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आचार संहिता की प्रासंगिकता -- अनुपम त्रिवेदी

4 जनवरी को 5 राज्यों में चुनाव की अधिसूचना के साथ ही चुनाव आचार संहिता लागू हो गयी है. नियमानुसार राजनीतिक दलों, प्रत्याशियों और सरकारी महकमें से इस दौरान आदर्श आचार यानी ‘मॉडल कंडक्ट' की अपेक्षा की जाती है और नहीं मानने पर सजा का प्रावधान है.

भारत में आचार संहिता के प्रयोग का आरंभ केरल में हुआ, जब वहां 1960 के विधानसभा चुनावों में चुनाव परिचालन के लिए राजनीतिक दलों के लिए कुछ नियम घोषित किये गये. 1967 के लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में पहली बार सम्यक रूप से आचार संहिता का अनुपालन हुआ. 1991 में संशोधनों के साथ इसे विस्तार दिया गया, जो इसका वर्तमान स्वरूप है. इसमें सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग, राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों का अनुशासित और मर्यादित आचरण, नये अनुदान व नयी योजनाओं/परियोजनाओं की घोषणा पर रोक आदि शामिल है.

 


दरअसल, आचार संहिता लागू करने के मूल में उद्देश्य बड़ा ही सार्थक है- वह है चुनाव के दौरान सभी राजनीतिक दलों को निष्पक्ष और बराबरी का अवसर प्रदान करना और यह सुनिश्चित करना कि सत्तारूढ़ पार्टी, न तो केंद्र में और न राज्यों में, चुनाव में अनुचित लाभ हासिल करने के लिए अपनी आधिकारिक स्थिति का दुरुपयोग करे. भारतीय चुनाव प्रणाली को सम्यक और सुचारू रूप से चलाने में इसका बड़ा योगदान है. लेकिन, कितनी प्रासंगिक और व्यावहारिक है यह आचार संहिता?

 

 


यह प्रश्न इसलिए उठता है, क्योंकि आचार संहिता के परिणाम अपेक्षित नहीं हैं. आरोप लगता है कि आचार-संहिता से शासकीय कार्य बुरी तरह प्रभावित होते हैं. हालांकि, नियमानुसार सामान्य शासकीय कार्यों को आचार-संहिता कभी रोकती नहीं है, पर असलियत में न केवल जन-कल्याण के कार्यक्रम, बल्कि रोजमर्रा के शासकीय कार्य भी ठप्प हो जाते हैं. जो अधिकारी कुछ करना भी चाहते हैं, वे चुनाव आयोग के डर से या चुनावी ड्यूटी की वजह से चुप रह जाते हैं. ऐसा लगता है कि चुनाव की समयावधि में सरकार छुट्टी पर चली जाती है.


आचार संहिता पर सबसे बड़ा आरोप यह लगता है कि इसके लागू होते ही भारत में राजनीतिक लोकतंत्र समाप्त हो जाता है और उसकी जगह नौकरशाहों का आधिपत्य हो जाता है. वे अपने हिसाब और कुछ हद तक अपनी मर्जी से नियमों का विश्लेषण और उपयोग करते हैं. स्थानीय प्रशासन और सामान्य शासकीय कार्यों में भी उनका हस्तक्षेप बढ़ जाता है. ऐसे में कई बार स्थिति बड़ी विचित्र और हास्यास्पद हो जाती है. एक बार केरल में एक चुनाव के दौरान कई पोलिंग बूथों से चुनाव आयोग ने पंखे हटाने का आदेश दिया था. वजह यह थी कि एक उम्मीदवार का चुनाव चिह्न था पंखा. अब भले ही कितनी गर्मी और उमस क्यों न हो, पर आदेश तो आदेश है! ऐसे ही 2009 के लोकसभा चुनावों से ठीक पूर्व तत्कालीन प्रधानमंत्री डाॅ मनमोहन सिंह की जी-20 सम्मेलन की यात्रा के दौरान पीएमओ की वेबसाइट से प्रधानमंत्री की तस्वीर और भाषण हटाने के आदेश जारी कर दिये गये थे. कारण यह बताया गया कि लंदन में दिये उनके भाषण से भारत के चुनावों में असर पड़ सकता है!

