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असम के आकाश पर नई आशंकाएं-- रविशंकर रवि

एक लंबी और जटिल प्रक्रिया से गुजरते हुए उच्चतम न्यायालय की देख-रेख में असम के लिए राष्ट्रीय नागरिक पंजी के अद्यतन का काम पूरा हो गया है और सोमवार को इसकी अंतिम मसौदा सूची प्रकाशित की गई। इसे असम के लिए ऐतिहासिक दिन बताया जा रहा है। करीब 3.29 करोड़ लोगों ने आवेदन दिया था, जिनमें से 2.89 करोड़ लोगों के नागरिकता प्रमाण दस्तावेज वैध पाए गए। यानी करीब 40 लाख लोग इसमें शामिल नहीं हो सके हैं। अखिल असम छात्रसंघ (आसू) समेत सभी क्षेत्रीय संगठनों और दलों की नजर में इनमें से अधिकांश विदेशी नागरिक हैं। आसू समेत तमाम क्षेत्रीय संगठनों के नेता इसे अपनी बड़ी जीत मान रहे हैं, क्योंकि असम समझौते में राष्ट्रीय नागरिक पंजी अद्यतन किए जाने का जिक्र था, और इसके लिए इन संगठनों ने लंबा आंदोलन किया है।


असम ही नहीं, किसी भी राज्य या भू-भाग को अवैध नागरिकों से मुक्ति मिलनी ही चाहिए। असम में इसके लिए छह वर्ष तक आंदोलन भी चला। लेकिन उन बच गए 40 लाख लोगों का क्या होगा, इस पर कोई साफ तौर पर बोलने को तैयार नहीं है। आश्वासन के तौर पर यही कहा जा रहा है कि जिन भारतीय नागरिकों के नाम अंतिम मसौदा सूची में नहीं हैं, उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने का पर्याप्त मौका दिया जाएगा। इसके लिए दावा और आपत्ति का प्रावधान रखा गया है। केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के निर्देश पर असम सरकार ने पुलिस को स्पष्ट निर्देश दिया है कि मसौदा नागरिक पंजी के आधार पर न तो किसी के खिलाफ कार्रवाई की जाए और न ही उनके नाम फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल को भेजे जाएं। फिलहाल किसी को डिटेंशन कैंप में भी नहीं भेजा जाएगा। असम सरकार विभिन्न माध्यमों से लोगों को यह संदेश दे रही है कि यह अंतिम सूची नहीं, सिर्फ मसौदा है। लेकिन इस तरह के तथ्य भी सामने आए हैं कि अद्यतन प्रक्रिया के दौरान उपाधि और जन्म-स्थान को देखकर भी भेदभाव किया गया है। इस प्रक्रिया में कई खामियां पाई गई हैं। असम के विधायक रामकांत देवरी का नाम भी सूची में नहीं है, जबकि वह यहीं के मूल निवासी हैं। हजारों नेपाली भाषियों के नाम भी इस सूची में नहीं दिख रहे हैं।


जिन भारतीयों के नाम इसमें शामिल नहीं हैं, उनमें बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल से आकर असम में बसने वालों की संख्या ज्यादा है। 25 मार्च, 1971 से पहले आए लोगों से असम में आकर बसने का प्रमाण मांगा जा रहा है, जबकि बाहरी राज्यों से आकर बसे ज्यादातर लोग यहां आने के साथ ही खेती-किसानी या मजदूरी में जुट गए थे। तब न तो राशन कार्ड का प्रावधान था और न बैंक में खातों का ऐसा चलन। इन चीजों के बारे में किसी ने कभी कोई जरूरत भी महसूस नहीं की। इनमें से अधिकांश के नाम 25 मार्च, 1971 से पहले की मतदाता सूची में भी नहीं हैं। इस अवधि के बाद अन्य राज्यों से आए लोगों के लिए वंशवृक्ष का विकल्प दिया गया, ताकि साबित हो सके कि उनके पूर्वज भारत के किसी राज्य में निवास करते थे।


