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अध्यादेशों पर दोहरा रुख किसलिए? - ए. सूर्यप्रकाश

नरेंद्र मोदी सरकार इन दिनों आर्थिक सुधार को गति देने के लिए अध्यादेशों का सहारा लेने और संसद में गतिरोध से पार पाने के लिए आलोचना के घेरे में है। कांग्रेस समेत कुछ अन्य विपक्षी दल सरकार पर अध्यादेश राज थोपने का आरोप लगा रहे हैं और इस बारे में संवैधानिक प्रावधानों के उपयोग को लेकर सवाल खड़े कर रहे हैं। इस बारे में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी चिंता जाहिर की है। अनुच्छेद 123(1) ऐसे किसी भी समय में जब संसद के दोनों सदन नहीं चल रहे हों, राट्रपति को अध्यादेश लागू करने की शक्ति देता है, बशर्ते राष्ट्रपति को लगे कि परिस्थिति विशेष में ऐसा करना जरूरी है। अनुच्छेद 123(2) कहता है कि एक अध्यादेश में अनिवार्य रूप से वही शक्ति और प्रभाव होता है, जो कि संसद द्वारा पारित की गई विधि का होता है। हालांकि कोई भी अध्यादेश संसद की कार्यवाही पुन: शुरू होने पर दोनों सदनों द्वारा छह सप्ताह की समयसीमा में पारित करना आवश्यक होता है। यदि दोनों ही सदन इसे खारिज करने के पक्ष में मतदान करते हैं अथवा राष्ट्रपति द्वारा इसे वापस ले लिया जाता है तो अध्यादेश खत्म हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यदि संसद कार्यवाही शुरू होने के बाद छह सप्ताह की समयसीमा में स्थापित किए गए अध्यादेश को पारित नहीं करती है तो अध्यादेश का अस्तित्व स्वत: खत्म हो जाएगा।

इसी तरह के प्रावधान अनुच्छेद 213 में दिए गए हैं, जो राज्यपाल को शक्ति प्रदान करता है। अनुच्छेद 123 केंद्रीय मंत्रिमंडल को विधायी शक्ति प्रदान करता है। यह शक्ति संसद के माध्यम से सरकार को संविधान में प्रदान की गई है। इसके माध्यम से संसद किसी मामले में तत्काल कार्यवाही अथवा हस्तक्षेप के लिए कदम उठा सकती है। दूसरे शब्दों में कहें तो संसद बाद में मंत्रिमंडल के निर्णय की पुष्टि करे या नहीं अथवा अध्यादेश के स्थान पर विधेयक पारित करे, सभी स्थितियों में अध्यादेश अपने जीवित कार्यकाल में वह शक्ति और प्रभाव रखता है, जैसा कि संसद से पारित किए गए अन्य कानून रखते हैं। दूसरे शब्दों में, यदि संसद अध्यादेश को अस्वीकार भी कर देती है अथवा इसके स्थान पर नए विधेयक को पारित करने में विफल रहती है, तो भी इस समयावधि में सरकार द्वारा उठाए गए सभी कदम संवैधानिक रूप से मान्य और स्वीकार होंगे।

भारतीय गणतंत्र के जन्म के समय से ही केंद्र में सत्तासीन रहीं सरकारों ने अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए अनुच्छेद 123 का उदारतापूर्वक उपयोग किया है। इस मुद्दे पर मुखर आवाज उठाने वाली कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी इसमें पीछे नहीं रही हैं। उन्होंने हाल के दिनों में बयान दिया कि अध्यादेश के माध्यम से मोदी सरकार लोकतांत्रिक संस्थाओं का अवमूल्यन कर रही है। कांग्रेस आज भले अध्यादेशों की आलोचना कर रही है और इसे कमतर बता रही है, लेकिन इसमें वह कभी पीछे नहीं रही। इसके लिए लोकसभा सचिवालय में रखे दस्तावेजों में अध्यादेशों के इतिहास को देखा जा सकता है। इसके क्रमवार विवरण से सरकारों का रवैया पता चलता है कि किस तरह गणतंत्र के शुरुआती 46 वर्षों में इसका उपयोग किया गया और सरकार ने अध्यादेशों का सहारा लिया।