 

 


इस बार आचार संहिता का असर आगामी बजट पर पड़ता दिख रहा है. इस बार बजट पहली बार 1 फरवरी को आ रहा है. मोदी सरकार अंगरेजों के समय से चली आ रही परंपरा को बदल कर तर्कसंगत बनाना चाहती है. बजट की यह तिथि लगभग छह महीने पहले ही तय हो गयी थी.

 

 


लेकिन, अब समूचा विपक्ष चुनाव आयोग पर दबाव बना रहा है कि बजट को चुनावों के बाद तक स्थगित किया जाये. 16 राजनीतिक दलों ने इस बाबत महामहिम राष्ट्रपति को एक ज्ञापन भी दिया है. तर्क यह है कि अगर सरकार ने लोक-कल्याण की घोषणाएं की, तो चुनाव में सत्ताधारी दल को फायदा पहुंचेगा! यह बड़ी विचित्र बात है. लोकतंत्र का उद्देश्य लोकसत्ता और लोक-कल्याण है. लेकिन, स्थिति ऐसी बन रही है कि लोकतंत्र का अनुपालन ही लोक-कल्याण में बाधा उत्पन्न कर रहा है! बजट तो पूरे देश का होता है. उसको क्या कुछ प्रदेशों के विधानसभा चुनावों से जोड़ना उचित होगा? यह निर्णय भी आचार संहिता ही करेगी.

 

 


चुनाव आयोग का सरकारों को घोषणाएं करने के लिए एक समय-सीमा देना भी अतार्किक लगता है. अमूमन सभी को पता होता है कि कब चुनाव होने हैं और संभावित तिथियों का आकलन आसानी से हो जाता है. नतीजतन अधिसूचना की संभावित घोषणा से पहले सरकारें जम कर चुनावी फायदे के लिए लोक-लुभावनी घोषणाएं करती है. आदर्श आचार संहिता का जम कर मखौल उड़ता है. फिर जिस दिन घोषणा होती है, यह मान लिया जाता है कि अब सब ठीक और निष्पक्ष हो गया. क्या मतदाता की याद्दाश्त इतनी कमजोर है?

 

 


सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि सरकारी आचार संहिता लागू होते ही राजनीतिक अनाचार का दौर शुरू हो जाता है. दल-बदल, गाली-गलौज, कालेधन का चुनाव प्रचार में प्रयोग का प्रयास, यह सब धड़ल्ले से होने लगता है. आचार संहिता खर्चे और कानून व्यवस्था पर तो नियंत्रण कर लेती है, पर राजनीतिक और वैयक्तिक आदर्श पर इसका भी बस नहीं चलता. चुनावों की घोषणा के साथ ही जैसे इंसानी फितरत अपने रंग दिखाने लगती है.

 

 


आपसी स्वार्थ के चलते कल के दुश्मन भी दोस्त बन जाते हैं और दोस्त दुश्मन. एक-दूसरे को गाली देनेवाले सत्ता की खातिर एक-दूसरे के गले लग जाते हैं. बेटा पिता को आंख दिखाता है, पिता बेटे को कोसता है. आपसी संबंध तार-तार होने लगते हैं. हर बात पर पते की बात कहनेवाले सिद्धू भाजपा का दामन छोड़ आप में संभावना तलाशते हैं और गोटी फिट न होने पर खुद को जन्म से कांग्रेसी घोषित कर देते हैं! वहीं ‘पार्टी विद ए डिफरेंस' वोट गणित के चक्कर में सब डिफरेंस भूल कर कांग्रेसी, सपाई, बसपाई अदि उन सभी को गले लगाती है, जिस पर कभी उसने ही भ्रष्टाचार और गुंडागर्दी के आरोप लगाये हों. सब कुछ भुला दिया जाता है. सभी पार्टियों के लिए सिद्धांत, निष्ठा, चरित्र, आदर्श सब ताक पर चले जाते हैं. उद्देश्य रह जाता है तो बस एक- सत्ता!
अब क्या करेगी ‘आचार संहिता'!