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आखिर 'थिंक टैंक' करते क्या हैं? - मोहन गुरुस्‍वामी

'थिंक टैंक" शब्द का इस्तेमाल सबसे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ. कैनेडी ने किया था। अपने कार्यकाल के दिनों में उन्होंने व्हाइट हाउस में शीर्ष बुद्धिजीवियों का जमावड़ा कर रखा था। इनमें मैकजॉर्ज ब्युंडी, रॉबर्ट मैकनेमारा, जॉन गालब्रेथ, ऑर्थर श्लेसिंगर, टेड सोरेनसन जैसे नाम शामिल थे, जिनका काम समय-समय पर राष्ट्रपति को विभिन्न् मुद्दों पर परामर्श देना था। कैनेडी ने इसी जमावड़े को अपने 'थिंक टैंक" की संज्ञा दी थी। जब कैनेडी ने अपने इस परामर्शदाता समूह को भोज दिया तो उन्होंने कहा कि थॉमस जैफरसन के दिनों के बाद से अब तक व्हाइट हाउस के डाइनिंग हॉल में इतनी मेधा व बुद्धिमत्ता कभी नहीं रही। गौरतलब है कि जैफरसन व्हाइट हाउस में अकेले भोजन किया करते थे।

लेकिन अमेरिका में हमेशा से ही यह परंपरा रही है कि छोटी अवधि के लिए सरकार में अकादमिकों और नीति विशेषज्ञों की सेवाएं ली जाएं। इनमें से अधिकतर विद्वतजन हार्वर्ड, येल, प्रिंसटन और स्टेनफर्ड जैसे शीर्ष शैक्षिक संस्थानों के होते हैं। लेकिन इसके बावजूद बहुत कम ऐसे हैं, जो व्हाइट हाउस में या किसी अन्य शीर्ष प्रशासनिक पद के लिए सेवाएं देने को तत्पर रहते हैं, क्योंकि उनकी यूनिवर्सिटी उन्हें ज्यादा से ज्यादा दो साल तक की छुट्टी दे सकती है, जिसके बाद उनका पद समाप्त हो जाता है। अमेरिकी अकादमिक आज भी अपनी पूर्णकालिक प्रोफेसरशिप को किसी कैबिनेट पोस्ट से अधिक महत्व देते हैं।

वर्ष 1981 में जब मैंने हार्वर्ड के कैनेडी स्कूल ऑफ गवर्नमेंट में एक एडवर्ड एस. मैसन फेलो के रूप में प्रवेश किया तो नोबेल पुरस्कार विजेता थॉमस शेलिंग ने कुछ इन शब्दों में हमारी क्लास को एडवर्ड मैसन का परिचय दिया था : 'जब मैंने हार्वर्ड फैकल्टी ज्वॉइन की, एड मैसन पहले ही एक कद्दावर शख्सियत बन चुके थे। हम सुना करते थे कि एक न एक दिन वे अमेरिका के विदेश मंत्री बनेंगे। लेकिन वे तो इससे भी एक कदम आगे गए। वे स्कूल ऑफ गवर्नमेंट के डीन बने!" महज इस एक प्रसंग से ही साबित होता है कि अमेरिका में एक शीर्ष अकादमिक पद का क्या महत्व है। खुद जॉन एफ. कैनेडी अपना दूसरा कार्यकाल पूरा करने के बाद हार्वर्ड फैकल्टी ज्वॉइन करना चाहते थे, लेकिन जैसा कि जाहिर है, ऐसा हो न सका।

बहरहाल, भारत में 'थिंक टैंक" शब्द के एक अलग ही मायने हैं। ये ऐसी संस्थाएं होती हैं, जहां चिंतन कम और गपशप ज्यादा होती है। ये मुख्यत: रिटायर्ड नौकरशाहों और जनरलों की आरामगाह होती हैं। 'मेरा ऐसा सोचना है" और 'मेरा ऐसा मानना है" किस्म का इकहरा चिंतन वैसे भी दिल्ली में इफरात में चलता रहता है। रिसर्च वगैरा की किसे पड़ी है? हमारे 'थिंक टैंकों" में बैठे अनेक लोगों को तो कुछ लिखना भी नहीं आता! मुझे वास्तव में तब बहुत अचरज हुआ था, जब हमारे तीन 'थिंक टैंकों" को दुनिया के शीर्ष सौ में स्थान दिया गया था।

