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अपनी त्रासदियों से आजादी के इंतजार में आदिवासी : रामचंद्र गुहा

एक साल पहले तकरीबन इन्हीं दिनों में राहुल गांधी ने ओडिशा में कुछ आदिवासियों से कहा था कि वे दिल्ली में उनकी लड़ाई लड़ेंगे। नियमगिरि के डोंगरिया कोंड आदिवासी बिसार दिए गए और अब राहुल का फोकस यूपी में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर नोएडा के जाट किसानों व अन्य समूहों की ओर हो गया है।

राहुल गांधी का यह व्यवहार समूचे राजनीतिक वर्ग के चरित्र को प्रदर्शित करता है। देश की आजादी के बाद संविधान द्वारा चिह्न्ति ऐसे दो समूहों में आदिवासी भी एक थे, जिन पर विशेष ध्यान देने की जरूरत थी। इसी वजह से संसद में व सरकारी नौकरियों में दलितों के अलावा आदिवासियों के लिए भी सीटें आरक्षित की गईं।

आज हम अपना पैंसठवां स्वाधीनता दिवस मना रहे हैं, तब कितने भारतीय हैं जो इस तथ्य को मानते हैं कि देश के आजाद होने और लोकतांत्रिक देश बनने पर आदिवासियों को बहुत कम मिला है, जबकि उन्हें खोना बहुत कुछ पड़ा है? ऐतिहासिक तौर पर आदिवासियों के साथ सात त्रासदियां रही हैं।

पहली त्रासदी, वे नदियों के बीच घने जंगलों में रहते हैं। उनका बसेरा ज्यादातर लौह अयस्क व बॉक्साइट जैसी खनिज संपदा की पहाड़ियों के ऊपर रहा है। देश में औद्योगिकीकरण को बढ़ावा मिलने के साथ आदिवासियों के बसेरे और आजीविका के साधन विभिन्न बांध व खनन परियोजनाओं की भेंट चढ़ गए।

दूसरी त्रासदी, आदिवासियों को आंबेडकर जैसा अपना कोई मसीहा नहीं मिला। एक ऐसा नेता, जिसका अखिल-भारतीय महत्व हो और जो हर जगह आदिवासियों के मन में उम्मीद और प्रेरणा का अलख जगा सके।

तीसरी त्रासदी, आदिवासी कुछ पहाड़ी जिलों तक सिमटे हुए हैं और इस तरह वे ऐसा वोट बैंक तैयार नहीं करते, जिसकी आवाज राजनीतिक वर्ग द्वारा सुनी जा सके।

चौथी त्रासदी, ‘अनुसूचित जनजाति’ कोटे के अंतर्गत अधिकारी वर्ग की नौकरियों का बड़ा हिस्सा तथा प्रतिष्ठित कॉलेजों की ज्यादातर आरक्षित सीटें पूर्वोत्तर राज्यों के आदिवासियों के पास चली जाती हैं, जो अच्छे स्कूलों में पढ़े होते हैं और जिनकी अंग्रेजी भी अच्छी होती है।

पांचवीं त्रासदी, चूंकि उनका उच्च सिविल सेवाओं में समुचित प्रतिनिधित्व नहीं है और न ही उनकी अपनी राजनीतिक आवाज है, लिहाजा वन, पुलिस, राजस्व, शिक्षा व स्वास्थ्य महकमे से जुड़े अधिकारी उनके साथ अक्सर निर्ममता से पेश आते हैं। देश में जहां दलितों की शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं तक ज्यादा पहुंच नहीं है, वहीं आदिवासियों की स्थिति तो और भी बदतर है।

छठी त्रासदी, आदिवासी ज्यादातर अपने माहौल के अंदरूनी ज्ञान के आधार पर ही आजीविका कमाने का हुनर सीखते हैं, जिसका आसानी से औद्योगिक अर्थव्यवस्था में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

सातवीं त्रासदी, संथाली को छोड़कर किसी भी अन्य आदिवासी बोली को आधिकारिक मान्यता नहीं दी गई है, लिहाजा इन्हें सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाया जाता। शिक्षा का माध्यम उनकी भाषा में न होने के कारण आदिवासी छात्र स्कूली पढ़ाई के समय से ही असहज स्थिति में रहते हैं।

इन सात त्रासदियों के अलावा पिछले दो दशकों में आदिवासी इलाकों में माओवादी चरमपंथियों के बढ़ते प्रभाव के रूप में एक और त्रासदी जुड़ गई है। भले ही ये माओवादी खुद को आदिवासियों का रहनुमा बताते हों, लेकिन उन्होंने इनकी समस्याओं का कोई समाधान पेश नहीं किया है। एक नौवीं त्रासदी तथाकथित ‘राष्ट्रीय’ मीडिया में आदिवासियों की दुर्दशा की तुलनात्मक अदृश्यता भी हो सकती है।

यह मीडिया (प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक दोनों) दलितों की समस्याओं, मुस्लिमों की बदहाली, कन्या भ्रूणहत्या व खाप पंचायतों, टेलीकॉम लाइसेंसों व अधोसंरचनागत परियोजनाओं से जुड़े घोटालों इत्यादि पर तो गंभीर परिचर्चाएं आयोजित करता है, लेकिन आदिवासियों के मामले में ऐसा होता नजर नहीं आता।

ये सभी वास्तविक समस्याएं हैं, जिन पर विचार मंथन होना चाहिए। आदिवासी सबसे असुरक्षित, सबसे ज्यादा पीड़ित समुदाय है। पिछले साल इस तथ्य को राहुल गांधी ने भी स्वीकारा था, लेकिन उनकी यह दिलचस्पी क्षणिक ही साबित हुई।

आज स्वाधीनता दिवस के मौके पर कितने लोग यह मानते हैं कि लोकतांत्रिक भारत में आदिवासियों को मिला बहुत कम है, जबकि उन्हें गंवाना काफी कुछ पड़ा है?

रामचंद्र गुहा

लेखक जाने-माने इतिहासकार हैं।