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आज का योग किसकी देन-- सतीश पेडणेकर

वैश्वीकरण के इस युग में योग भी वैश्विक बन चुका है। करोड़ों लोग योग की साधना कर रहे हैं। महर्षि पतंजलि को अक्सर योग का जन्मदाता कहा जाता है। उन्हें योगसूत्र या योग दर्शन के रचयिता होने के कारण ऐसा कहना उचित भी है। मगर व्यावहारिक दृष्टि से देखें तो आज का योग पतंजलि का राजयोग नहीं, गोरखनाथ का हठयोग है जो मुख्यत: गोरख या नाथपंथी योगियों का योग है।

 

इसमें आसन और प्राणायाम पर जोर दिया जाता है। पतंजलि ने तो अपने योगसूत्र में ‘स्थिर सुखासनम्' कहने के अलावा कहीं आसन शब्द का उल्लेख तक नहीं किया है, न ही प्राणायाम की कोई विधि बताई है। विभिन्न आसनों की विशद चर्चा की बात तो जाने ही दीजिए। आज प्रचलित आसनों, प्राणायाम और ध्यान की तमाम विधियों का विस्तृत उल्लेख तो नाथपंथियों और विशेषकर गोरखनाथ के ग्रंथों में ही मिलता है।

 

इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि यह भारत की प्राचीन योग परंपरा से हट कर बना नया योग था, वरन नाथपंथियों ने मध्ययुग में हठयोग की साधना का प्रचार-प्रसार किया। उनके ग्रंथों को देख कर पता चलता है कि उन्होंने तब तक आविष्कृत हो चुकी सैकड़ों आसनों की और प्राणायाम की विधियों को संहिताबद्ध किया और योगमार्ग को बहुत ही व्यवस्थित रूप दिया। सारा विश्व जिस आसन, प्राणायाम और ध्यान की साधना कर रहा है वह हठयोग और उसकी विभिन्न शैलियों की देन है। और इस नाथपंथ के सबसे बड़े योगी थे गोरखनाथ। एक जमाने में नाथपंथ का अलख निरंजन का जयकारा देश भर में गूंजा करता था। सद्गुरुजग्गी वासुदेव कहते हैं- ‘‘जब पतंजलि ने योग सूत्र दिया, तो उन्होंने कोई भी विशेष तरीका नहीं बताया। इसमें कोई भी अभ्यास नहीं बताया गया है। उन्होंने तो बस जरूरी सूत्र दे दिए। अब इन सूत्रों से कैसा हार बनाना है, यह अपने आसपास मौजूद लोगों और परिस्थितियों के आधार पर हर गुरु अपने हिसाब से तय कर सकता है।

 

...उन्होंने इन सूत्रों को इस तरह रचा कि ये उन्हीं को समझ आएं जिनको एक खास स्तर का अनुभव है; वरना ये शब्दों के ढेर बनकर रह जाते हैं।'' सूत्रों से हार बनाने का काम गोरखनाथ ने किया। तभी तो तुलसीदास ने कहा है- गोरख जगायो जोग। आदि शंकराचार्य के बाद गोरखनाथ जैसा प्रभावशाली और महिमान्वित महापुरुष दूसरा नहीं हुआ। गोरखनाथ अपने युग के सबसे बड़े नेता थे। भारत के कोने-कोने में उनके अनुयायी आज भी पाए जाते हैं। भक्ति आंदोलन से पहले सबसे शक्तिशाली धार्मिक आंदोलन गोरखनाथ का योगमार्ग था। भारतवर्ष की कोई ऐसी भाषा नहीं जिसमें गोरखनाथ संबंधी कथाएं न पाई जाती हों। उन्होंने न केवल योग के विविध आयामों का आविष्कार किया वरन प्राचीन योगमार्ग को सुव्यवस्थित भी किया। इतना ही नहीं, सारे देश में उसका व्यापक प्रचार-प्रसार किया।

 

आज उनका योग भले ही ‘योगा' बन गया हो, मगर वह सारे विश्व में अपनी विजय पताका फहरा रहा है। गोरखनाथ से पहले चौरासी सिद्धों का तांत्रिक वज्रयान प्रचलित था जिसे उन्होंने सात्विक हठयोग में परिवर्तित किया। नाथपंथ के नवनाथ देश भर में प्रसिद्ध रहे हैं। गोरखनाथ का आसन, प्राणायाम और ध्यान की तमाम विधियों पर आधारित हठयोग और उसकी विभिन्न शैलियां आज का योग हैं। योग की यह पद्धति ही आज दुनिया भर में मशहूर हो रही है। उसका वर्णन गोरखनाथ और उनके नाम से प्रचलित ग्रंथों में ही पाया जाता है। वहीं से हठयोग देश भर में दसवीं शताब्दी के बाद लोकप्रिय हुआ था। लेकिन बाद की सदियों में लुप्तप्राय हो गया था।

 

आधुनिक समय में मनुष्य को जब शरीर और मन की शांति के जरिये समग्र स्वास्थ्य में योग की उपयोगिता और उसकी इलाज की क्षमता का पता चला तब दुनिया भर के करोड़ों लोग इसे अपनाने लगे। गोरखनाथ और नाथपंथियों के हठयोग के बारे में साहित्य को पढ़ कर लगता है कि उन्होंने आसान, प्राणायाम और ध्यान विधियों को लेकर अनेक प्रयोग किए। ओशो ने गोरख वाणी पर अपनी पुस्तक ‘मरौ ही जोगी मरौ' में कहा है- ‘‘गोरख ने जितना आविष्कार किया मनुष्य के भीतर अंतर-खोज के लिए उतना शायद किसी ने नहीं किया है।

