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अर्थव्यवस्था को संजीवनी का मंत्र - डॉ. भरत झुनझुनवाला

सरकार की पुरजोर कोशिश है कि भारत वैश्विक विनिर्माण का गढ़ बन जाए। इसके लिए 'मेक इन इंडिया के तहत बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देश में फैक्ट्रियां लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है ताकि रोजगार के अवसर सृजित हों और लोगों की आमदनी बढ़े। इस दिशा में सरकार ने दो महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। पहला कदम वित्तीय घाटे पर नियंत्रण का है। सरकार द्वारा आय से अधिक खर्च करने के लिए जो ऋण लिया जाता है, उसे वित्तीय घाटा कहते हैैं। सरकार का वित्तीय घाटा उसी प्रकार है, जैसे उद्यमी द्वारा बैंक से लोन लेकर आय से अधिक खर्च किया जाता है। वर्ष 2013-14 में वित्तीय घाटा देश की आय का 4.5 प्रतिशत था, जो बीते वर्ष 2016-17 में 3.5 प्रतिशत रह गया और चालू वित्त वर्ष 2017-18 में 3.2 प्रतिशत रहने का अनुमान है। वित्तीय घाटा कम होने से सरकार द्वारा पूर्व में जो कर्ज लेकर भारी खर्च किए जा रहे थे, उनमें कटौती करनी होगी। यूं समझें कि सरकार द्वारा पूर्व में अर्थव्यवस्था को वित्तीय घाटे का जो टॉनिक दिया जा रहा था, उसकी मात्रा कम करनी होगी। वित्तीय घाटे पर नियंत्रण का उद्देश्य है कि वैश्विक निवेशकों का हमारी अर्थव्यवस्था पर भरोसा बने और वे यहां व्यापक निवेश करें। विश्व बैंक जैसी संस्थाओं की दृढ़ मान्यता है कि वित्तीय घाटे पर नियंत्रण से अर्थव्यवस्था में स्थिरता आती है व विदेशी निवेश आकर्षित होता है।
 

 

सरकार ने दूसरा महत्वपूर्ण कदम बुनियादी ढांचे में निवेश बढ़ाने का उठाया है। बुलेट ट्रेन, राष्ट्रीय राजमार्ग, एयरपोर्ट एवं राष्ट्रीय जलमार्गों पर भारी निवेश किया जा रहा है। रातोंरात नए हाईवे बन रहे हैं। निवेश में वृद्धि विशेष तौर पर उल्लेखनीय है, क्योंकि इसके साथ ही वित्तीय घाटे पर काबू किया जा रहा है। यानी कुल खर्चों पर दबाव है, जबकि बुनियादी ढांचे में निवेश बढ़ रहा है। इस निवेश के पीछे भी विदेशी कंपनियों को आकर्षित करने का लक्ष्य है। इनकी मांग रही है कि बुनियादी सुविधाओं के अभाव में उनके लिए भारत में फैक्ट्रियां लगाना कठिन है। सरकार के इन अथक प्रयासों का सुखद परिणाम भी आने के संकेत मिल रहे हैं। मोबाइल कंपनी जियोनी और एप्पल, फर्नीचर कंपनी आइकिया एवं इलेक्ट्रिक कार कंपनी टेस्ला ने भारत में फैक्ट्रियां लगाने के संकेत दिए हैं।

 

 

चिंता का विषय यह है कि सरकार द्वारा उठाए गए इन साहसिक एवं प्रभावी कदमों के बावजूद आर्थिक विकास दर बढ़ नहीं रही है। इस विरोधाभास को समझने के लिए हमें अलग-अलग प्रकार की बुनियादी संरचना के अर्थव्यवस्था पर प्रभाव को देखना होगा। जैसे, गांव की पक्की सड़क और राष्ट्रीय राजमार्ग के प्रभाव को अलग-अलग करके देखें। गांव में सड़क बनाने के लिए फावड़े, टोकरी और श्रम का इस्तेमाल किया जाता है। इससे आम आदमी की आय और क्रयशक्ति बढ़ती है। सड़क बन जाने से किसान के लिए सब्जी को मंडी पहुंचाना आसान हो जाता है। पुन: उसकी आय और क्रयशक्ति बढ़ती है, जिससे वह बाइक खरीदता है। बाइक आपूर्ति करने के लिए बाइक बनाने वाली कंपनी निवेश करती है। बाइक बनाने वाली कंपनी का मुनाफा बढ़ता है। कंपनी के अधिकारियों द्वारा इलेक्ट्रिक कार खरीदी जाती है। इस मांग की आपूर्ति के लिए टेस्ला जैसी कंपनियां भारत में इलेक्ट्रिक कार बनाने को आकर्षित होती हैं। विदेशी निवेश आने की संभावना बढ़ती है। इस प्रकार गांव की पक्की सड़क बनाने से मांग और निवेश का सही चक्र स्थापित हो जाता है।

 

