Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/असमानता-की-खाई-पाटने-का-अवसर-हर्ष-मंदर-4297.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | असमानता की खाई पाटने का अवसर : हर्ष मंदर | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

असमानता की खाई पाटने का अवसर : हर्ष मंदर

खाद्य सुरक्षा विधेयक में भारत के लाखों गरीबों और वंचितों की नियति बदलकर रख देने की क्षमता है। दो साल चली बहस के बाद केंद्र सरकार ने इसे मंजूरी दी। खबरों से पता चला है कि प्रस्तावित कानून के संबंध में स्वयं कैबिनेट मंत्रियों की धारणाएं अलग-अलग थीं। इस पर हुई बहस में भारत में व्याप्त असमानता की संस्कृति की झलक भी मिली। यह भी पता चला कि इस कारण जो लोग लंबे समय से सुखद स्थिति में बने हुए हैं, वे किसी भी तरह के लोककल्याणकारी परिवर्तनों को पसंद नहीं करेंगे। लेकिन यह तय है कि खाद्य सुरक्षा कानून जिस तरह की शक्ल अख्तियार करेगा, उसका देश के आने वाले कल पर गहरा असर पड़ेगा।

वर्ष 2003 में जब ब्राजील ने ऐसा ही एक कानून प्रस्तुत किया था, तो तत्कालीन राष्ट्रपति लूला डा’सिल्वा ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा था कि हमारे सामने ऐसी स्थिति है कि जहां एक तरफ कुछ लोगों को खाने को न के बराबर भोजन मिल पाता है, वहीं दूसरी तरफ अन्य लोगों के पास जरूरत से ज्यादा भोजन है। इस स्थिति को हमेशा के लिए बदलकर रख देने की जरूरत है। उन्होंने अपने जीरो हंगर प्रोजेक्ट के तहत खाद्य सुरक्षा के लिए एक विशिष्ट मंत्रालय का गठन किया।

खाद्य सुरक्षा उनकी सरकार की सबसे बड़ी प्राथमिकता बन गई थी। ऐसा भारत में अब तक क्यों नहीं हो सका? आखिर ऐसा क्यों होता है कि इस तरह के प्रस्तावों पर विचार-विमर्श के दौरान खर्चो के बारे में बात की जाती है, लेकिन उसकी अनिवार्यता के बारे में नहीं? क्या हम इस बात में विश्वास नहीं करते कि तेज गति से हुए आर्थिक विकास के कारण बनी आर्थिक असमानता की खाई को पाटा जाना चाहिए? यह सच है कि सवा अरब आबादी वाले एक देश के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने वाला कानून किफायती नहीं हो सकता। लेकिन क्या सार्वजनिक वितरण प्रणाली को विस्तारित करने के लिए 25 हजार करोड़ रुपयों की मांग करना अस्वाभाविक है? खासतौर पर एक ऐसे देश में, जो दुनिया की दूसरी सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है और जहां निजी उद्यमों या प्रतिरक्षा के लिए बजट में बड़ी आसानी से करोड़ों का प्रावधान कर दिया जाता है? हां, इस कानून को लागू करने के लिए अपेक्षित प्रशासनिक क्षमता को लेकर जो सवाल उठाए गए हैं, वे जरूर वाजिब हैं, लेकिन वैधानिक अधिकार सृजित कर देने के बाद सरकार के लिए इस तरह के कानूनों के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे का निर्माण करना और संस्थागत प्रबंध करना सरल हो जाता है, जैसाकि शिक्षा का अधिकार और मनरेगा के संबंध में देखा गया था।

प्रस्तावित कानून की सबसे बड़ी ताकत यह है कि वह 14 वर्ष आयु तक के बच्चों, गर्भवती महिलाओं, निराश्रितों और भुखमरी के शिकार लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था सुनिश्चित करता है। साथ ही यह गर्भवती और सद्यप्रसूता महिलाओं को छह माह तक एक हजार रुपए के मासिक भत्ते का प्रावधान भी करता है। यह कानून प्रवासियों और उनके परिवारों को भी देश में कहीं भी खाद्य पदार्थ प्राप्त करने का अधिकार देता है। राशन कार्डो पर वयस्क महिलाओं के नाम दर्ज होंगे, जो इस कानून के तहत परिवार की मुखिया होंगी।