 

उन्होंने इतनी विधियां दीं कि अगर विधियों के हिसाब से सोचा जाए तो गोरख सबसे बड़े आविष्कारक हैं। इतने द्वार तोड़े मनुष्य के अंतरतम में जानने के लिए, इतने द्वार तोड़े कि लोग द्वारों में उलझ गए। इसलिए हमारे पास एक शब्द चल पड़ा है- गोरख को तो लोग भूल गए- गोरखधंधा शब्द चल पड़ा। उन्होंने इतनी विधियां दीं कि लोग उलझ गए कि कौन-सी ठीक, कौन-सी गलत, कौन-सी करें, कौन-सी छोड़ें? उन्होंने इतने मार्ग दिए कि लोग किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। इसलिए गोरखधंधा शब्द बन गया। अब कोई किसी चीज में उलझा हो तो हम कहते हैं किस गोरखधंधे में उलझे हो।''

 

दुर्भाग्यवश इस महायोगी के बारे में ऐतिहासिक जानकारी बहुत कम उपलब्ध है। उनके बारे में जो किंवदंतियां हैं वे उनके द्वारा प्रवर्तित योगमार्ग के महत्त्व-प्रचार के अलावा और किसी बात पर कोई विशेष प्रकाश नहीं डालतीं। गोरखनाथ के नाम पर बहुत-से ग्रंथ चलते हैं। इनमें से कई तो उनके बाद के समय के और कई संदेहास्पद हैं। कुल मिलाकर इतना कहा जा सकता है गोरखनाथ की पुस्तकें परिवर्तित-परिवर्धित और विकृत होती हुई आज तक चली आ रही हैं। उनमें कुछ न कुछ तो गोरख वाणी जरूर रह गई है। पर सभी की सभी प्रामाणिक नहीं हैं। गोरखनाथ ने जिस हठयोग का उपदेश दिया वह पुरानी परंपरा से अधिक भिन्न नहीं है। शास्त्रों में हठयोग को सामान्य तौर पर प्राण निरोध साधना माना गया है।

 

सिद्ध सिद्धांत पद्धति में ह का अर्थ सूर्य बताया गया है, ठ का अर्थ चंद्र। सूर्य और चंद्र के योग को हठयोग कहते हैं। इसकी व्याख्याएं कई और तरीके से भी की जाती हैं। एक- सूर्य का तात्पर्य प्राणवायु से है, और चंद्र का अपान वायु से; इन दोनों का योग अर्थात प्राणायाम से वायु का निरोध करना ही हठयोग है। एक और व्याख्या- सूर्य इड़ा नाड़ी को कहते हैं, चंद्र्र पिंगला को, इसलिए इड़ा-पिंगला नाड़ियों को रोक कर सुषुम्ना मार्ग से ही प्राणवायु को प्रवाहित करना हठयोग है। गोरक्षनाथ के नाम से बहुत-सी पुस्तकें संस्कृत में मिलती हैं और अनेक आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी चलती हैं। निम्नलिखित संस्कृत पुस्तकें गोरखनाथ की लिखी बताई गई हैं- अवरोधशासनम्, अवधूत गीता, गोरक्षकाल, गोरक्ष गीता, गोरक्ष चिकित्सा, गोरक्षशतक, गोरक्षसंहिता, नाड़ीज्ञान प्रदीपिका, योगचिन्तामणि, हठयोग, हठ संहिता। इनमें कई पुस्तकों के गोरख-लिखित होने में संदेह है।

 

हिंदी में सब मिलाकर चालीस छोटी-बड़ी रचनाएं गोरखनाथ की कही जाती हैं, जिनकी प्रामाणिकता असंदिग्ध नहीं है। गोरक्षमत के योग को पंतजलि वर्णित ‘अष्टांगयोग' से भिन्न बताने के लिए ‘षडंग योग' कहते हैं। इसमें योग के केवल छह अंगों का महत्त्व है। प्रथम दो अर्थात यम और नियम इसमें गौण हैं। इसका साधनापक्ष हठयोग कहा जाता है। शरीर में प्राण और अपान, सूर्य और चंद्र नामक जो बहिर्मुखी और अंतर्मुखी शक्तियां हैं, उनको प्राणायाम, आसन, बंध आदि के द्वारा सामरस्य में लाने से सहज समाधि सिद्ध होती है। जो कुछ पिंड में है, वही ब्रह्मांड में भी है। इसीलिए हठयोग की साधना पिंड या शरीर को ही केंद्र बना कर ब्रह्मांड में क्रियाशील शक्ति को प्राप्त करने का प्रयास है। गोरक्षनाथ के नाम पर चलने वाले ग्रंथों में विशेष रूप से इस साधना प्रक्रिया का ही विस्तार है। यही हठयोग और उसकी विभिन्न आधुनिक शैलियां ही आज सारी दुनिया को प्रभावित किए हुए हैं। (सतीश पेडणेकर)