भारत के अधिकतर 'थिंक टैंक" दिल्ली में हैं। इसमें किसी को अचरज भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र में ही सर्वाधिक संख्या में रिटायर्ड अफसर रहते हैं और देश की सेवा करने की भावना उनमें अब भी कुलबुलाती रहती है। और अगर देशसेवा के अवसर के साथ ही एक सरकारी ओहदा भी मिल जाए तो क्या कहने! दिल्ली के शीर्ष 'थिंक टैंकों" को सरकार से ही वित्तीय पोषण मिलता है। मसलन, सुरक्षा व्यवस्था से संबद्ध 'थिंक टैंक" जैसे सीएलएडब्ल्यूएस, सीएपीएस, एनएफएफ और आईडीएसए रक्षा मंत्रालय से जुड़े हैं। ऐसे में 'थिंक टैंकों" का ज्यादातर समय उन मुख्यालयों के लिए लॉबिंग करने में जाता है, जिनसे उन्हें वित्तीय पोषण मिलता है। आईडीएसए के प्रमुख की नियुक्ति तो सरकार ही करती है। यूएसआई एक 'थिंक टैंक" तो नहीं है, लेकिन यदा-कदा वह खुद को एक 'थिंक टैंक" ही समझने लगता है। अर्थव्यवस्था से जुड़े 'थिंक टैंक" जैसे कि आईसीआरआईईआर, आईसीएईआर इत्यादि भी मुख्यत: सरकार और अन्य बहुपक्षीय संस्थाओं से फंड पाते हैं। दिल्ली के पॉश इलाके चाणक्यपुरी में स्थित प्रतिष्ठित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च को मूलत: फोर्ड फाउंडेशन द्वारा वित्तीय मदद दी जाती थी, लेकिन आज वह मुख्यत: सरकारी परियोजनाओं पर ही काम करता है।

हाल के सालों में हमने निजी पूंजी से पोषित 'थिंक टैंकों" का भी उभार देखा है। ओआरएफ को प्रारंभ में रिलायंस इंडस्ट्रीज द्वारा पैसा दिया गया था, लेकिन आज उसे सरकारी और विदेशी संस्थाओं से बड़े पैमाने पर वित्तीय मदद मिल रही है। वर्ष 2013 के अंत में अमेरिका के सबसे बड़े और प्रभावी 'थिंक टैंक" द ब्रुकिंग्स इंस्टिट्यूशन ने भारत में अपनी आमद दर्ज कराई थी। भारत के अनेक उद्योगपतियों द्वारा इसे पैसा दिया जाता है। विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा वित्त-पोषित 'थिंक टैंक" है। इसमें कुछ गलत नहीं है कि संघ अपना स्वयं का एक 'थिंक टैंक" संचालित करे, लेकिन सच यही है कि इसके द्वारा भी कोई खास बौद्धिक सामग्री का उत्पादन नहीं किया गया है।

हाल के दिनों में कुछ 'थिंक टैंक" विभिन्न् मंत्रालयों के इवेंट मैनेजर्स के रूप में भी उभरे हैं। मिसाल के तौर पर विदेश मंत्रालय का स्टाफ बहुत कम है और स्टाफ में जो लोग हैं, उनकी मेधा पर बहुत गर्व भी नहीं किया जा सकता। लिहाजा वह अपने यहां आने वाले प्रतिनिधिमंडलों और विशिष्टजनों के लिए वर्कशॉप और लेक्चर इवेंट आदि का आयोजन कराने के लिए 'थिंक टैंकों" की सेवाएं लेता है। कई विदेशी हथियार कंपनियां भी सेमिनारों को प्रायोजित करती हैं। कुछ साल पहले सीएपीएस ने ओबेरॉय होटल में एक आलीशान 'सेमिनार" का आयोजन किया था, जो कि मुख्यत: मंझोले लड़ाकू विमानों के महत्व और सैन्य आधुनिकीकरण की अन्य लंबित परियोजनाओं पर केंद्रित था। बोइंग, लॉकहीड मार्टिन और रेथियोन ने इस कार्यक्रम को प्रायोजित किया था। अनुमान लगाने की जरूरत नहीं कि उनकी दिलचस्पी किसमें थी।

बहरहाल, दिल्ली के नीति-निर्माण के केंद्रस्थल में ब्रुकिंग्स की आमद जरूर चिंता का विषय है। हमारे यहां पहले ही सीआईआई और फिक्की जैसी संस्थाएं हैं, जो अपनी सदस्य कंपनियों के हितों का पोषण करती हैं। मनमोहन-मोंटेक की जोड़ी के शीर्ष दिनों में तो सीआईआई भारत-अमेरिका संबंधों को दिशा देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। तब इस संस्था का उद्देश्य भारत को अमेरिका का निकटतम सहयोगी बनाना भर ही था। एक जमाने में इंडो-सोवियत काउंसिल ऑन अंडरस्टैंडिंग यही भूमिका भारत-रूस संबंधों के लिए निभाती थी। इंद्रकुमार गुजराल और एचएन बहुगुणा जैसे लोग उस संस्था से जुड़े थे।

इतना सब कहने के बावजूद अंत में यही कहूंगा कि यह एक अच्छी बात ही है कि दिल्ली में 'थिंक टैंकों" की तादाद बढ़ रही है। कम से कम वे बहस का एक मंच तो मुहैया कराते हैं, भले ही उनका जोर किसी विषय पर प्रकाश डालने से ज्यादा उसे विवादास्पद बना देने पर रहता हो। अब जब संसद में अच्छी बौद्धिक बहसों की उम्मीद किसी को भी नहीं रह गई है, तो देश की बौद्धिक खुराक की पूर्ति आखिर कैसे होगी? इसलिए यह कहना ही होगा कि शुक्र है, जो 'थिंक टैंक" हैं। जितनी तादाद में 'स्कूल ऑफ थॉट्स" विकसित हों और परस्पर संघर्ष करें, हमारी बौद्धिक क्षमताओं के परिमार्जन के लिए उतना ही अच्छा है।

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक विश्लेषक हैं। ये उनके निजी विचार हैं