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अर्थव्यवस्था की आगे की राह-- अरविन्द कुमार सिंह

कृषि और विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) क्षेत्र में खराब प्रदर्शन के कारण चालू वित्तवर्ष में विकास दर की रफ्तार साढ़े छह प्रतिशत पर थमने की आशंका एक बार फिर बढ़ गई है। यह अनुमान केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) ने जताया है जिसके मुताबिक प्रतिव्यक्ति आय बढ़ने की गति अत्यंत धीमी है और साथ ही विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर घट कर छह साल के न्यूनतम स्तर (4.6 प्रतिशत) पर आ गई है। आंकड़ों के मुताबिक चालू वित्तवर्ष में कृषि और संबंद्ध क्षेत्रों की वृद्धि दर 2.1 प्रतिशत रहने का अनुमान है, जबकि पिछले वित्तवर्ष में यह 4.9 प्रतिशत थी।


फिलहाल गौर करें तो अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की चुनौती बढ़ गई है। हालांकि पिछले दिनों वैश्विक शोध एजेंसी सेंटर फॉर इकोनॉमिक ऐंड बिजनेस रिसर्च (सीईबीआर) कंसल्टेंसी का आया यह दावा राहतकारी है कि वर्ष 2018 में भारतीय अर्थव्यवस्था ब्रिटेन और फ्रांस को पछाड़ कर विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का तमगा हासिल कर लेगी। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि नोटबंदी और जीएसटी के तात्कालिक झटके से भारतीय अर्थव्यवस्था उबर रही है। उल्लेखनीय है कि शोध एजेंसी ने ‘2018 वर्ल्ड इकोनॉमिक लीग टेबल' में ऊर्जा व तकनीक के सस्ते साधनों की मार्फत भारतीय अर्थव्यवस्था के सरपट दौड़ने का अनुमान लगाया है। विश्व बैंक द्वारा जारी रिपोर्ट में भी कहा गया है कि वैश्विक आर्थिक सुस्ती के बावजूद भारत की विकास दर सात प्रतिशत से ऊपर रहने का अनुमान है।


हाल ही में अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भी भारत की रेटिंग को बीएए-3 से बढ़ा कर बीएए-2 किया है। उल्लेखनीय है कि बीएए-3 रेटिंग का अर्थ निवेश की संभावनाएं क्षीण होने तथा कमजोर अर्थव्यवस्था से लगाया जाता है, जबकि बीएए-2 का संकेत निवेश संभावनाएं अधिक होने के साथ ही अर्थव्यवस्था की गति तेज होने से संबंधित है। गौर करें तो मात्र एक पायदान रेटिंग सुधार का कमाल है कि भारत फिलीपीन्स और इटली जैसे ज्यादा निवेश वाले देशों में शुमार हो गया है।


अच्छी बात यह है कि आर्थिक सुधार के मोर्चे पर तेजी से आगे बढ़ने के बाद भी सरकार की प्राथमिकता में चालू खाते का घाटा कम करना, विकास दर को ऊंचे पायदान पर ले जाना, बचत में वृद्धि, निवेश चक्र बनाए रखना आदि शीर्ष पर हैं। सरकार की आर्थिक सुधार को जारी रखने की प्रतिबद्धता भी देशी-विदेशी कारोबारियों के बीच कारोबारी माहौल को अनुकूल बना रही है जिससे अर्थव्यवस्था की गति तेज होने की संभावना प्रबल है। सरकार की नीतिगत सक्रियता का ही नतीजा है कि विश्व के निवेशकों ने भारत में कारोबारी माहौल को लेकर भरोसा जताया है और सरकार भी भारत को एक ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने के लिए नियमों और कानूनों में व्याप्त खामियों को दूर कर रही है।


अच्छी बात यह भी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी विदेश यात्राओं में विदेशी निवेशकों को भारत की परियोजनाओं में निवेश करने के लिए लगातार उत्साहित कर रहे हैं जिसका सकारात्मक परिणाम देखने को मिल रहा है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सरकार ने देश के विदेशी कर्ज को नियंत्रित करने में कामयाबी पाई है जिससे विकास दर को गति मिल सकती है। ‘भारत का विदेशी कर्ज 2016-17 स्थिति रिपोर्ट' के मुताबिक 2017 के मार्च तक कुल विदेशी कर्ज 471.9 अरब डॉलर रहा, जबकि साल 2016 के मार्च में यह 485 अरब डॉलर था। इस तरह विदेशी कर्ज में 13.1 अरब डॉलर की गिरावट दर्ज हुई है।
सरकार 2017-18 के दौरान राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3.2 प्रतिशत पर सीमित रखने के लक्ष्य के प्रति संजीदा है और बीते वित्तवर्ष में उसने 3.5 प्रतिशत के राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को हासिल भी किया है।


