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अवैध प्रवासियों से कैसी हमदर्दी? - ब्रह्मा चेलानी

म्यांमार में अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों की दुर्दशा को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़ी चिंता जाहिर की जा रही है, लेकिन चिंता जताने वाले समस्या की जड़ को नहीं पहचान रहे हैं। उन्हें रोहिंग्या आतंकियों का जिहाद नहीं दिख रहा, जिन्होंने अपने हमलों को नई धार दी है। आम धारणा यह है कि हाल के वर्षों में सैन्य दमन के चलते रोहिंग्या अलगाववाद पनपा है, लेकिन तथ्य यह है कि म्यांमार की जिहादी आफत दशकों पुरानी है। 1948 में म्यांमार को आजादी मिलने के पहले ही वहां रोहिंग्या मुसलमानों का बौद्धों के साथ हिंसक संघर्ष शुरू हो गया था। सच तो यह है कि 1940 के दशक की शुरुआत से ही रोहिंग्या अलगाववादी इस्लामिक चरमपंथ के वैश्विक उभार में अग्र्रणी भूमिका निभाते आए हैं। उन्होंने भारत को विभाजित कर पाकिस्तान बनाने की मांग को लेकर अंग्र्रेजों पर दबाव बनाना शुरू कर दिया था। इससे पहले अंग्र्रेज ही रबर और चाय बागानों में काम कराने के लिए भारी तादाद में रोहिंग्यों को पूर्वी बंगाल से बर्मा ले गए थे। बर्मा ही अब म्यांमार के नाम से जाना जाता है। 1937 तक भारत के एक राज्य के तौर पर ही उसका शासन-संचालन किया जाता था। बाद में वह स्वशासन वाला उपनिवेश बन गया। रोहिंग्या मुख्य रूप से म्यांमार के अराकान इलाके में जाकर बसे, जिसकी सीमा पूर्वी बंगाल से लगती थी। अराकान ही अब रखाइन के नाम से जाना जाता है।

 

 

1942 से 1950 के बीच अराकान में मुसलमानों और बौद्धों के बीच गृहयुद्ध चला। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सांप्रदायिक तनाव हिंसा में तब्दील हो गया। 1942 में जब जापानी सेना अराकान में प्रवेश कर गई तो अंग्र्रेजों को जवाबी हमला बोलना पड़ा। इसमें बौद्ध मुख्य रूप से जापानियों के साथ और रोहिंग्या अंग्र्रेजों के पीछे लामबंद हो गए। अंग्र्रेजों ने जापानियों को छापामार लड़ाई में मात देने के लिए 'वी फोर्स के नाम से मशहूर अपनी गोरिल्ला फौज में रोहिंग्या मुसलमानों की भर्ती की। जब 1945 में अराकान का नियंत्रण अंग्र्रेजों के हाथ आया तो उन्होंने रोहिंग्या मुसलमानों को वफादारी का पुरस्कार देते हुए स्थानीय सरकार के प्रमुख पदों पर उनकी तैनाती की। अंग्र्रेजों के खुले समर्थन से उत्साहित रोहिंग्या अलगाववादियों ने बौद्धों से पुराना हिसाब बराबर करने की ठानी। मुस्लिम बहुल उत्तरी अराकान को म्यांमार से अलग करने के लिए जुलाई 1946 में उन्होंने नॉर्थ अराकान मुस्लिम लीग की स्थापना की। भारत विभाजन को लेकर जारी रक्तपात के दौर में रोहिंग्या उत्तरी अराकान से बौद्धों को खदेड़ने के लिए हमले कर रहे थे, ताकि वे इस प्रांत को पूर्वी पाकिस्तान में शामिल करा सकें। इस मकसद में नाकामी के बाद तमाम रोहिंग्या हथियारबंद मुजाहिदीन बन गए और 1948 में उन्होंने उत्तरी अराकान पर प्रभावी नियंत्रण भी हासिल कर लिया। तत्कालीन बर्मा सरकार ने 1950 के दशक की शुरुआत में हुए इस विद्रोह को कुचल दिया, फिर भी 1960 के दशक की शुरुआत तक छिटपुट मुजाहिदीन हमले होते रहे। 1970 के बाद रोहिंग्या इस्लामी अभियान की सुगबुगाहट शुरू हुई और इसी के साथ अन्य अलगाववादी समूह उभरने लगे। इन समूहों का मकसद बौद्ध देश के भीतर एक इस्लामिक देश बनाना था। इसके लिए मुख्य रूप से जिहाद और आबादी वितरण के स्तर पर बदलाव जैसे रास्ते अपनाए गए।

 

 

