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आंकड़ों में ही कम हो रही महंगाई - अनुराग चतुर्वेदी

बढ़ती महंगाई एक बार फिर चर्चा में है। वरना तो महंगाई का जिक्र चुनावी सभाओं या नीति आयोग जैसी संस्थाओं की गंभीर बैठकों में होता है। अर्थशास्त्री इसे मुद्रास्फीति से जोड़ते हैं तो किसान-दुकानदार 'मुनाफाखोरी" से। महंगाई पर चर्चा क्या सिर्फ आंकड़ों की कलाबाजी है या फिर यह हकीकत से भी जुड़ी है? सरकार का दावा है कि मुद्रास्फीति की दर दो अंकों से गिरकर एक अंक की हो गई है। दो वर्ष तक खराब मानसून के बाद इस साल हो रही अच्छी बारिश कृषि के लिए खुशखबरी है, लेकिन महंगाई का असली पता तो गृहिणी की रसोई और आमजन के घरेलू बजट से पड़ता है, जो आज भी लगातार गड़बड़ा रहा है। लोग ये भी मानते हैं कि एक बार जो चीज 'महंगी" हो गई, फिर उसके दाम बमुश्किल ही गिरते हैं। कुछ चीजों की कीमतों पर सरकार का पूरा नियंत्रण है। सरकार इन दिनों नहीं, बल्कि पिछले 25 वर्षों (उदारीकरण के बाद) से बाजार की शक्तियों पर निर्भर हो गई है। पेट्रोलियम पदार्थ के दाम एक ऐसा मामला है, जिसमें मोदी सरकार को भाग्यशाली कहा जा सकता है। बीते दो साल से अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम लगातार गिर रहे हैं, पर इसका पूरा लाभ सरकार ने उपभोक्ताओं को नहीं दिया। डीजल आदि की ऊंची दरों की वजह से माल ढुलाई भी महंगी हो गई है, जिसका असर उपभोक्ताओं को झेेलना पड़ रहा है। सरकार कहती है कि महंगाई का एक बड़ा कारण मांग और पूर्ति में सामंजस्य का न होना है। अरहर की दाल इसका ताजा उदाहरण है। भारत में अरहर की दाल की सर्वाधिक खपत होती है और उसकी पैदावार भी अच्छी है। पर 23 मिलियन टन की कुल मांग के मुकाबले 17 मिलियन टन की आपूर्ति होती है। सरकार को उम्मीद है कि इस साल अच्छे मानसून और किसानों के दाल उत्पादन से पुन: जुड़ने से हालात काफी हद तक संभल जाएंगे।

बहरहाल, उपभोक्ता मुद्रास्फीति के आंकड़ें देखें तो सरकारी दावे काफी आकर्षक लगते हैं। इसकी बानगी देखिए। जनवरी 2014 में मुद्रास्फीति की दर 8.6 प्रतिशत थी, जो जुलाई 2015 तक गिरकर 3.69 रह गई। हालांकि जून 2016 में यह बढ़कर 5.77 फीसदी हो गई है। जबकि विपक्षी दल कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि 2014 में 1 किलो टमाटर का दाम 18 रुपए किलो था, जो अब बढ़कर 55 रुपए हो गया है, उड़द व तुवर की दाल 70 और 75 रुपए से बढ़कर 160 और 180 रुपए प्रति किलो हो गई है।

सब्जियों के दामों में जो वृद्धि होती है, उसे सरकारी पक्ष मौसम से जोड़ता है। टमाटर, प्याज, मटर, आलू आदि के भाव मौसम के अनुसार घटते-बढ़ते हैं। सरकार की ओर से कृषि उत्पाद विपणन समिति (एपीएमसी) एक मान्य संस्था है, जहां सब्जी, फल आदि भी खरीदे-बेचे जाते हैं। हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने सब्जियों के बढ़ते दामों के चलते किसानों को यह आजादी दी कि वे अपने उत्पाद सीधे बाजार में जाकर बेच सकते हैं। सरकार के इस निर्णय के खिलाफ कृषि उपज मंडी में हड़ताल हो गई और सरकार की यह 'अभिनव" पहल धरी की धरी रह गई। फिलहाल मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों में किसान प्याज के दाम कम होने के कारण परेशान हैं। इनका मुख्य कारण हमारे देश में अच्छे भंडार गृहों की कमी है। भंडारण की यह कुव्यवस्था अनाज, सब्जी-फल इत्यादि के दामों में बढ़ोतरी के लिए तो जिम्मेदार है ही, इसके चलते बड़ी मात्रा में खाद्य चीजें बर्बाद भी हो जाती हैं। इतने वर्षों बाद भी भारतीय खाद्य निगम सुधरा नहीं है। आज भी ऐसे कई उदाहरण देखने को मिलते हैं जहां गोदामों में खुले में रखा टनों अनाज खराब हो जाता है।

