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अर्थव्यवस्था के तीन इंजन-- भरत झुनझुनवाला

सरकार का दावा है कि अर्थव्यवस्था 7.6 प्रतिशत की सम्मानजनक गति से आगे बढ़ रही है. हकीकत यह है कि जमीनी स्तर पर विकास नहीं दिख रहा है. महाराष्ट्र के सीमेंट विक्रेता ने बताया कि बिक्री 30 प्रतिशत कम है. दिल्ली के टैक्सी चालक ने कहा कि बुकिंग कम हो रही है. इसके विपरीत बड़ी कंपनियां ठीक-ठाक हैं. बहरहाल, आम आदमी का धंधा कमजोर है. संभवतया इसका प्रमुख कारण मोदी सरकार की ईमानदारी है. दरअसल, हमारी अर्थव्यवस्था को कालेधन की लत पड़ चुकी थी. इसलिए अर्थव्यवस्था के जो क्षेत्र कालेधन से चल रहे थे, उनमें सुस्ती आ रही है.

इस दुष्प्रभाव को प्राॅपर्टी बाजार में स्पष्ट देखा जा सकता है. इस बाजार में नेताओं द्वारा दो तरह से धंधा किया जाता था. पहले सरकारी जमीन को बिल्डर को सस्ते दाम पर आवंटित कर दिया जाता था.

इससे बिल्डर की लागत कम हो जाती थी. 300 करोड़ की जमीन उसे तीन करोड़ में मिल जाती थी. फलस्वरूप वह खरीदार को न्यून दाम पर बेच पाता था. साथ-साथ नेताओं और अधिकारियों द्वारा कालेधन को प्रोजेक्ट में लगाया जाता था. इससे बिल्डर के निवेश करने की क्षमता बढ़ जाती थी. मोदी सरकार ने यह कालाधन बंद कर दिया है. बिल्डर को न तो सस्ती जमीन मिल रही है और न ही नेता काे कालाधन.

इस दुरूह परिस्थिति में मोदी सरकार की नीतियों ने अर्थव्यवस्था की बची-खुची हवा भी निकाल दी है. सरकार विश्व बैंक के पदचिह्नों पर चल रही है. विश्व बैंक पश्चिमी देशों के इशारे पर काम करता है. विश्व बैंक में वोटिंग के ज्यादा अधिकार अमेरिका तथा यूरोप के देशों के पास है. इन सरकारों को बहुराष्ट्रीय कंपनियां चलाती हैं, जिनके हित साधने के लिए जरूरी है कि विकासशील देशों की गति को रोका जाये. आदमी बीमार होता है, तो दूसरे की शरण में जाता है.

विश्व बैंक चाहता है कि भारत बीमार हो जाये और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की शरण में जाये. इसलिए विश्व बैंक ने हिदायत दी है कि भारत द्वारा वित्तीय घाटे को न्यून रखा जाये. सरकार द्वारा ऋण लेकर हाइवे या पावर प्लांट न बनाया जाये. उद्योगों को पॉल्यूशन प्लांट लगाने के लिए सरकार सब्सिडी न दे. ऐसे में बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा यह काम किये जायेंगे और इसका लाभ कमाने का अवसर देश के उद्यमियों के स्थान पर उन्हें मिलेगा.

मोदी सरकार की ईमानदारी के कारण कालेधन पर नियंत्रण हुआ है. परिणाम यह हुआ है कि कालेधन से चल रही अर्थव्यवस्था मंद पड़ी है. दुर्भाग्यवश विश्व अर्थव्यवस्था में व्याप्त मंदी के कारण बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी निवेश से कतरा रही हैं. अर्थव्यवस्था के विकास के तीनों इंजन यानी कालाधन, सरकारी खर्च और विदेशी निवेश सुस्त हैं. अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए इनमें से एक को ठीक से चलाना होगा.

कालेधन को छूट देना अनैतिक है और विदेशी निवेश की चाल हमारे हाथ में नहीं है. बहुराष्ट्रीय कंपनियां तभी भारत में निवेश करेंगी, जब उनके देशों में माल की मांग हो. जैसे फिनलैंड में मोबाइल की मांग हो, तो नोकिया द्वारा भारत में मोबाइल बनाने की फैक्ट्री लगायी जा सकती है. हालत यह है कि नोकिया अपने स्टाॅक में रखे माल को ही नहीं बेच पा रही है. ऐसे में वह भारत में अपना प्रोजेक्ट नहीं लगायेगी. मोदी के मेक इन इंडिया प्रोग्राम के असफल होने का यही कारण है.

सरकार बता रही है कि विदेशी निवेश में भारी वृद्धि हुई है. ये आंकड़े तकनीकी दृष्टि से सही हो सकते हैं, परंतु वास्तविक नहीं हैं. आनेवाले विदेशी निवेश में भारत से बाहर भेजी जानेवाली पूंजी का बड़ा हिस्सा है. अपना ही पैसा विदेश घूम कर वापस आ रहा है. यही कारण है कि विदेशी निवेश में कथित वृद्धि के बावजूद अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ी है. अर्थव्यवस्था के तीन इंजन में दो नाकाम हैं. कालाधन अनैतिक है और विदेशी निवेश पस्त है.

ऐसे में एक मात्र इंजन सरकारी निवेश ही अर्थव्यवस्था को गति दे सकता है. मान लीजिये कोई उद्यमी फैक्टरी लगाना चाहता है. पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड ईमानदार है. उसे पॉल्यूशन कंट्रोल प्लांट लगाना ही होगा, जिसमें दो करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्च आता है. इस खर्च को वहन न कर पाने के कारण वह फैक्टरी लगाने में असमर्थ है. सरकार के सामने विकल्प है कि नयी फैक्टरी को दो करोड़ के पॉल्यूशन कंट्रोल प्लांट पर 50 लाख की सब्सिडी दे दे.

उद्यमी के लिए फैक्टरी लगाना लाभप्रद हो जायेगा और अर्थव्यवस्था में गति आ जायेगी. परंतु विश्व बैंक ने ऐसा करने को मना कर रखा है. अतः मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था के तीसरे स्विच को भी आॅफ कर दिया है. ऐसे में अब सरकार को चाहिए कि विश्व बैंक की इन बातों की अनसुनी करके देश में सच्चे सरकारी निवेश को बढ़ाये व मंदी को तोड़े.