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आकाश की ऊंचाइयां नापती बेटियां

पटना बेटियां, आकाश की ऊंचाइयां नाप रही हैं। कुछ सालों से 10 वीं, 12 वीं व इंटरमीडिएट की परीक्षाओं में लगातार आगे हैं। यह सिर्फ उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं है, बल्कि इसके पीछे सामाजिक-आर्थिक बदलाव के साथ सरकारी प्रयास भी महत्वपूर्ण कारक हैं। बदलते माहौल में मिले अवसर व प्रोत्साहन के बीच वे अपनी खातिर 'नया आकाश' बना रहीं हैं। भारत, स्त्री शिक्षा के मामले में पिछड़ा रहा है।कारणों की कमी नहीं है। बिहार की स्थिति तो और निराशाजनक रही। लेकिन बदलते माहौल ने लड़कियों को अवसर दिया और परिणाम सामने है।

एएन सिन्हा समाज अध्ययन संस्थान के निदेशक व सामाजिक रूपांतरण विशेषज्ञ डा.दिगम्बर मिश्र दिवाकर कहते हैं-'बदलाव की यह बयार नौवीं योजना काल में ही बहने लगी थी। सरकार ने इस समय महिला सशक्तीकरण की नीति पर गंभीरता से काम करना आरंभ किया। योजना में अलग से प्रावधान किया गया। 10 वीं योजना में इसका विस्तार हुआ। 11 वीं योजना के इसका फल दिखने लगा।'

बेशक, नारी सशक्तीकरण के ये प्रयास राज्य में हाल के वर्षो में तेज हुए। मुख्यमंत्री साइकिल योजना, बालिका पोशाक योजना आदि के माध्यम से वैसे सुदूर क्षेत्र की लड़कियों को भी शिक्षा की प्रेरणा मिली, जो अब तक इससे दूर थीं। दूसरी ओर शिक्षित लड़कियों के लिए राज्य में बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर पैदा हुए। पंचायतों में भी महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित की गयीं। लैंगिक समानता के प्रयास किए गए। पटना विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान शिक्षक प्रो.कार्तिक झा मानते हैं कि इन सबका महिलाओं के व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ा और वे सबला बनने की राह पर चल पड़ीं।

मौलाना मजहरूल हक अरबी फारसी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.कमर अहसन कहते हैं-'बदलाव की बयार से अल्पसंख्यक वर्ग भी प्रभावित हुआ। मदरसा शिक्षा में भी लड़कियों की बढ़ी तादाद इसका उदाहरण है। वे वहां भी लड़कों से आगे आ रही हैं।'

बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के अध्यक्ष डा.एकेपी यादव इसके पीछे सरकार के प्रयास को महत्वपूर्ण मानते हैं। उनका कहना है कि सरकार ने बालिका शिक्षा के प्रोत्साहन के लिए योजनाएं चलाने के साथ बड़े पैमाने पर शिक्षकों की बहाली भी की। गांव-गांव में शिक्षित महिलाएं रोजगार पा गई। इससे वे परिवार का आर्थिक आधार बनीं। साथ ही बदली समाज व परिवार की बालिका शिक्षा के प्रति दृष्टि। इसे गति दी सरकार की प्रोत्साहन योजनाओं ने।

पहले लड़कियां काफी खर्चीली मानी जाती थीं। विवाह के लिए दहेज जुटाने की समझ के चलते उनकी शिक्षा का खर्च उठाना मां-बाप को भारी लगता था। लेकिन इन दिनों नौकरीपेशा लड़कियों की प्रतिष्ठा बढ़ी, उनके विवाह के अवसर भी बढ़े। नियोक्ताओं ने लड़कियों को प्राथमिकता देना शुरु किया। प्रो.कार्तिक झा कहते हैं-'लोग नौकरीपेशा लड़कियों से बगैर दहेज विवाह के लिए आने लगे। इससे बालिका शिक्षा के प्रति माता-पिता का रूझान बढ़ा।' परंपरागत परिवेश में लंबे समय से दबाकर रखी गई लड़कियों ने जब मौका मिला, अपनी शिक्षा को गंभीरता से लिया। बेटा-बेटी में फर्क करते परिवेश में उन्हें पता था कि अगर उन्हें कम अंक आए या फेल कर गई तो आगे की पढ़ाई मुश्किल हो जाएगी। दूसरी ओर लड़कों के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं है। इस पृष्ठभूमि में वे पढ़ाई के प्रति उतने गंभीर नहीं हो सके हैं।

एक और बड़ी बात है। लड़कियों की घर की चहारदीवारी के बाहर की सीमित दुनिया के विपरीत लड़कों के बाहरी सरोकार अधिक हैं। इसका असर भी पढ़ाई पर पड़ता है। पटना कालेज की मनोविज्ञान की शिक्षक प्रो. पूनम कुमारी के अनुसार लड़कियां पढ़ाई को अपने अस्तित्व से जोड़ती हैं, जबकि लड़के 'कर लेंगे' की मानसिकता में जीते रहे हैं। इसी में वे पीछे हो रहे हैं।

'सुपर 30' के संस्थापक आनंद मानते हैं कि लड़कियों में एकाग्रता व किसी प्रोजेक्ट को पूरा करने का दृढ़ निश्चय अधिक होता है। लड़कों की तुलना में उनमें चंचलता कम है। इन्हीं कारणों से लड़कियों ने इन दिनों के तमाम अवसरों को पूरी तरह कैश किया है। डा.दिवाकर 'मनुस्मृति' के हवाले कहते हैं-'महिलाएं बुद्धि में पुरुषों से तेज होती हैं। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि प्रोत्साहन पाकर वे आगे निकल रही हैं।'

आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं, तो 10 वीं, 12 वीं व इंटरमीडिएट में बड़ी संख्या साधारण परिवार व ग्रामीण पृष्ठभूमि की लड़कियों ने मेधा सूची में स्थान बनाया है। यानी, जागरूकता की पैठ सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों तक हो चुकी है। बीएन कालेज के प्राचार्य डा. राजकिशोर सिंह मानते हैं कि ऐसी लड़कियों ने मेधा के बल पर परीक्षाओं में स्थान तो पा लिया है, लेकिन बदलते विश्व के साथ कदमताल करने के लिए यह जरूरी है कि उनके व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास भी हो।