आज हमारे जैसे कई देशों ने उदारीकरण के जरिए विकास का मॉडल अपना रखा है। भारत में उदारीकरण, निजीकरण की नीतियों को लागू हुए 25 वर्ष हो गए हैं। हमारे यहां भी अर्थशास्त्री, वित्तीय संस्थान महंगाई से पहले 'वृद्धि दर" की चिंता करते नजर आते हैं। भौतिक विकास हमारा एकमात्र लक्ष्य हो गया है। इसके चलते प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन किया जा रहा है और जल, जंगल, जमीन से आम गरीब किसान व आदिवासी को बेदखल किया जा रहा है। भारत हो या अमेरिका, इस व्यवस्था में गैरबराबरी के बीज निहित हैं, जबकि इस विचार के अनुयायी यह मानते हैं कि इस उदारवाद से ही बाजार में नकदी पहुंचती है और इसके वितरण से ही गरीबी दूर सकती है। साम्यवादी सरकारीकरण ने व्यवस्था को कठोर बना दिया था और विश्व व्यवस्था के एकध्रुवीय होने के कारण पूंजी बाजार का बोलबाला हो चुका है। जमीन के कारण भी महंगाई बढ़ती है। देश के महानगरों व शहरों में मकानों, फ्लैट्स की कीमतें अकल्पनीय ढंग से बढ़ चुकी हैं। व्यावसायिक शहरों में महंगे घरों के आसपास भी मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं। भू-माफिया हर छोटे-बड़े तक पहुंच गया है। ऐसे में महंगी खरीदी गई दुकानें, किराए पर लिए गए छोटी गुमटियां भी पूरा 'रिटर्न" देने में असमर्थ हैं। भारत को एक कृषिप्रधान देश माना जाता रहा है। लेकिन अब यहां कृषि लाभ का सौदा नहीं रही। कृषि में पूंजी निवेश कई आशंकाओं से जुड़ा है। जलवायु परिवर्तन इसमें खलनायक हो चुका है। बेमौसम अतिवृष्टि, ओलावृष्टि और मानसून में खंडवृष्टि भी किसानों के सभी अनुमानों को ध्वस्त कर देती है। उपज की औने-पौने दामों में खरीद, आढ़तियों की मनमानी भी उन्हें इस व्यवसाय से जुड़े रहने के प्रति हतोत्साहित करतीहै। ऐसे में ज्यादातर किसानी मंदी पड़ी गई है और पैदावार घटी है। इससे भी बाजार में मांग और पूर्ति का संतुलन गड़बड़ाया है।

बहरहाल, वजह चाहे जो भी हो, लेकिन हकीकत यही है कि आम आदमी को महंगाई से अभी भी राहत नहीं है। सरकार इन हालात को समझते हुए सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को मजबूत कर सकती है, जिसके जरिए लोगों को वाजिब दाम पर खाद्यान्न् मुहैया हो सके। आज आलम यह है कि शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं भी महंगी होते हुए आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गई हैं। सरकार द्वारा अप्रत्यक्ष करों में 'सेस" के द्वारा वृद्धि भी इसका एक कारण है।

आखिर हमारी सरकारें जनता को सीधे प्रभावित करने वाली महंगाई की इस समस्या के प्रति बेपरवाह क्यों बनी रहती हैं? पिछली सरकारों के समय भी महंगाई थी और इस सरकार के वक्त भी महंगाई है, कुछ ज्यादा ही। इस महंगाई की चक्की में पिस रही जनता जब कराहती है, तो सरकार आंकड़ों का हवाला देते हुए कहती है कि वह कम है, कम हो रही है। पर हकीकत तो यही है कि अन्न्, सब्जियां, दवाएं, शिक्षा, बस-रेल का सफर सभी कुछ तो महंगा होता जा रहा है। सरकार जरूरी वस्तुओं के दाम नियंत्रित करने के ठोस उपाय करे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व 'महानगर" (मुंबई) के पूर्व संपादक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)