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अधूरी तैयारियां - उपेंद्र प्रसाद

आखिरकार खाद्य सुरक्षा कानून अब हकीकत बनने जा रहा है। आजादी के बाद का संभवतः यह सबसे महत्वाकांक्षी कानून है, जिसका उद्देश्य देश के लोगों को भोजन उपलब्ध होने की गारंटी प्रदान करना है। इसके दायरे में ग्रामीण इलाके की 75 फीसदी और शहरी इलाके की 50 फीसदी आबादी रखी गई है और मान लिया गया है कि जिनको दायरे में नहीं रखा गया है, वे अपनी खाद्य सुरक्षा करने में खुद समर्थ हैं।

यह कानून जितना महत्वाकांक्षी है, इसे लेकर व्यक्त किए जा रहे संशय उतने ही ज्यादा बड़े हैं। देश की खाद्य सुरक्षा के लिए संघर्ष कर रहे लोग एक तरफ अपनी नाराजगी जाहिर कर रहे हैं कि इसके दायरे में देश की पूरी आबादी को क्यों नहीं लाया गया, वहीं दूसरी तरफ ऐसे लोगों की तादाद काफी है, जो मानते हैं कि यह एक ऐसा कानून है, जिसका पालन संभव ही नहीं है।

खाद्य सुरक्षा का मतलब है, खाद्य उत्पादन में वृद्धि, उत्पादकों यानी किसानों से अनाज की खरीद का पुख्ता इंतजाम, अनाज के भंडारण की व्यवस्था और उसके वितरण का उचित प्रबंध। इसमें अनाज के उत्पादकों को उनकी उपज का सही मूल्य उपलब्ध कराना और उपभोक्ताओं को सही दर पर अनाज उपलब्ध कराने की इच्छाशक्ति और सामर्थ्य भी शामिल है।

सवाल उठता है कि क्या इस तरह की तैयारियां पूरी कर ली गई हैं? जवाब है- नहीं। अपने देश में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी निवास करती है और संभव है कि अगले एक-दो दशकों में ही हम दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन जाएं। हम दावा करते हैं कि हमने अनाज उत्पादन में आत्म निर्भरता प्राप्त कर ली है। मगर तथ्य यह भी है कि गरीबी के कारण हमारे देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को भरपेट भोजन भी नहीं मिल पाता। उनकी क्रयशक्ति कम है। इस कारण देश में अनाज की जितनी खपत होनी चाहिए, उतनी हो नहीं पाती है और देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कुपोषण का शिकार रहता है। इस असंतुलन को दूर करने के लिए खाद्य उत्पादन में भारी वृद्धि करनी होगी।

इस समय सिर्फ हरियाणा, पंजाब, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में ही, वहां की स्थानीय जरूरत से ज्यादा अनाज का उत्पादन हो पाता है। इन राज्यों के सरप्लस से अन्य राज्यों के अनाज घाटे को पूरा किया जाता है। जाहिर है, यदि अनाज का उत्पादन बढ़ाना हो, तो पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश में अनाज का उत्पादन बढ़ाना पड़ेगा। इन राज्यों की जमीन उपजाऊ है, लेकिन सिंचाई की व्यवस्था की कमी और बाढ़ के कारण अनाज उत्पादकता काफी कम है। पानी की बहुलता वाले ये प्रदेश, जो परंपरा से पिछली कई सदियों से भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे समृद्ध इलाके हुआ करते थे, आज सबसे गरीब इलाके में तबदील हो गए हैं। यहां की भूमि और जल प्रबंधन और उसे ज्यादा अनाज उत्पादन के अनुकूल बनाने के लिए अरबों-अरब रुपये के निवेश की जरूरत है। पर वहां निवेश की इच्छाशक्ति हमारे नीति निर्माताओं में दिखाई नहीं देती।

खाद्य सुरक्षा की किसी व्यवस्था में किसानों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। उनका ध्यान रखने के लिए अनाजों के समर्थन मूल्य की व्यवस्था कायम की गई है, पर यह व्यवस्था सही तरीके से काम नहीं कर पा रही है। जब फसल कटती है, तो किसानों को समर्थन मूल्य से बहुत कम कीमत पर अपना अनाज बाजार में बेचना पड़ता है और इस तरह उन्हें मिल रहा समर्थन उन बिचौलियों के काम आ जाता है, जो कम कीमत पर अनाज खरीदकर समर्थन मूल्य पर सरकार को बेच डालते हैं। प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून को लेकर किसान आज आशंकित हैं, तो इसका कारण यही है कि उन्हें लगता है कि उपभोक्ताओं को कम कीमत पर अनाज उपलब्ध करने के नाम पर उनके उत्पादों के समर्थन मूल्य को भी सरकार कम रखेगी और वे शायद लागत भी नहीं निकाल पाएंगे। किसानों का यह डर काल्पनिक नहीं है। जाहिर है, इस भय के माहौल में, न तो अनाज का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है और न लोगों की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है।

अनाजों की खरीद के साथ-साथ उसके भंडारण की समस्या भी देश में बनी हुई है। गोदाम नहीं मिल पाने के कारण अनाज सड़ जाते हैं, या सड़कों पर पड़े रहते हैं। भारतीय खाद्य निगम के केंद्रीय वेयर हाउस कॉर्पोरेशन के पास उतने गोदाम नहीं हैं, जो खाद्य सुरक्षा कानून को सफल बनाने के लिए पर्याप्त अनाज का भंडारण कर सकें।

इस कानून के तहत जिन्हें सुरक्षा देनी है, उनकी पहचान का मामला भी बहुत महत्वपूर्ण है। सरकार ने पहले बीपीएल कार्ड बनवा रखा था। वह कार्ड अब भी है, पर उसमें भारी कमियां हैं, और उन्हें दूर करने के लिए एक बीपीएल सर्वे, जिसे सामाजिक आर्थिक जनगणना भी कहा जाता है, चल रहा है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खाद्य सुरक्षा आयोग द्वारा बीपीएल सूची तैयार करने की मांग कर रहे हैं, तो तमिलनाडु की मुखिया जयललिता उस गणना के मानकों से सहमत नहीं हैं और वह अपने राज्य को खाद्य सुरक्षा कानून के दायरे से बाहर रखने की मांग कर रही हैं। इस योजना पर अमल करने में मुख्य भूमिका राज्य सरकारों की ही होगी और उनके द्वारा की जा रही यह आपत्ति शुभ लक्षण नहीं है।

इसके अलावा इसे सफल बनाने के लिए भारी पैमाने पर सबसिडी चाहिए। क्या केंद्र सरकार सबसिडी के उस बोझ को उठाने के लिए तैयार है? डर है कि इसका हश्र शिक्षा के अधिकार कानून जैसा न हो।