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अनदेखी से फूटा गुस्सा-- देविन्दर शर्मा

देश में जहां कहीं भी किसान अपनी मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं, उससे यह बात साफ हो जाती है कि आखिर कब तक किसान चुप रहेंगे और कब तक बर्दाश्त करते रहेंगे. यह एक बड़ी सच्चाई है कि पिछले 40-50 साल से किसानों के साथ अत्याचार यह हो रहा है कि एक डिजाइन के तहत उनको कमजोर करके रखा जा रहा है. बस, बीच-बीच में कभी-कभार उनकी मदद कर दी जाती है, लेकिन किसानों की अनदेखी होती रहती है. यह जब बर्दाश्त के बाहर हो जाता है, तो किसान सड़कों पर उतर आते हैं. फिलहाल जो देशभर में किसानों में गुस्सा फूट रहा है, इसके लिए हमारी सरकारें जिम्मेवार हैं और सारी राजनीतिक पार्टियां भी जिम्मेवार हैं.

इस परिस्थिति के उपजने के कुछ प्रमुख कारण हैं. साल 1996 में वर्ल्ड बैंक ने हमें कहा कि 2015 तक 40 करोड़ लोगों को गांवों से निकाल कर शहरों की ओर ले जाना है. हमारी सरकारें इस काम में लग गयीं. दरअसल, सरकार की यह मजबूरी है कि वह किसानों को धक्का ताे नहीं दे सकती.

इसलिए, वह ऐसे आर्थिक हालात पैदा करती है, जिससे आजिज आकर किसान खुद ही खेती छोड़ दे. साल 2008 में वर्ल्ड बैंक ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा कि यह काम भारत को जल्दी करना चाहिए और गांवों के युवाओं के लिए देशभर में प्रशिक्षण केंद्र खोलना चाहिए, जो यह सिखाये कि औद्योगिक मजदूर कैसे बनें, ताकि वे शहरों में जाकर मजदूरी कर सकें. और यही हुआ. साल 2009 में पी चिदांबरम ने देशभर में एक हजार आइटीआइ खोले. यानी वर्ल्ड बैंक ने कहा और हमने माना. यह ऐसा आर्थिक डिजाइन है, जिसके तहत युवाओं से खेती छुड़ा कर हम सिर्फ मजदूर ही पैदा कर सकते हैं.

तकरीबन पिछले चालीस साल से किसानों को मिलनेवाले दाम (जिसे फार्म गेट प्राइस कहते हैं) में कोई बढ़ोतरी हुई ही नहीं. अगर आज किसान को टमाटर के दाम तीन रुपये मिलते हैं, और चालीस साल पहले भी दो-तीन रुपये ही मिलते थे, तो इसमें बढ़ोतरी कहां हुई?

गेहूं का दाम जरूर बढ़ा है, लेकिन अगर इसमें इन्फ्लेशन को एडजस्ट करें, तो किसान की वास्तविक आय में कोई वृद्धि नहीं हुई है. दूसरी बात यह है कि अनाज का आउटपुट प्राइस (उपज मूल्य) तो बढ़ा ही नहीं, लेकिन इनपुट प्राइस (लागत मूल्य) बढ़ता ही जा रहा है. बीज, खाद, मशीनों आदि के दाम बढ़ते गये, लेकिन आउटपुट प्राइस ज्यों-के-त्यों बने रहे, ऐसे में किसान मरेगा नहीं तो फिर क्या करेगा! यह खेल बीते चालीस साल से चल रहा है और सरकारें इसका समाधान किसानों को कर्ज देकर करती रही हैं. इस तरह किसान पर दोहरी मार पड़ी. एक तो उनकी फसल का लागत मूल्य तक नहीं मिल रहा है और दूसरे वे कर्जदार होते जा रहे हैं.

ऊपर से दोष यह दिया जाता है कि फसल के नाम पर कर्ज लेकर किसान बेटी की शादी करता है. अरे भई! जिस किसान की जेब में कुछ नहीं है, अगर वह कर्ज के उस पैसे से बेटी की शादी करता है, तो इसमें क्या गलत करता है. एक किसान के पास आय का कोई और स्रोत है ही नहीं, तो वह आखिर करेगा क्या? दरअसल, किसानों पर दोष मढ़ कर सरकारें लोगों को गुमराह करती हैं. वर्ल्ड बैंक की यह रणनीति है कि खाद्य मूल्यों पर नियंत्रण हो. क्योंकि आर्थिक सुधार तभी सफल होंगे, जब सस्ते मजदूर हों और सस्ता भोजन हो. इस तरह से आर्थिक सुधार के नाम पर खेती को बलि का बकरा बनाया जा रहा है.

साल 1970 में गेहूं का दाम 76 रुपये प्रति क्विंटल था, जो 45 साल बाद यानी 2015 में बढ़ कर 1450 रुपये हो गया. यह 19 गुना की वृद्धि थी. दूसरी ओर अगर सरकारी कर्मचारियों का सिर्फ मूल वेतन और दैनिक भत्ते को देखें, तो वह इन 45 सालों में 120 से 150 गुना बढ़ा. इन्हीं सालों में कॉलेज टीचरों और प्रोफेसरों की आय 150 से 170 गुना बढ़ी, जबकि स्कूल टीचरों की आय 280 से 300 गुना बढ़ी.

इन आंकड़ों के ऐतबार से देखें, तो इन 45 सालों में किसान की आय सिर्फ 19 गुना ही बढ़ी. दरअसल, सरकार के नियंत्रण में आउटपुट प्राइस, इनपुट प्राइस और एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) ये तीनों चीजें हैं, इसलिए किसान सरकारों के इस नियंत्रण का शिकार हैं. आज किसानों के गेहूं का वास्तविक दाम बनता है 7600 रुपये प्रति क्विंटल, लेकिन उन्हें दिया जा रहा है मात्र 1625 रुपये. अब उनका गुस्सा नहीं फूटेगा, तो कब फूटेगा? मैं समझता हूं यह गुस्सा बहुत पहले क्यों नहीं फूटा? एक सरकारी कर्मचारी के डीए में साल में 13 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी होती है, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसानों की आय में इतने प्रतिशत की वृद्धि हुई हो.

भारत में सिर्फ छह प्रतिशत किसानों को एमएसपी मिलता है, बाकी 94 प्रतिशत किसान बाजार भरोसे रहते हैं. किसान नेता मांग करते हैं कि सरकार एमएसपी बढ़ाये. इससे सिर्फ छह प्रतिशत को ही फायदा मिलता है, बाकी किसान बाजार के हवाले हैं. इन विसंगतियों को दूर करने के दो तरीके हैं. एक तो यह कि 'फार्मर्स इनकम कमीशन' का गठन किया जाये, जो हर महीने किसान को 18 हजार रुपये उपलब्ध कराये. दूसरा यह कि, जहां एमएसपी मिलता हो, वहां भी सुनिश्चित हो कि किसान को हर महीने 18 हजार रुपये मिलने चाहिए. (वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)