महिला आरक्षण विधेयक संसद मे पेश नहीं करने जा रही। राज्यसभा में 2010 में ही इसे पास कर लोकसभा के लिए भेज दिया गया था। तब राज्यसभा में विधेयक के पारित होने को इसकी ताकत माना गया था कि अब यह विधेयक जीवित रहेगा। संवैधानिक नियमों के अनुसार राज्यसभा में अगर पेश किए जाने के बाद इस पर मतदान नहीं होता और लोकसभा को नहीं भेजा गया होता, तब तो राज्यसभा के स्थायी सदन होने के कारण यह जीवित होता, लेकिन चूंकि यह वहां से पारित हो गया था और लोकसभा में लंबित था इसलिए पिछली लोकसभा के समापन के साथ ही विधेयक भी च्युत हो गया और नई सरकार अब इसे नए सिरे से संसद के दोनों सदन में लाने के लिए स्वतंत्र है।

एक तस्वीर हम सबके जेहन में जरूर है-सुषमा स्वराज और वृंदा करात सहित महिला नेताओं के मुस्कराते हुए हाथ में हाथ लेकर विजयी मुद्रा की तस्वीर, जो उस वक्त मीडिया में छा गई थी! राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक पारित होने के बाद महिला नेताओं की यह खुशी दलीय सीमाओं से ऊपर जाकर अभिव्यक्त हुई थी। इस सरकार के बनते ही सरकार और पार्टी में ताकतवर नेतृत्व की हैसियत से सुषमा स्वराज ने महिला आरक्षण विधेयक को सरकार की प्राथमिकता भी बतलाई, हालांकि पिछले कुछ महीनों में उनकी वह हैसियत नहीं रह गई है।

यह एक सुखद संयोग है कि मामूली अंतर से ही सही, सोलहवीं लोकसभा में महिला भागीदारी का प्रतिशत बढ़ा है, जो पंद्रहवीं लोकसभा के 10.86 फीसद से बढ़ कर 11 फीसद हुआ है। और पहली बार सरकार में सात महिलाएं उल्लेखनीय मंत्रालयों में काबिज हुई हैं। फिर ऐसी कौन-सी परिस्थितियां हैं कि महिला आरक्षण विधेयक लाने के लिए भाजपा सरकार विचार भी नहीं कर रही है। एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार के लिए इस विधेयक को लाने में इसलिए भी कोई कठिनाई नहीं है कि इसके लिए सैद्धांतिक तौर पर उसे अधिकतर विपक्षियों से भी समर्थन मिल सकता है, जो इसके प्रति प्रतिबद्धता जता चुके हैं।

फिर क्या कारण है इस विधेयक के प्रति उदासीनता का? क्या मुलायम सिंह यादव या लालू यादव का रुख इसका सबब है? नहीं। यह उल्लेखनीय है कि पिछले लोकसभा चुनाव में प्रतिशत के हिसाब से मुलायम सिंह यादव के दल ने ममता बनर्जी के दल के बाद सबसे ज्यादा महिला उम्मीदवार उतारे, जबकि संख्या के हिसाब से आम आदमी पार्टी ने उनतालीस महिला उम्मीदवार उतार कर दो सबसे बड़ी पार्टियों को भी पीछे छोड़ दिया। इस वक्त सत्ताधारी भाजपा ने बीस महिला उम्मीदवार ही उतारे थे।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स के आंकड़ों के अनुसार आधी आबादी की पिछले लोकसभा चुनाव में कुल उम्मीदवारों में महज सात फीसद की ही भागीदारी रही। यह आंकड़ा छठे चरणके चुनाव के कुल 5432 उम्मीदवारों में से 5380 उम्मीदवारों के शपथपत्र के आधार पर तय किया गया है, जिनमें 402 महिला उम्मीदवार ही चुनाव मैदान में थीं और इनमें से एक तिहाई किसी दल से संबद्ध नहीं थीं। इन आंकड़ों से महिला आरक्षण के प्रति मुख्यत: पुरुष वर्चस्व वाले भारत के राजनीतिक दलों की मंशा का अंदाजा लगाया जा सकता है। हालांकि पिछले चुनाव में अपने खराब प्रदर्शन का विश्लेषण करने बैठी माकपा जैसी वामपंथी पार्टियां जिन कारणों को चिह्नित करती हैं उनमें से एक, महिला उम्मीदवारों को कम अवसर देना भी है और इस मामले में वह ‘बूर्जुआ पाटियों' को अपने से बेहतर पाती है।

