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आइटी उद्योग के स्याह पहलू-- अभिषेक कुमार

एक वक्त था जब देश में हुई आइटी क्रांति ने रोजगार को पंख लगा दिए थे। एक ऐसे दौर में, जब देश का पढ़ा-लिखा नौजवान कोई मामूली वेतन वाली नौकरी करने या फिर बेरोजगार रहने को मजबूर था, आइटी क्रांति की बदौलत देश-विदेश में उम्दा रोजगार का हकदार बना था और अपनी प्रतिभा का परचम लहराया था। पर अब एक के बाद एक, इस क्षेत्र के लिए बुरी खबरें आ रही हैं। ट्रंप प्रशासन एच-1 बी वीजा की शर्तों को कड़ा करता जा रहा है, तो इस क्षेत्र में चीन-फिलीपीन्स आदि देश भारत को तगड़ी चुनौती देने की हैसियत में आ गए हैं। फिर, उसका क्या करें जब बाहर से ज्यादा अंधेरा घर के भीतर हो। आइटी के इस घटाटोप का एक संकेत हाल में इन्फोसिस के सह-संस्थापक नारायण मूर्ति के बयान से मिला। मूर्ति ने कहा कि इस क्षेत्र के वरिष्ठ प्रबंधकों को लालच छोड़ना चाहिए और उद्योग में नए शामिल हो रहे नौजवानों के लिए कुछ त्याग करना चाहिए। असल में मामला निचले और मध्यम स्तर के आइटी-कर्मियों के वेतन का है, जिस पर इस धारणा के तहत बाहर से कोई नजर नहीं जाती है कि यह एक ऐसा चमचमाता कारोबार है जिसने दुनिया में भारत की शान बढ़ाई है। पर हकीकत यह है कि पिछले करीब एक दशक से सॉफ्टवेयर उद्योग में नवागंतुकों (फ्रेशर्स) और निचले-मध्य क्रम के कर्मचारियों का वेतन स्थिर बना हुआ है, जबकि इसी दौरान वरिष्ठ पदों पर तैनात लोगों का वेतन एक हजार फीसद तक बढ़ गया है। एक तरफ अमेरिका जैसे विकसित मुल्कों से ‘भारतीयो दफा हो जाओ' जैसे चेतावनी-भरे संदेश आ रहे हैं, और दूसरी तरफ, आइटी उद्योग की घरेलू जमीन खोखली हो चुकी है। इसकी वजह प्रतिभा की कमी नहीं, बल्कि उद्योग की परस्पर सांठगांठ और वे कई मर्ज हैं जिनके चलते हमारे आइटी-पेशेवर विदेशी नौकरियों के लिए बड़े खतरे उठाना भी मंजूर कर लेते हैं।

 

नारायण मूर्ति से पहले तकरीबन यही बातें इन्फोसिस के पूर्व मुख्य वित्त अधिकारी टीवी मोहनदास पई भी कह चुके हैं। उनका तो यह आरोप भी था कि देश के भीतर मौजूद बड़ी आइटी कंपनियां आपस में सांठगांठ कर नए भर्ती किए गए कर्मचारियों का जमकर शोषण करती हैं और इसके लिए गिरोहबंदी करने तक से बाज नहीं आतींं। ये कंपनियां निचले स्तर पर सॉफ्टवेयर इंजीनियरों की बहुतायत में उपलब्धता का फायदा उठाती हैं और उन्हें नाममात्र का वेतन देती हैं। निचले-मध्य क्रम में मौजूद पुराने कर्मचारियों को सालाना तीन-सवा तीन लाख वेतन में उपलब्ध इंजीनियरों का भय दिखाती हैं और कोई मौका पड़ते ही ऊंची तनख्वाह वाले इंजीनियरों को बाहर का रास्ता दिखाने में देर नहीं करती हैं। एक आकलन है कि नामी आइटी कंपनियां नए भर्ती सॉफ्टवेयर इंजीनियर को औसतन साढ़े तीन लाख रुपए सालाना वेतन देती हैं, जो अब से बीस साल पहले ढाई लाख रुपए सालाना था। इस तरह महीने का वेतन करीब बीस हजार रुपए से बढ़ कर करीब तीस हजार रुपए ही हुआ, जबकि इसी दौरान महंगाई दर कहां से कहां पहुंच गई है।


आइटी इंजीनियरों को ‘साइबर कुली' जैसा वेतन देने और तकरीबन रोमन दासों की तरह काम लेने वाले उद्योग के सामने भी बेशक चुनौतियां हैं, लेकिन अब भी वे ऐसी कंगाली की हालत में नहीं हैं कि इंजीनियरों को सरकारी दफ्तर में चपरासी के पद पर काम करने वाले कर्मचारियों जैसा या उनसे भी कम वेतन दें। उल्लेखनीय है कि हाल-फिलहाल में सॉफ्टवेयर निर्यात कारोबार 110 अरब डॉलर का है और फिलहाल इस उद्योग में साढ़े बयालीस लाख लोग काम कर रहे हैं। इसमें भी गौरतलब तथ्य यह है कि वैश्विक आउटसोर्सिंग के साठ फीसद बाजार पर हमारे देश का ही कब्जा है। दुनिया की दस अग्रणी सॉफ्टवेयर कंपनियों में से पांच भारतीय हैं। दस अग्रणी भारतीय आइटी कंपनियों में ही करीब बीस लाख लोग काम करते हैं और इनमें सत्तर फीसद तो भारतीय युवा ही हैं। अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर देखें तो आज भी सॉफ्टवेयर उद्योग में भारत का कोई मुकाबला नहीं है। पर यह तस्वीर पूरी तरह उजली नहीं है।


