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अर्थनीति के दो छोर पर- एक के वेणु

जिस भाजपा की उत्तर भारत में लहर बताई जा रही है, उसके चुनावी घोषणापत्र में इतनी देरी की वजह समझ में नहीं आ रही। वरिष्ठ भाजपा नेता बलवीर पुंज ने इस गंभीर मामले को हल्के में निपटाते हुए कहा है कि मोदी अपने भाषणों में जो कुछ कह रहे हैं, उन्हें ही भाजपा का घोषणापत्र मान लिया जाना चाहिए। तो क्या मोदी के उद्गारों से अलग जाकर पार्टी को घोषणापत्र नहीं चाहिए?

भाजपा के घोषणापत्र में देरी की मेरे विचार से वजह यही है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उसके राजनीतिक-आर्थिक एजेंडे में स्वदेशी के गांधीवादी आर्थिक मॉडल पर अधिक जोर देना चाहता है, जबकि मोदी की अगुवाई वाला नया नेतृत्व अर्थव्यवस्था में बड़ी पूंजी के जरिये आक्रामक विकास का इच्छुक है। यह जानना दिलचस्प है कि हाल ही में मोदी ने दिल्ली में कारोबारियों को संबोधित करते हुए कहा कि उनके आर्थिक विचारों को एक शब्द में परिभाषित किया जा सकता है, वह है-ट्रस्टीशिप। ट्रस्टीशिप एक गांधीवादी मॉडल है, जिसमें समाज के संसाधनों पर लोगों का सामूहिक स्वामित्व होता है। गुजरात का विकास मॉडल बड़ी पूंजी को भारी रियायत देने पर आधारित है, इसलिए इसे ट्रस्टीशिप मॉडल तो नहीं ही कह सकते।

लिहाजा ट्रस्टीशिप से कोई वास्ता न रखने वाले मोदी के विकास मॉडल का उस सिद्धांत से दूर-दूर तक नाता नहीं है, जिसका गांधी ने खाका खींचा था। चुनाव के बाद यदि मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी, तो संघ से उसका टकराव तय है। भाजपा का यह द्वंद्व कांग्रेस के भीतरी द्वंद्व की तरह है, जहां 'मनमोहनॉमिक्स' यानी मनमोहन सिंह की उदार अर्थनीति पर विकास के वामपंथी रुझान के मध्यमार्गी नजरिये को वरीयता दी गई है।

केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री और कांग्रेस घोषणापत्र समिति के सदस्य जयराम रमेश कहते हैं, 'कांग्रेस के वामपंथी रुझान के मध्यमार्गी नजरिये पर कोई संदेह ही नहीं रहना चाहिए।' उनकी टिप्पणी से साफ है कि राहुल गांधी कांग्रेस को मनमोहन सिंह के आर्थिक विकास के उस पथ से, जहां यह माना जाता है कि एक अंतराल के बाद समृद्धि का लाभ गरीबों तक भी पहुंचता है, विकास के वामपंथी रुझान के मध्यमार्गी रास्ते पर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेस का घोषणापत्र जारी करने के अवसर पर खुद मनमोहन सिंह का यह स्वीकारना महत्वपूर्ण था कि अमीरों की संख्या बढ़ने से गरीबों को हमेशा लाभ नहीं होता, इसलिए आर्थिक विकास के साथ कल्याणकारी नीतियों का होना जरूरी है।

कांग्रेस में आर्थिक विकास के आक्रामक हिमायतियों पर विकास का वामपंथी नजरिया रखने वालों को प्रमुखता मिल चुकी है। इसकी वजह यह है कि कांग्रेस नेतृत्व यानी सोनिया और राहुल गांधी कल्याणकारी अर्थनीति में यकीन करते हैं। लेकिन भाजपा, बल्कि संघ परिवार, में स्वदेशी गांधीवादियों के समूह और मोदी के आर्थिक विकास के आक्रामक समर्थकों के बीच का तनाव खत्म होने में अभी समय लगेगा। 'मोदीनॉमिक्स' यानी मोदी का अर्थशास्त्र बड़ी पूंजी झोंकने में यकीन करता है, जिसका तत्काल नतीजा तो दिखता है, लेकिन बाद में आर्थिक असमानताओं से जुड़ी अनेक समस्याएं सामने आती हैं। मोदी बड़ी पूंजी के पक्ष में इसलिए भी हैं, क्योंकि बड़े कॉरपोरेट घरानों ने यह लक्ष्य हासिल करने के लिए उन पर दांव लगा रखा है।

कांग्रेस फिलहाल समाजवादी और माकपा जैसी राजनीतिक पार्टियों को रिझाने पर जोर दे रही है। पिछले सप्ताह वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ए के एंटनी ने, जो कांग्रेस में वाम समूह का नेतृत्व करते हैं और जिन पर सोनिया गांधी का भरोसा भी है, वाम पार्टियों से कांग्रेस के साथ मिलकर काम करने की अपील की है। इस पर प्रकाश करात की प्रतिक्रिया से यह अर्थ निकलता है कि वाम दल उसी शर्त पर साथ होंगे, जब चुनाव के बाद वामपंथी रुझान वाली मध्यमार्गी पार्टियों के नए गठजोड़ को कांग्रेस समर्थन दे। यह दिलचस्प घटनाक्रम है, क्योंकि लोकसभा चुनाव में बीस से अधिक सीटें जीतने वाली अनेक क्षेत्रीय पार्टियां समाजवादी/धर्मनिरपेक्ष मंच पर कांग्रेस के साथ आना चाहेंगी। कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में उन क्षेत्रीय पार्टियों को रिझाने की कोशिश की है, जो राममनोहर लोहिया के धर्मनिरपेक्ष/समाजवादी नजरिये से प्रेरित हैं। नीतीश कुमार, लालू यादव और मुलायम सिंह जैसे नेता मोदी को सत्ता से बाहर रखने के लिए कांग्रेस के साथ आना चाहेंगे।

आने वाले दिनों में हम राजनीति का एक दुर्लभ दौर देख सकते हैं, जब लोहियावादी कांग्रेस के साथ मिलकर काम करें। अनेक लोहियावादी आज स्वीकारते हैं कि इंदिरा गांधी के अधिनायकवादी तौर-तरीके के खिलाफ 1977 में बनी जनता पार्टी में भाजपा को शामिल कर उन्होंने गलती की थी। तब मधु लिमये ने दूसरे समाजवादियों को चेताया भी था कि जनसंघ के नेताओं की निष्ठा हमेशा संघ के प्रति ही रहेगी।

इतिहास दूसरी बार खुद को विडंबना की तरह दोहरा रहा है। आज वही लोहियावादी संघ परिवार के अधिनायकवादी तौर-तरीके के खिलाफ एकजुट होते दिख रहे हैं। लोहिया ने पिछड़ों के सशक्तिकरण की जो राजनीति शुरू की थी, उसे आज उस मोदी से खतरा है, जो न सिर्फ पिछड़े हैं, बल्कि पिछड़ों को आक्रामक तरीके से हिंदुत्व की ओर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेस और वाम पार्टियां इसे उन तमाम समूहों को एकजुट करने के अवसर की तरह देख रही हैं, जो अधिनायकवादी हिंदुत्व को खतरे की तरह देख रहे हैं।