दरअसल, महिलाओं की क्षमता और योग्यता के प्रति पुरुष वर्चस्व को हमेशा से संदेह रहा है। लेकिन महिलाओं ने जब-जब मौका हासिल किया है अपने को साबित ही किया है। (कभी भी पुरुष-उदारता ने उन्हें मौका नहीं दिया है, या तो उन्होंने लड़ कर अधिकार हासिल किए हैं या पितृसत्तात्मक समाज की कमजोरियों ने उन्हें वह अवसर दे दिया है)। स्थानीय निकायों में महिलाओं को पचास फीसद आरक्षण पहले-पहल बिहार में 2005 में मिला, तो समाज इसके लिए तैयार नहीं था। व्यावहारिक तौर पर स्थानीय महिला जनप्रतिनिधियों के पुरुष अभिभावक ही सत्ता संचालन का काम करने लगे। ह्यमुखियापतिह्ण जैसे शब्द का आविर्भाव हुआ, महिला मुखिया के लिए अश्लील गीत प्रचलन में आए। बिहार में अपनी स्वतंत्र पत्रकारिता के दौरान मेरा भी ऐसे दर्जनों मुखियापतियों से साबका पड़ा। लेकिन अवसर ने जल्द ही अपने रंग दिखाने शुरूकिए हैं।

बिहार के तुरत बाद पचास फीसद आरक्षण महाराष्ट्र में भी लागू हुआ और इन दो राज्यों का अनुभव यह है कि स्थानीय महिला जनप्रतिनिधियों ने शुरुआती हिचक के बाद धीरे-धीरे पुरुष अभिभावकों से मुक्ति पानी शुरूकर दी है। महाराष्ट्र के एक जिले की लगभग तीन दर्जन पंचायतों के अध्ययन के आधार पर एक शोध निष्कर्ष यह भी सामने आया कि महिला सरपंच (मुखिया) वाली पंचायतों में महिलाओं का राजनीतिकरण ज्यादा हुआ है, वे ग्राम पंचायत में ज्यादा सक्रिय हुई हैं। मेरे एक पत्रकार मित्र का अनुभव बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी को लेकर उल्लेखनीय है। राबड़ी देवी के मुख्यमंत्री बनने पर उनका साक्षात्कार करने जब वह गर्इं तो एक सवाल के जवाब में बिहार की पहली महिला मुख्यमंत्री ने कहा कि ‘साहब के कहने पर मैं मुख्यमंत्री बन गई।' पांच साल बाद उन्हीं राबड़ी देवी का साक्षात्कार बदला-बदला सा था, एक मंजी राजनेता के साक्षात्कार जैसा।

इन उदाहरणों के विपरीत, दुनिया भर में मतदाता के रूप में महिलाओं के अधिकार से लेकर विधायिका में आरक्षण की मांग के प्रति पुरुष-नेतृत्व का रुख अड़ियल या संशय वाला रहा है। नहीं तो कोई कारण नहीं कि जिस महिला आरक्षण विधेयक को 2010 में राज्यसभा ने पास किया था, उसमें लोकसभा के लिए तैंतीस फीसद आरक्षण का प्रावधान तो था, लेकिन राज्यसभा में नहीं, राज्यों की विधान परिषदों में भी नहीं। कहने की जरूरत नहीं कि किसी कानून को बनाने में राज्यसभा की अहम भूमिका को देखते हुए यह व्यवस्था पुरुष-नेतृत्व के द्वारा सत्ता की कुंजी अपने हाथ में रखने की प्रवृत्ति के कारण ही की गई है।

एक तर्क हो सकता है, जैसा कि कुछ कानूनविदों और महिला अधिकार कार्यकर्ताओं का भी मत था कि चूंकि राज्यसभा और विधानपरिषद में चुनाव की प्रकृति अलग है, एक बार में एक निश्चित संख्या में लोग नहीं चुने जाते हैं, इसलिए वहां आरक्षण संभव नहीं है। यह तर्क इसलिए कमजोर है कि उसी महिला आरक्षण विधेयक में, जो तब राज्यसभा से पारित हुआ था, लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में नामित होने वाले दो ऐंग्लो इंडियन सदस्यों के लिए यह प्रावधान किया गया था।