लेकिन कैबिनेट के मसौदा विधेयक के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह बहुत कुछ करने का प्रयास जरूर करता है, लेकिन अंत में वह ज्यादा आशाएं नहीं जगा पाता। यह विधेयक उन बच्चों के लिए खाद्य पदार्थो की गारंटी नहीं देता, जो स्कूल में नहीं पढ़ रहे हैं। न ही यह वृद्धावस्था पेंशन पाने वाले बुजुर्गो को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराता है। कुपोषण और भुखमरी जैसी समस्याओं से जूझने के लिए केवल भोजन का बंदोबस्त कर देना ही काफी नहीं है, लेकिन इस बिंदु को सरकार के मसौदे में जगह नहीं दी गई है। प्राकृतिक आपदा की स्थिति में यह विधेयक ज्यादा वादे नहीं कर पाता है। भोजन के स्थान पर नगद राशि और पके हुए भोजन के स्थान पर पैकेज्ड मिश्रण की स्वीकृति दी गई है।

न्यूनतावादी तेंडुलकर गरीबी रेखा पर उपजे राष्ट्रव्यापी आक्रोश के बाद केंद्र सरकार ने हाल ही में कहा कि भोजन के अधिकार को गरीबी रेखा के मानकों से जोड़कर नहीं देखा जाएगा। लेकिन विरोधाभास यह है कि बिल में फिर वही स्थिति निर्मित हो रही है और तेंडुलकर गरीबी रेखा के आधार पर प्राथमिकता समूह निर्धारित किए गए हैं। केवल सरकार द्वारा चिह्न्ति परिवार ही अनुदानप्राप्त खाद्य पदार्थो के लिए अधिकृत किए गए हैं। वामदल और राइट-टु-फूड कैम्पेन द्वारा लंबे समय से यह मांग की जा रही है कि अनुदानप्राप्त खाद्य पदार्थ सर्वसामान्य के लिए हों। इनमें से आर्थिक रूप से समृद्ध और भूमिधारी परिवारों को बाहर कर देने से यह प्रावधान तर्कसंगत और गरीबों के लिए प्रासंगिक भी हो जाएगा। सरकार द्वारा प्रस्तावित मसौदे में किसानों को भी कोई गारंटी नहीं दी गई है, जबकि यह विडंबनापूर्ण सत्य ही है कि भारत के किसान आज देश में खाद्य असुरक्षा से सर्वाधिक ग्रस्त लोगों में से हैं। खाद्य सुरक्षा बिल के एक अंग के रूप में सभी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए वैधानिक गारंटी को सम्मिलित करना भी उचित होता। भारत की चमक-दमक भरी विकास गाथा में कृषि क्षेत्र लंबे समय से उपेक्षित बना हुआ है।

खाद्य सुरक्षा बिल देश के अमीरों और गरीबों के बीच बनी खाई को पाटने का एक अवसर है। लेकिन क्या हम इसे उपयुक्त रूप से लागू कर पाएंगे? खाद्य सुरक्षा के मसले पर हाल ही में हुई एक टीवी बहस में एंकर ने मुझसे पूछा : ‘भारत के मध्यवर्ग को कब तक गरीबों को सब्सिडाइज करना चाहिए?’ वास्तव में सच्चाई यह है कि देश के गरीब ही अपनी सेवाओं और उत्पादों और न्यूतनम मजदूरी के कारण मध्यवर्ग को सब्सिडाइज करते हैं। उस टीवी एंकर द्वारा यह सवाल पूछे जाने के पीछे उसकी अपनी विचारधारा रही होगी, लेकिन इसमें जनकल्याणकारी राज्यतंत्र की अवधारणा के प्रति अधीर होते जा रहे एक विकासशील मध्यवर्ग की झलक भी थी। आरक्षण में ‘गुणता’ की दलील देने वाले देश के विशेषाधिकृत वर्ग के लोग अब अधिकारों की पात्रता का नया तर्क विकसित कर रहे हैं।
(लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।)