अब वक्त का पहिया एक चक्र पूरा कर चुका है और म्यांमार सेना पर आरोप लगाया जा रहा है कि वह रखाइन से रोहिंग्यों को खदेड़ रही है। यह पूरा घटनाक्रम क्षेत्रीय सुरक्षा खासकर म्यांमार, भारत और बांग्लादेश के लिए तमाम खतरों का सबब है। रखाइन वैश्विक जिहादी अभियान के लिए चुंबक बना हुआ है। रोहिंग्या अलगाववादियों को पाकिस्तान और सऊदी अरब से हर तरीके की मदद मिल रही है। रोहिंग्या अलगाववादियों की नई पौध को लेकर संदेह है कि उसके रिश्ते आईएस, लश्कर-ए-तैयबा, अल-कायदा और यहां तक कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई से भी हैं। रोहिंग्या आतंकी समूहों की अगुआई करने वाले पाकिस्तान में जन्मे अताउल्लाह के बारे में खबर है कि वह सऊदी अरब में लंबे प्रवास के बाद पाकिस्तान लौट आया है। वह म्यांमार के खिलाफ जिहाद भड़काने के लिए करोड़ों डॉलर लेकर लौटा है। रखाइन में 2012 के बाद सांप्रदायिक दंगों ने जोर पकड़ा। इस दौरान प्रमुख आतंकी संगठन अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी ने खुद को हर लिहाज से मजबूत बनाया। इस स्थिति से इतर भारत में अवैध रूप से प्रवेश कर चुके 40,000 रोहिंग्यों से खतरे को लेकर भारत सरकार की चिंता वाजिब है। भारत सरकार सुप्रीम कोर्ट में रोहिंग्यों को 'गंभीर सुरक्षा खतरा बता रही है, क्योंकि रोहिंग्या आतंकियों के आईएस और अन्य आतंकी संगठनों से रिश्ते होने की बात सामने आई है। सरकार के अनुसार इनमें से कुछ आतंकी भारत में सक्रिय भी हो गए हैं। इससे भी ज्यादा यह बात विचलित करती है कि रोहिंग्या न केवल अलग-अलग मार्गों से भारत में संगठित रूप से प्रवेश करने में सफल रहे, बल्कि जम्मू-कश्मीर घाटी, मेवात और हैदराबाद जैसी संवेदनशील जगहों पर डेरा डालने में भी कामयाब रहे। राजधानी दिल्ली में भी रोहिंग्यों की बस्ती वजूद में आ गई है। चूंकि उन्होंने गैरकानूनी ढंग से भारत में प्रवेश किया है, इसलिए वे शरणार्थी नहीं, बल्कि अवैध प्रवासी हैं। अमूमन यह देखने को मिलता है कि संघर्ष की भेंट चढ़े किसी देश से पलायन करने वाले अंतरराष्ट्रीय सीमा के इर्द-गिर्द ही डेरा डालते हैं, मगर इस मामले में कुछ उल्टा ही हुआ है। रोहिंग्या अपने देश से नहीं, बल्कि अन्य देश बांग्लादेश के माध्यम से भारत में दाखिल हुए और फिर त्रिपुरा एवं पश्चिम बंगाल के मार्फत देश भर में फैल गए। खुद सरकार भी यह स्वीकार करती है कि उनमें से तमाम ने आधार कार्ड जैसे पहचान प्रमाण पत्र हासिल कर लिए हैं। सरकार इसकी जांच कराने से हिचक रही है कि देश में रोहिंग्यों के प्रवेश और उनके फैलाव व बसाहट में किन घरेलू पक्षों की भूमिका थी?

 

 

इससे भी खराब बात यह है कि सरकार ने गेंद भी सुप्रीम कोर्ट के पाले में डाल दी है। गृह मंत्रालय ने कहा है कि इस मामले में सरकार अदालत के फैसले का इंतजार कर रही है। चूंकि मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है, इसलिए सरकार ने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की है। दरअसल सरकार ने अभी तक कार्रवाई कुछ नहीं की, सिर्फ बयानबाजी ही की है। इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि भारत में पहले ही सघन आबादी है और फिर भी वह तमाम देशों से आने वाले लोगों को उदारता से स्वीकार करता रहा है। बीते कई दशकों में तिब्बत, अफगानिस्तान, ईरान, पाकिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार और यहां तक कि चीन से आने वाले शरणार्थियों को देश में जगह मिली है। इसके साथ ही भारत बांग्लादेश के करीब 2 करोड़ विस्थापितों का भी आश्रयस्थल बना हुआ है। रोहिंग्या मसला एक अलग ही चुनौती पेश करता है, क्योंकि इसका ताल्लुक रखाइन में बढ़ती जिहादी हिंसा और भारतीय भूमि पर रोहिंग्यों की बढ़ती अवांछित गतिविधियों से है। इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि रोहिंग्यों की दुर्दशा के लिए रखाइन में जिहादी हमलों को बढ़ावा दे रही विदेशी ताकतें भी कम जिम्मेदार नहीं हैं।

 

(लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में प्राध्यापक हैं)