उसी का नतीजा है कि भारत का विदेशी कर्ज और राजकोषीय घाटा दोनों ही प्रबंधकीय सीमाओं में है। उल्लेखनीय है कि 2015 में चीन को पछाड़ भारत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का पसंदीदा ठिकाना बना। इस अवधि में भारत में 63 अरब डॉलर का एफडीआइ आया जबकि चीन में केवल 56.6 अरब डॉलर का। दूसरी ओर, भारतीय उत्पाद भी चीन के मुकाबले हाथों-हाथ लिए जा रहे हैं। हाल में पहले यूरोपीय संघ और फिर दुनिया के उनचास बड़े देशों को लेकर जारी ‘मेड इन कंट्री इंडेक्स' (एमआइसीआइ-2017) में उत्पादों की गुणवत्ता के मामले में चीन भारत से सात पायदान नीचे रहा।


याद होगा कि अभी पिछले वर्ष ही भारत ने चीन से दूध, दुग्ध उत्पादों और कुछ मोबाइल फोन समेत कई उत्पादों के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। ये उत्पाद निम्नस्तरीय थे और सुरक्षा मानकों की कसौटी पर खरे नहीं पाए गए। भारत ने 23 जनवरी, 2016 को भी चीनी खिलौने के आयात पर प्रतिबंध लगाया था। तब चीन को विश्व व्यापार संगठन में अपने आंकड़ों से साबित करना पड़ा था कि उसके उत्पाद बढ़िया हैं। कई और देशों ने भी चीन के घटिया उत्पादों पर प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिए हैं। स्वयं चीन के कारोबारियों का कहना है कि पिछले तीन सालों में मजदूरी दोगुनी होने और गुणवत्ता पर ध्यान देने से चीन में बने सामान भी सस्ते नहीं रह जाएंगे। अब अगर चीन अपने उत्पादों की गुणवत्ता पर ध्यान देता है तो स्वाभाविक रूप से उसके उत्पादों की कीमतों में वृद्धि होगी और कीमत बढ़ने से अंतरराष्ट्रीय बाजारों में उनकी मांग प्रभावित होगी।


चीन अपने उत्पादों को सस्ता बनाने के लिए पहले ही मुद्रा का अवमूल्यन कर चुका है। वह ऐसा बार-बार नहीं कर सकता। कुल मिलाकर चीन के उत्पादों और उसकी अर्थव्यवस्था के लिए चिंता का दौर शुरू हो गया है। गौर करें तो यह स्थिति भारतीय उत्पादों के निर्यात के अनुकूल है। अगर वैश्विक बाजार में चीनी उत्पादों की मांग घटती है और भारतीय उत्पादों की मांग बढ़ती है तो भारतीय अर्थव्यवस्था का छलांग लगाना तय है। हाल ही में डेलाएट इंडिया के ताजा सर्वेक्षण से भी यह उजागर हुआ है कि भारत आने वाले वर्षों में चीन को पछाड़ कर आर्थिक महाशक्ति का दर्जा हासिल कर सकता है। चीन के आर्थिक विशेषज्ञों ने आशंका जताई है कि अगर चीन विकास की प्रभावी जवाबी रणनीति विकसित नहीं करता है तो वह भारतीय सफलता का तमाशबीन बनकर रह जाएगा। चीन के आर्थिक विशेषज्ञों ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर किए गए अपने अध्ययन में पाया है कि चीन का जनसांख्यिकीय लाभ लगातार घटता जा रहा है वहीं भारत की आधी से ज्यादा आबादी युवा है। इसका फायदा भारत को ही मिलेगा, क्योंकि यह न सिर्फ कामगारों की बड़ी फौज है बल्कि संभावित उपभोक्ताओं का बड़ा समूह भी है।


एक अनुमान के मुताबिक अगले दो दशक में भारत की कार्यबल क्षमता 88.5 करोड़ से बढ़ कर 1.08 अरब हो जाएगी और इसके बाद अगले पांच दशक तक यह सिलसिला कायम रहेगा। कह सकते हैं कि आने वाले कुछ दशकों में एशियाई कार्यबल क्षमता में अधिकतर योगदान भारत का होगा। लेकिन यहां ध्यान रखना होगा कि अर्थव्यवस्था में तेजी और विकास की दौड़ में अव्वल आने के लिए सिर्फ कामगारों की बढ़ती आबादी ही नहीं बल्कि उनकी शिक्षा तथा कौशल व प्रशिक्षण भी उतना ही मायने रखते हैं। अगर अर्थव्यवस्था में सुस्ती आई तो फिर बेरोजगारी और गरीबी बढ़ने से रोका नहीं जा सकेगा, जिससे सामाजिक अस्थिरता उत्पन हो सकती है। पर राहतकारी यह है कि मोदी सरकार भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के साथ ही नित नए आर्थिक सुधारों को गति दे रही है, जिससे अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की चुनौती का सामना किया जा सकता है।