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असहमति के अस्वीकार का दौर-- पवन के वर्मा

यह तो मैं समझ सकता हूं कि अपने देश में कुछ लोग उमर खालिद से इत्तिफाक नहीं रखते. मैं यह स्वीकार करने को भी तैयार हूं कि कुछ लोगों के अनुसार उसके विचार राष्ट्रविरोधी हैं. लेकिन, जो कुछ मैं नहीं समझ सकता, वह यह कि चूंकि ये लोग उससे सहमत नहीं हैं, इसलिए वे उसे बोलने नहीं देंगे. और मुझे यह भी मंजूर नहीं कि देशभक्त होने की परिभाषा राष्ट्रीयता के संबंध में कुछ लोगों की अवधारणा की गिरवी कर दी जा सकती है.


आरएसएस ने स्वतंत्रता संघर्ष में हिस्सा नहीं लिया. इसके नेताओं ने गांधीजी तथा कांग्रेस नेतृत्व से अपनी वैचारिक भिन्नता की वजह से समझ-बूझ कर इस विकल्प का चयन किया था. हालांकि, आरएसएस द्वारा उस वक्त किये गये फैसले से मैं सहमत नहीं हूं और आज भी उसके विचारों के कुछ पहलुओं को लेकर मेरी गहरी असहमति है, पर मैं उसे राष्ट्रविरोधी नहीं मानूंगा. लोकतांत्रिक विमर्श के मंच पर चर्चा, बहस तथा दलीलों के जरिये उनके नजरिये से राजनीतिक संघर्ष किया जाना चाहिए.


आरएसएस के साथ मेरे सभी मतांतरों के बावजूद मैं यह नहीं कहूंगा कि उसे सार्वजनिक मंच की मनाही होनी चाहिए अथवा उसे राष्ट्रद्रोही कहा जाना चाहिए. और इसी वजह से मैंने जेएनयू स्टूडेंट्स एसोसिएशन द्वारा बाबा रामदेव अथवा उसी वैचारिक धारा के आरएसएस से आगत समेत अन्य वक्ताओं को जेएनयू में बोलने से रोकने के प्रयास की निंदा की.


राजनीति के मंच पर वाम एवं दक्षिणपंथी मतभेद 1947 से ही मौजूद रहे हैं. उदारवादियों ने दक्षिणपंथियों की कट्टरवादिता पर सवाल उठाये और दक्षिणपंथियों ने उदारवादियों के समझौतापरक तथा कभी-कभी समयानुकूल लचीलेपन की निंदा की. पर, दोनों ही नजरिये को अभिव्यक्ति की आजादी ही तो एक लोकतांत्रिक राज्य की प्रकृति है.


हमारे संविधान का अनुच्छेद 19 कुछ शर्तों के साथ अभिव्यक्ति की गारंटी देता है और कौन सी चीज मूलभूत आजादी का अतिक्रमण करती है, यह फैसला करने का विशेषाधिकार न्यायपालिका को है. अभी उमर खालिद का दोष कानून के अंतर्गत सिद्ध नहीं हुआ है. उसका मामला अदालत के विचाराधीन है और वह जमानत पर रिहा है. जब पिछले सप्ताह उसे रामजस कॉलेज में एक ऐसे विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित किया गया, जो जेएनयू के विवाद से बिलकुल अलग था, तो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (अभाविप) के तत्वों ने खुद ही अभियोजक, जज तथा जूरी बन यह घोषणा की कि चूंकि उनके विचार में उमर खालिद राष्ट्रद्रोही है, इसलिए उसे बोलने नहीं दिया जायेगा.


दुखद यह हुआ कि वे सफल भी रहे. रामजस कॉलेज ने अपना आमंत्रण वापस ले लिया. पुलिस ने अभाविप सदस्यों की हिंसा रोकने के लिए कुछ खास नहीं किया और उन्होंने न केवल अपने विरोधी छात्रों, बल्कि मीडियाकर्मियों की पिटाई भी की. जिस स्वच्छंदता से उन्होंने कानून तोड़ा, वह इस तथ्य से प्रत्यक्षतः संबद्ध है कि केंद्र में सत्ताधारी भाजपा सरकार का छात्र संगठन होने के नाते उनका यह यकीन था कि वे कानून के बंधन से मुक्त हैं. अब यह रिपोर्ट भी आयी है कि खालसा कॉलेज ने अपना नुक्कड़ नाटक उत्सव इसलिए स्थगित कर दिया है कि उसे भी इन नाटकों में से कुछ की ‘राष्ट्रविरोधी' विषयवस्तु की वजह से अभाविप की धमकियां मिली थीं.


खतरा यह है कि जब भी राष्ट्रीयता के नाम पर हिंसा तथा भयभीत करने के ऐसे कृत्य सफल होते हैं, तो वे एक मिसाल पेश करते हुए भविष्य में भी उसके दोहराव की संभावनाएं मजबूत किया करते हैं. रामजस कॉलेज के मामले में यही हुआ है. जब कन्हैया कुमार को अदालत में पेश करने ले जाया जा रहा था, तब जो शरारती तत्व पत्रकारों तथा अपने विरोधियों की पिटाई करते हुए भी सजा से बचे रहे, वे ही उनके रोल मॉडल बने, जिन्होंने कुछ ही महीनों बाद रामजस कॉलेज में कानून को अपने हाथों लिया.


नाजुक होते जाते इस माहौल में जो कुछ भुला दिया जा रहा है, वह यह कि हमारी सभ्यता ने संवाद तथा बहस के प्रति कभी भी ऐसा विरोध प्रदर्शित नहीं किया है. बौद्ध एवं जैन दोनों धर्मों ने वेदों का खंडन किया, जिसे अधिकतर हिंदू ईश्वरीय अभिव्यक्ति मानते थे. इसी तरह, भौतिकता की चार्वाक विचारधारा ने तो वेदों को असत्यों के संकलन से ज्यादा कुछ मानने से ही इनकार कर दिया. पर, उनके विरोधियों की प्रतिक्रिया उन्हें पीटने की नहीं, बल्कि विरोधियों के मतों का विश्लेषण करते हुए तर्कों तथा चर्चा के आधार पर गहन वाद-विवाद एवं बौद्धिक खंडन की थी.


लोकतंत्र का अर्थ केवल निर्वाचनों की संख्या नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक भावना का पोषण है, जहां लोग असहमत होने और उसकी वजह बताने हेतु अपनी दलीलें पेश करने को आजाद हों. दुर्भाग्य से एक नये भारतीय को बढ़ावा दिया जा रहा है, जो यह मानता है कि जो कोई भी असहमत है, वह या तो चुप कर दिये जाने अथवा पीटे जाने योग्य है. यह यकीनन वह नहीं है, संविधान जिसकी गारंटी भारतीय गणतंत्र को देता है.
(अनुवाद: विजय नंदन)