यह शिकायत कुछ वर्षों से लगातार की जा रही है कि आइटी (सॉफ्टवेयर और बीपीओ) उद्योग में हमारे युवाओं का जमकर शोषण हो रहा है। उनके कामकाज की शर्तें बेतुकी हैं, काम के घंटे बेतरतीब हैं, वहां तनाव ज्यादा है और विदेशी ग्राहकों का व्यवहार भी उनके साथ बेहद खराब है। यह नया आरोप नहीं है कि बीपीओ के दफ्तरों में काम करने वाले युवा अकसर मानसिक थकान और तनाव आदि की शिकायत करते हैं। उन्हें काम करने का वक्त (ज्यादातर बीपीओ दफ्तर रात में खुलते हैं) बेहद अजीब लगने लगता है। वहां काम करने वाली युवतियों के शोषण की खबरें भी अकसर आती हैं। बीपीओ उद्योग में ही नौकरी छोड़ने की दर सबसे ज्यादा है और यही वजह है कि हर हफ्ते निकलने वाले रोजगार संबंधी विज्ञापनों में सबसे बड़ी तादाद बीपीओ से जुड़ी नौकरियों की होती है।


यह शिकायत भी अकसर की जाती है कि विदेशी ग्राहकों को यदि बोलचाल के लहजे से पता चल जाए, तो वे भारतीय बीपीओकर्मियों से बदतमीजी से पेश आते हैं। इसके अलावा, इस उद्योग के अंदरूनी हालात भी ऐसे हैं कि काम में जरा-सी गलती से युवाओं की नौकरी चली जाती है। कहा तो यह भी जाता है कि तीन गलतियां किसी भी युवा की नौकरी छीन सकती हैं। इन्हीं स्थितियों के विस्तृत आकलन के आधार पर ‘वीवी गिरि राष्ट्रीय श्रम संस्थान' ने अपनी रिपोर्ट में यह नतीजा निकाला था कि इस उद्योग में कार्यरत युवाओं की स्थिति उन्नीसवीं सदी के रोमन दासों से भरे जहाजों पर ले जाए जा रहे कैदियों से अलग नहीं है। इस रिपोर्ट की रोशनी में ही वाम दलों ने कहा था कि बीपीओ उद्योग तो असल में एक वैश्विक पूंजीवादी घोटाला है, जिसमें फंसकर हमारे प्रतिभाशाली नौजवानों का दम घुट रहा है। डेलोयाइट रिसर्च फर्म नामक एक अंतरराष्ट्रीय शोध संगठन ने इस भ्रांति को भी तोड़ने का प्रयास किया है कि आइटी क्षेत्र में युवाओं को सबसे ज्यादा वेतन मिलता है। इस अनुसंधान संस्थान के मुताबिक, अंतरराष्ट्रीय कंपनियां जो वेतन अपने मूल देश में किसी सॉफ्टवेयर इंजीनियर को देती हैं, उससे आठ गुना कम वेतन भारतीय सॉफ्टवेयर इंजीनियरों को वहां दिया जाता है। इसके अलावा बीपीओ कर्मचारियों के मामले में तो यह अंतर और भी ज्यादा है।


इसमें कोई शक नहीं कि भारत में काम में पेशेवराना स्तर और उसके बदले में यूरोप-अमेरिका के मुकाबले बेहद कम भुगतान की व्यवस्था के चलते ही हमारे कई शहर आइटी-पेशेवरों को रोजगार दिलाने वाले बड़े केंद्र्र बन सके। चूंकि भारत में काम कराना सस्ता पड़ रहा था और यहां के नौजवानों की अंग्रेजी भी अच्छी है, इसलिए यूरोप-अमेरिका से ढेरों काम यहां के कॉल सेंटरों आॅपरेटरों, डाटा एंट्री क्लर्कों, टेलिमार्केटिंग के जानकारों और आइटी पेशेवरों को मिल रहा है। लेकिन बीपीओ उद्योग में काम की स्थितियों का वाजिब नहीं होना और शोषण होना, ये बातें निश्चय ही परेशान करने वाली हैं।खतरे और भी हैं, जैसे स्वचालितीकरण (आॅटोमेशन) और डिजिटल तकनीक व्यवसाय करने के तौर-तरीकों को बदल रहे हैं। ऐसे में आइटी उद्योग में काम करने के पारंपरिक तरीकों पर काफी दबाव है। आइटी कंपनियों ने कर्मचारियों की तनख्वाहों में कमी लाकर मानव श्रम की जगह जिस तरह स्वचालित मशीनों को लगाया है, उससे काम की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। ऐसे में कोई हैरानी नहीं होगी, अगर देश की बड़ी-बड़ी कंपनियां वैश्विक मंदी की शिकायत करने लगें। वैसे भी, पिछले दो दशक में इन कंपनियों ने जो तगड़ा मुनाफा कमाया है, धंधे में कमी आने के कारण वैसा लाभ मुमकिन नहीं है। पर यदि कर्मचारियों पर निवेश में ज्यादा कतरब्योंत की गई, तो कहा नहीं जा सकता कि इस उद्योग का सितारा कब डूब जाए।