भारत के अन्य प्रांतों से आए लोगों ने अपने मूल प्रदेश से जुड़े दस्तावेज तो जमा कर दिए, जिनकी सत्यता की जांच के लिए उन्हें संबंधित राज्यों को भेजा गया, मगर उन दस्तावेजों में अधिकांश की सत्यता जांचकर वापस भेजने में संबंधित राज्य सरकारों ने उत्सुकता नहीं दिखाई। नतीजतन, इस तरह के तमाम भारतीयों के नाम सूची में शामिल होने से रह गए। अब ट्रिब्यूनल के समक्ष अपील करना, सुनवाई में शामिल होना और जरूरी दस्तावेज उपलब्ध करना इतना आसान तो है नहीं। सवाल यह भी है कि जब अद्यतन करने की प्रक्रिया के दौरान कर्मचारियों ने उनके दस्तावेज नहीं माने, तो ट्रिब्यूनल के जज उन्हें कितना महत्व देंगे? सवाल यह भी है कि 40 लाख लोगों में से कितने ट्रिब्यूनल का दरवाजा खटखटाएंगे?


जाहिर है, असम को अवैध नागरिकों से मुक्त कराने के इस अभियान में फिलहाल लाखों भारतीय भी परेशानी में पड़ गए हैं। इस बात की प्रबल संभावना है कि आने वाले दिनों में नागरिक पंजी प्रकाशित होने के बाद आसू समेत दूसरे क्षेत्रीय संगठन एनआरसी के आधार पर मतदाता सूची में संशोधन की मांग करें। फिर यह भी मांग उठ सकती है कि असम में व्यापार, नौकरी और संपत्ति खरीदने का अधिकार सिर्फ उन्हें मिले, जिनका नाम एनआरसी में हो। प्रकाशित सूची पर उल्फा ने भी संतोष जताया है, जबकि उल्फा भारतीय शासन प्रणाली को औपनिवेशिक व्यवस्था मानता है। साफ है, उल्फा भी असम में क्षेत्रीयता की धार पर सवार होकर अपने मनसूबे को पूरे करना चाहता है। असम में एक वर्ग पूरी तरह उग्र क्षेत्रीयतावाद को मजबूत करने में लगा है। उनके लिए असम सिर्फ असमिया के लिए होना चाहिए।


लिहाजा उच्चतम न्यायालय की सहमति से ऐसी व्यवस्था बनानी होगी कि असली भारतीयों को नाम शामिल कराने में कोई परेशानी न हो, वरना असम के मूल बाशिंदों और अन्य राज्यों से आकर बसे लोगों के बीच टकराव बढ़ेगा। बेहतर होगा कि केंद्र और असम सरकार असली भारतीयों के नाम शामिल करने के लिए विशेष व्यवस्था करें। प्रक्रिया को सरल बनाने की भी जरूरत है, क्योंकि वे बेशक देश के दूसरे हिस्सों से आए हों, पर हैं तो भारतीय। और यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अद्यतन का काम भारतीय नागरिक पंजी के लिए हो रहा है, असम की नागरिकता के लिए नहीं।


ट्रिब्यूनल में दावे के बाद भी जिनके नाम सूची में शामिल नहीं हो पाएंगे, उनका क्या होगा, यह सवाल भी बना हुआ है। क्या दशकों से बसे बांग्लादेश मूल के लोगों को बांग्लादेश अपना नागरिक मानेगा और उन्हें वापस लेने को तैयार होगा? क्या उन्हें डिटेंशन कैंप में रखा जाएगा और कब तक वे इस स्थिति में रहेंगे? ये बेहद मानवीय सवाल हैं। उनके साथ आखिर किस तरह का बर्ताव किया जाएगा?


इन पंक्तियों के लिखे जाने तक असम में कोई हिंसक प्रतिक्रिया भले न सामने आई हो, लेकिन एहतियातन भारी संख्या में सुरक्षा बल तैनात किए गए हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय नागरिकों को विदेशी घोषित करने की प्रतिक्रिया स्वरूप हिंसक उथल-पुथल सामने आ सकती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)