वर्ष 1996 में एचडी देवगौड़ा सरकार के दौरान पहली बार महिला आरक्षण विधेयक पेश होने के बाद इसे चौदह साल लगे राज्यसभा से पारित होने में, और उसके बाद चार साल तक यह विधेयक यूपीए सरकार की घोषित सदिच्छा के बावजूद लोकसभा में पास नहीं हो सका। गेंद अब पूर्ण बहुमत वाली भाजपा के पाले में है। सवाल है कि क्या फिर से मुलायम सिंह यादव या लालू यादव के बहाने इस विधेयक को और टाला जाएगा, जबकि इस लोकसभा में उनकी शक्ति नगण्य है। सवाल यह भी है कि ‘आरक्षण के भीतर आरक्षण' की मांग क्या मुलायम सिंह, लालू यादव आदि के द्वारा, इस विधेयक को टालने का हथियार भर है! ऐसा नहीं माना जा सकता।

यह सही है कि आज भारतीय लोकतंत्र जिस मुकाम पर है, संख्या और भागीदारी के अनुपात से ही चुनावों में टिकट बांटे जाते हैं। जाति विशेष की संख्या देखते हुए ही उम्मीदवार तय होते हैं और इस प्रवृत्ति ने कम से कम इतना सुनिश्चित तो जरूर किया है कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों में टिकट बंटवारे में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान न होने के बावजूद, इन जातियों से प्रतिनिधि लोकसभा में बड़ी संख्या में पहुंच रहे हैं। लेकिन सवाल है कि आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग से कौन-सा वर्ग भयभीत है और ऐसा प्रावधान हो तो हर्ज ही क्या है। ‘परकटी' और ‘बालकटी' जैसे जुमलों की निंदा करते हुए इस विडंबना को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि इसके प्रति पुरुष वर्चस्व के अलावा स्त्रीवादी आंदोलनों का सवर्ण वर्चस्व भी समान रूप से जिम्मेवार है।

आखिर महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग करती स्त्रीवादी आंदोलनकारियों के बीच इस समतामूलक प्रावधान के लिए ऐक्य क्यों नहीं है। इस सवाल का जवाब स्त्रीवादी आंदोलनों और मंडल आंदोलनों के दौरान के इतिहास की घटनाओं में छिपा है, जो बहुत पुरानी भी नहीं हैं। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के दौरान दिल्ली के एक संभ्रांत महिला कॉलेज की सवर्ण छात्राओं ने उसके विरोधियों का साथ जमकर निभाया। उनके हाथों में एक तख्ती होती थी, ‘हमारे पतियों से नौकरी नहीं छीनो।' मंडल के खिलाफ आंदोलनों में शामिल इन छात्राओं को लिंग-भेद और जाति तथा लिंग के अंतर्संबंध पर तब भी शायद ठीक-ठीक समझ नहीं बनी होगी, जब एक अध्ययन के अनुसार इस आंदोलन के तुरंत बाद के छात्रसंघ चुनावों में छात्राओं के खिलाफ भेदभाव के मामलों में उनके सवर्ण साथियों की जगह दलित साथियों ने ही उनका साथ दिया था।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में समानता के प्रति मूल प्रतिबद्धता से किंतु-परंतु के साथ की आस्था के कारण ही शायद महिला आरक्षण विधेयक के लिए महिला नेताओं और आंदोलनकारियों ने अपेक्षित सफलता पिछले अठारह सालों में भी प्राप्त नहीं की है। इन्हीं रास्तों से पुरुष-वर्चस्व अपने लिए मार्ग तलाश लेता है। यही कारण है कि राज्यसभा में महिला प्रतिनधित्व का विषय विधेयक में शामिल नहीं होता है या ‘आरक्षण के भीतर आरक्षण' के समर्थकों को खलनायक बना कर पुरुषतंत्र इस महत्त्वपूर्ण विधेयक को टालता रहता है। हो सकता है कि महिला आरक्षण को राजनीतिक सहमति देने वाली भाजपा भी सर्वसम्मति के शिगूफे के साथ इस विधेयक को जब तक संभव हो, लटकाए रखे।