राष्ट्रीय राजमार्ग का प्रभाव अलग पड़ता है। राजमार्ग बनाने के लिए ऑटोमेटिक हॉट मिक्स प्लांट का उपयोग किया जाता है। हॉट मिक्स प्लांट को बड़ी कंपनी द्वारा बनाया जाता है। इसे बनाने में मुट्ठी भर रोजगार बनते हैं। कभी-कभी ऐसे उपकरणों का आयात भी किया जाता है, जिससे हमारी आय बाहर चली जाती है और मांग विदेशों में बनती है। फावड़े और टोकरी जैसे माल की मांग नहीं बनती है। हाईवे बनने से किसान के लिए मंडी में सब्जी पहुंचाना मुश्किल बना रहता है, क्योंकि न केवल ग्रामीण सड़क खस्ताहाल रहती है, बल्कि हाईवे में प्रवेश द्वार कम होने से किसान के लिए कहीं-कहीं मंडी तक पहुंचना कठिन भी हो जाता है। किसान के लिए बाइक खरीदना संभव नहीं होता है। बाइक बनाने वाली कंपनी नई फैक्ट्री में निवेश नहीं करती। कंपनी के अधिकारियों द्वारा इलेक्ट्रिक कार खरीदने की पहल नहीं की जाती। इलेक्ट्रिक कार बनाने वाली टेस्ला जैसी विदेशी कंपनियों के लिए भारत में निवेश करना आकर्षित नहीं रह जाता है। इस प्रकार राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने से विदेशी कंपनियों को सीधे सहूलियत मिलने के बावजूद विदेशी निवेश नहीं आता। यही कारण है कि विदेशी निवेश अटका हुआ है। अप्रैल से अक्टूबर 2016 के सात माह में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई 28 अरब डॉलर था, जो नवंबर 2016 से मई 2017 के बाद के सात महीनों में घटकर 22 अरब डॉलर रह गया। इस तरह वित्तीय घाटे पर नियंत्रण और बुनियादी ढांचे में निवेश निष्फल हो गया, क्योंकि अर्थव्यवस्था में जमीनी स्तर पर मांग नहीं बनने से विदेशी निवेशकों के लिए भारत में फैक्ट्री लगाना आकर्षक नही रह गया है। इस पूरे विवरण का अर्थ यह नहीं है कि हाईवे नही बनाने चाहिए। हाईवे अवश्य बनाने चाहिए, परंतु विषय संतुलन का है। फ्रिज खरीदा जाए और सब्जी खरीदने के लिए पैसा न बचे तो फ्रिज खरीदना निष्फल हो जाता है। इसी प्रकार हाईवे बनाने और धरातलीय अर्थव्यवस्था में असंतुलन के कारण हाईवे निष्फल हो रहे हैं।

 

 

वित्तीय घाटे पर नियंत्रण ने समस्या को और विकराल बना दिया है। ऊपर बताया गया कि सरकार द्वारा वित्तीय घाटा कम किया जा रहा है, लेकिन बुनियादी ढांचे में भी खर्च बढ़ाया जा रहा है। जाहिर है कि किसी अन्य मद में कटौती की जा रही है। मेरा आकलन है कि खाद्य पदार्थों, उर्वरक, रसोई गैस इत्यादि पर दी जाने वाली सबसिडी में सरकार ने कटौती की है। मैं ऐसी कटौती का समर्थन करता हूं, परंतु उर्वरक सबसिडी में कटौती करके ग्रामीण सड़क बनाई जाती तो किसान के लिए उसके अलग निहितार्थ होते। उसी उर्वरक सबसिडी में कटौती करके हाईवे बनाने से किसान दबाव में आ गया है और जमीनी स्तर पर अर्थव्यवस्था शिथिल पड़ गई है।

 

 

सरकार को वित्तीय घाटे पर नियंत्रण की नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। विश्व बैंक द्वारा ऐसी नीतियों को इसलिए बढ़ावा दिया जा रहा था, क्योंकि धारणा यह थी कि विकासशील देशों की सरकारें भ्रष्ट हैं और ऋण लेकर किए जाने वाले खर्चों में रिसाव हो जाता है, ऐसे में ऋण न लेना ही उत्तम है। मोदी सरकार ईमानदार है। इसलिए ऋण लेकर निवेश करने अथवा वित्तीय घाटे को बढ़ाने का दुष्प्रभाव नहीं होगा, बल्कि वित्तीय घाटे को बढ़ाकर निवेश करने से घरेलू अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ेगी और विदेशी निवेश ज्यादा आएगा। वहीं, सरकार को बुनियादी ढांचे में निवेश के मोर्चे पर संतुलन बनाना होगा। केवल हाईवे बनाने से अर्थव्यवस्था आगे नहीं बढ़ेगी, जैसे केवल नहर बनाने से बात नहीं बनती है, फीडर भी बनानी होती है। सरकार वित्तीय घाटे को बढ़ाकर बुनियादी संरचना में संतुलित निवेश करे तो अर्थव्यवस्था पटरी पर आ सकती है।

 

(लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री व आईआईएम, बेंगलुरु के पूर्व प्राध्यापक हैं)