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आंकड़ों की धूल में छिपा सच-- अनिल रघुराज

इसका स्वार्थ, उसका स्वार्थ. तेरा स्वार्थ, मेरा स्वार्थ. सबका स्वार्थ अलग-अलग हो सकता है. लेकिन, सबका सच एक ही होता है. दिक्कत यह है कि शोर में सच कहीं खो गया है. भांति-भांति की आवाजों में इस सच को खोज पाना भूसे के ढेर में सुई ढूंढने जैसा है. यह मुश्किल जरूर है, लेकिन नामुमकिन नहीं. बस, शोर को बड़ा एकाग्र होकर सुनना होगा, जैसे नाद योग या नाद साधना में करते हैं.

बताते हैं कि सुखासन में बैठ कर दोनों अंगूठों से कानों को बंद कर, आंखों के ऊपर हल्के से तर्जनी व मध्यमा को रख कर अनामिका व कनिष्ठा को नाक की आती-जाती सांसों की राह में रख दें और ध्यान से अपने अंदर के शोर को सुनें, तो कुछ दिनों के अभ्यास के बाद आपको उस शोर में घंटियों की मद्धम से तेज होती आवाज और शंख का नाद तक सुनाई पड़ने लगता है. धीरे-धीरे अंदर का सारा नाद ध्वनियों के रेशे में बंट कर आपको स्पष्ट सुनाई ही नहीं, दिखाई भी देने लगता है.

बाहर के शोर में सच तक पहुंचना है तो आंख, कान, नाक बंद करने से काम नहीं चलेगा. बुद्ध कहते थे कि हर बात को तर्क पर कसो, तभी मानो. हमें तो आज तथ्यों के आधार पर तर्कों के भी पार जाना पड़ेगा, क्योंकि तर्क रैखिक चलते हैं, जबकि सच अक्सर चक्रों में घूम जाता है. आइंस्टाइन ने सौ साल पहले ही अपने सापेक्षता सिद्धांत में कहा था कि तीन विमाओं के साथ समय भी एक सीमा के बाद वक्रीय हो जाता है.

अर्थव्यवस्था का सच तो इतने वक्रों में उलझा रहता है कि समझ में नहीं आता कि कौन-सा सिरा कहां तक ले जायेगा. पिछले कुछ दिनों में हमारी अर्थव्यवस्था से जुड़े तीन अहम आंकड़े आये हैं.

शुक्रवार को आंकड़ा आया कि अक्तूबर में देश का औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आइआइपी) 9.8 प्रतिशत बढ़ा है, जो पिछले पांच वर्षों की अधिकतम दर है. लेकिन रेटिंग एजेंसी क्रिसिल के मुताबिक, इस पर ज्यादा चहकने की जरूरत नहीं, क्योंकि पिछले साल अक्तूबर में यह सूचकांक 2.7 प्रतिशत घटा था. इसलिए कम आधार पर ज्यादा बढ़ने का कोई मतलब नहीं है.

वहीं, भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यन कहते हैं कि अक्तूबर के आइआइपी की व्याख्या करते हुए हमें सावधानी बरतनी होगी, क्योंकि इसमें दीवाली का असर समाहित है.

दूसरा आंकड़ा इससे एक दिन पहले गुरुवार का है, जब संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया कि भारत अगले दो वर्षों में दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था बना रहेगा और 2016 में इसके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के बढ़ने की दर 7.3 प्रतिशत और 2017 में 7.5 प्रतिशत रहेगी. यह भविष्य का अनुमान है और अनिश्चितता से घिरे भविष्य के बारे में अभी से कुछ भी पक्का नहीं कहा जा सकता.

तीसरा व सबसे अहम आंकड़ा, जिसे भारत सरकार ने 30 नवंबर को जारी किया. इसमें बताया गया कि भारत का जीडीपी चालू वित्त वर्ष 2015-16 की दूसरी तिमाही में 7.4 प्रतिशत बढ़ा है. इन आंकड़ों के आते ही चौतरफा शोर उठा कि हमने तो आर्थिक विकास में चीन को पीछे छोड़ दिया. लोगों ने इन आंकड़ों को देखा जरूर, लेकिन उसे जमीनी हकीकत से मिलाने की कोशिश नहीं की. मसलन, इसमें बताया गया कि जुलाई से सितंबर के दौरान भारतीय कृषि की विकास दर 2.2 प्रतिशत रही है. लगातार दो साल के खराब माॅनसून के बाद कृषि की इतनी विकास दर का आंकड़ा सच के मुंह पर तमाचा जड़ने से कम नहीं है.

दरअसल, आर्थिक गतिविधियों में तेजी का एक मुख्य पैमाना होता है कि बैंकों द्वारा भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) के अलावा दिये गये अन्य ऋणों में कितनी वृद्धि हुई है. इसकी वृद्धि दर इस समय दस साल के न्यूनतम स्तर के करीब है, फिर जीडीपी का आंकड़ा क्यों भाग रहा है? असल में जीडीपी में मुद्रास्फीति के असर को शामिल करने के लिए नॉमिनल व असल जीडीपी के दो आंकड़े चलाये जाते हैं. नॉमिनल जीडीपी मौजूदा मूल्यों पर निकाला जाता है. उसमें से मुद्रास्फीति को घटाने के बाद असल जीडीपी का आंकड़ा पेश किया जाता है.

इस बार खुद सरकारी घोषणा के मुताबिक, जुलाई-सितंबर 2015 के हमारे नॉमिनल जीडीपी की विकास दर 6 प्रतिशत है. इसमें मुद्रास्फीति के असर को जोड़ देने पर असली विकास दर 7.4 प्रतिशत हो जाती है.

कारण यह है कि उक्त तिमाही में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर ऋणात्मक में 1.4 प्रतिशत रही. इसलिए नॉमिनल दर में जब यह दर घटाई गयी, तो ऋण-ऋण मिला कर धन हो गया और हम चीन से भी ज्यादा 7.4 प्रतिशत के विकास दर से बढ़ने लग गये. {6-(-1.4)} = 7.4 के सीधे गणित के शोर ने जमीनी सच को धूल से भर दिया. लेकिन, सच इस नहीं तो उस रास्ते से निकल ही आता है.