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असली कर्जदार कौन है?-- योगेन्द्र यादव

मंदसौर गोलीकांड को एक महीना हो गया. इस एक महीने में किसान के सवाल पर देश में संवेदना उभरी, कुछ समझ भी बनी. खुद किसान का संघर्ष मजबूत हुआ, एक संकल्प भी बना. लेकिन, क्या इस संवेदना और संघर्ष से कोई समाधान निकलेगा?

पिछले एक महीने में किसान के सवाल पर जितनी चर्चा मीडिया में हुई, उतनी पिछले दस साल में नहीं हुई होगी. कम-से-कम अखबार पढ़नेवाले और टीवी देखनेवाले शहरी को पता तो लगा कि किसान दुखी क्यों हैं. उधर, लगभग हर राज्य से स्वतःस्फूर्त किसान आंदोलन की खबर आयी.

सभी आंदोलन दो मुख्य मांगों- फसलों के ड्योढ़े दाम और कर्ज मुक्ति- पर सहमत हुए. बहुत समय बाद देश के अधिकतर किसान संगठन 'अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति' के झंडे तले इकट्ठा हुए. यह सभी संगठन मिल कर 6 जुलाई से 18 जुलाई के बीच मंदसौर से दिल्ली तक 'किसान मुक्ति यात्रा' का आयोजन कर रहे हैं. यह यात्रा इस संवेदना और संघर्ष से किसान के लिए एक दीर्घकालिक समाधान हासिल करने का प्रयास है.

इस समाधान की तलाश के लिए हमें किसान के दर्द के मूल यानी फसल के दाम के सवाल में जाना पड़ेगा. हर कोई जानता है कि हर साल सरकार की नीतियों के कारण किसानों को फसलों के दाम में भारी घाटा होता है. लेकिन कितना, इस सवाल का जवाब ढूंढना आसान नहीं है. सत्ता जिस सच का सामना नहीं करना चाहती, उसे फाइलों के ढेर में दबा कर रखती है. जवाब खोजने के लिए आपको सरकारी रिपोर्ट, आंकड़ों और किसानों के अनुभव को जोड़ना होगा.

एक तरफ देशभर में किसान उचित दाम न मिलने के सवाल पर आंदोलन कर रहे थे, दूसरी तरफ भारत सरकार ने खरीफ की फसल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित कर दिया था.

सरकार छाती ठोक के कहती है कि खरीफ 2017-18 के लिए सभी फसलों के दाम बढ़ा दिये गये हैं. अगर यह घोषणा जीएसटी या शेयर बाजार के बारे में होती, तो मीडिया बाल की खाल उधेड़ता. लेकिन, मामला बेचारी खेती का था, इसलिए एकाध विशेषज्ञ और खोजी पत्रकार को छोड़ कर किसी ने सरकारी दावों की जांच नहीं की. सच्चाई है कि सरकार द्वारा की गयी 'बढ़ोत्तरी' में किसान के खुश होने लायक कुछ भी नहीं है.

धान के मूल्य में पिछले साल की तुलना में 5 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है, यानी सिर्फ महंगाई की बराबरी की गयी है, वास्तव में दाम कुछ नहीं बढ़ा है. अरहर/तूर में बढ़ोत्तरी जरूर 13 प्रतिशत हुई है, लेकिन सरकार यह सच दबा गयी कि 5,450 रुपये का समर्थन मूल्य सरकार के आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम द्वारा सुझाये 6000 रुपये से अब भी बहुत कम है. मोदी सरकार ने पहले तीन साल में समर्थन मूल्य में जितना इजाफा किया है, वह मनमोहन सरकार के आखिरी तीन सालों से भी बुरा है.

अगर इसकी तुलना फसल की लागत से करें, तो स्थिति और भी खराब दिखती है. सरकार खुद हर फसल की लागत के आंकड़े इकट्ठे करती है. एक ही फसल की लागत अलग-अलग राज्य में अलग-अलग होती है, लेकिन सरकारी आंकड़े में इसकी राष्ट्रीय औसत लगा ली जाती है.
मोदी सरकार ने किसानों को वादा किया था कि उन्हें पर 50 प्रतिशत मुनाफा दिलाया जायेगा. उस हिसाब से देखें, तो एक भी फसल में सरकार अपने वादे का आधा नहीं दे रही है. धान की लागत 1,484 रुपये है और अगर किसान को 1,550 रुपये का समर्थन मूल्य मिल भी जाये, तो उसे सिर्फ 4 प्रतिशत बचत होगी. खरीफ की बाकी कई फसलों में सरकार का समर्थन मूल्य सरकार द्वारा घोषित लागत से भी कम है. यानी सरकार मान कर चलती है कि किसान को इन फसलों पर घाटा होगा.

सरकार जिस तरह समर्थन मूल्य का फैसला करती है, उस पर कई साल से किसान संगठन सवाल उठाते आये हैं. खुद सरकार की रमेश चंद समिति ने मान लिया है कि सरकारी आंकड़ों में किसान की लागत को कम करके आंका जाता है. दरअसल, देश के अधिकांश किसानों को सरकार का आधा-अधूरा न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं नसीब होता. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि केवल छह प्रतिशत किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलता है, बाकी 94 प्रतिशत जो भाव मिले, उस पर बेचने को मजबूर हैं. अगर सब किसानों को सभी 25 फसलों में सरकारी समर्थन मूल्य मिलना शुरू हो जाये, तो उनकी आय हर साल 50 हजार करोड़ रुपये बढ़ जायेगी. और अगर मोदी सरकार सचमुच अपने वादे के अनुसार लागत से ड्योढ़ी दाम दिला दे, तो किसान की आय में एक लाख करोड़ रुपये की सालाना बढ़ोत्तरी होगी. और अगर उसमें सब्जी, फल और दूध भी शामिल कर दें, तो किसान की आय और एक लाख करोड़ बढ़ जायेगी.

यानी सरकार की कुनीतियों के कारण किसान को हर साल ढाई लाख करोड़ रुपये का नुकसान होता है. या यूं कहें कि किसान हर साल देश की अन्न-सुरक्षा के लिए सरकार को सालाना ढाई लाख करोड़ का अनुदान देते हैं. अब आप सोचिये कि पिछले 50 साल में किसानों ने देश को कितना कर्ज दिया है. सरकार के अनुसार किसानों का कुल बैंक कर्ज 13 लाख करोड़ है. अब आप ही सोचिये कौन कर्जदार है?