यह भी आश्चर्यजनक प्रतीत होता है कि जिस दिन संविधान अस्तित्व में आया, उसी दिन जवाहरलाल नेहरू सरकार ने तीन अध्यादेशों की घोषणा की थी। ये अध्यादेश क्रमश: संसदीय (अयोग्यता निवारण) अध्यादेश-1950, हाईकोर्ट (सील अथवा मुहर) अध्यादेश-1950 और न्यायिक कमिश्नरी कोर्ट (हाईकोर्ट के रूप में घोषणा) अध्यादेश-1950 थे। इसी तरह गणतंत्र के पहले वर्ष में ही सरकार ने कुल 21 अध्यादेशों की घोषणा की। वास्तव में नेहरू के कार्यकाल में कुल 101 अध्यादेशों की घोषणा की गई। इसी तरह 15 अगस्त 1947 से लेकर 26 जनवरी 1950 के बीच भी 100 से अधिक अध्यादेश लाए गए थे। ऐसा तब था, जबकि नेहरू ने आजादी से पूर्व खुद को अध्यादेशों के खिलाफ बताया था, लेकिन आजादी के बाद उनका रुख बदल गया। इसके बाद इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में 208 अध्यादेश लाए गए। राजीव गांधी ने भी 37 अध्यादेशों की घोषणा की। पीवी नरसिंहराव ने राष्ट्रपति के पास 108 अध्यादेशों को संस्तुति के लिए भेजा। यदि इन सभी को जोड़ दिया जाए तो 26 जनवरी 1950 से 1996 के अंत तक 500 अध्यादेशों की घोषणा हुई और अकेले कांग्रेस पार्टी के खाते में 454 अध्यादेश आते हैं। इस प्रकार कांग्रेस इस मुद्दे पर दोहरा रवैया नहीं अपना सकती।

इसमें कोई दोराय नहीं कि वर्तमान सरकार को राज्यसभा में गतिरोध की स्थिति का सतत सामना करना पड़ा है। राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा घोषित किए जाने वाले अध्यादेश के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दाखिल की गईं। इस संदर्भ में सर्वोच्च अदालत ने भी अध्यादेश के प्रभावी रहने के समय सरकार द्वारा लिए निर्णयों की वैधता को बरकरार रखा। इसी प्रकार शक्तियों के पृथक्करण को लेकर उठाए गए प्रश्नों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने एमपीलैड्स यानी सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास निधि के संदर्भ में दी गई चुनौती की सुनवाई करते हुए कहा कि संविधान कार्यों के परस्पर दोहराव को प्रतिबंधित नहीं करता और यह विधायी कार्यों को निष्पादित करने वाले लोगों अथवा सांसदों और विधायकों को इस मामले में अवसर प्रदान करती है, जो कि कार्यपालिका द्वारा निर्धारित है। इस संदर्भ में अदालत ने कहा कि संविधान कार्यों के दोहराव को प्रतिबंधित नहीं करता और संसदीय लोकतंत्र में कुछ दोहरावों की स्वीकृति है। कहा जाता है कि शक्तियों का पृथक्करण संविधान की अनिवार्य विशेषता है, लेकिन आधुनिक व्यवस्था में कठोर पृथक्करण न संभव है, न अपेक्षित।

पिछले 30 सालों में हमारे लोकतंत्र का सबसे बड़ा विरोधाभास यही रहा कि किसी भी जनादेश प्राप्त सरकार का संसद के ऊपरी सदन में बहुमत नहीं रहा। इसके परिणामस्वरूप गठबंधन के सहारे लोकसभा मेें बहुमत पाने वाली सरकारें राज्यसभा में कमजोर बनी रहीं। इसी कारण सरकार को संसद की संयुक्त बैठक बुलाने के लिए विवश होना पड़ा। सवाल यही है कि ऐसे में किसे दोष दे सकते हैं?

-लेखक प्रसार भारती के अध्‍यक्ष हैं।