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आज के समय में इन आवाजों को भी सुनें

बीसवीं सदी के अंतिम दशक से भारत में जो विकासराग आरंभ हुआ, उसकी कुछ अस्फुट ध्वनियां राजीव गांधी के कार्यकाल में 1986 से सुनी जा सकती हैं. अंतिम दशक में जो विकास-दृष्टि, नीति बनी, वह 25 वर्ष में कहीं अधिक शक्तिशाली हो चुकी है. इस राग ने सभी रागों को सुला दिया है. आकर्षक, लुभावने मुहावरों और शब्दजाल का जो सिलसिला डेढ़ वर्ष से जारी है, उसने हमारी चिंतन-प्रक्रिया को भी प्रभावित किया है. पूंजी की महिमा गायी जा रही है और पूंजी निवेश के लिए सारे दरवाजे खोल दिये गये हैं. भारत का विकास पूंजी निवेश के बिना असंभव है, यह धारणा सुदृढ़ हो चुकी है.

पूंजी की चाल, गति और करनी पर हमारा ध्यान कम है. पूंजी के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि वह सर्वत्र है. वह ईश्वर है, ब्रह्म है. ज्ञान की, विचार की जो कभी पूंजी हुआ करती थी, वह नष्ट हो रही है. भारत का भविष्य दूसरों के हाथों में है. अर्थ अपनी अनर्थकारी भूमिका में है. होड़ इसकी है कि कौन अपने जीवन में कितना अर्थ-संचय करता है, सुखोपभोग करता है. हमने उन आवाजों को सुनना बंद कर दिया है, जिन्होंने पहले ही हमें सावधान किया था. बहरापन बढ़ रहा है. मोतियाबिंद और रतौंधी के हम शिकार हो रहे हैं. न अड़ोस-पड़ोस को देखना चाहते हैं, न उन आवाजों को सुनना चाहते हैं, जो बीसवीं सदी के आरंभ से अब तक शांत नहीं हुई हैं. हमें चेतावनी दे रही हैं.

पहले आज की, अपने समय की उन आवाजों को सुनें, जो कम गूंजती हैं. रोमन कैथोलिक चर्च के 266वें पोप पोप फ्रांसिस (जोर्ग मैरिओ बर्गोग्लियो, 1936) ने उस समय से हमें बार-बार समझाया, जब विश्व में नवउदारवादी अर्थव्यवस्था गति पकड़ रही थी कि पूंजी व पूंजीवाद के हम सब शिकार हो रहे हैं. मार्क्स धार्मिक नहीं थे और न पोप फ्रांसिस मार्क्सवादी. मार्क्स ने जब 'पूंजी' का चित्र-चरित्र प्रस्तुत किया, तब दुनिया में औद्योगिक पूंजी फैल रही थी. पोप फ्रांसिस लफंगी और उड़नछू पूंजी के दौर में उसका चित्र-चरित्र पेश कर रहे हैं. वे मानवाधिकार को केवल आतंक, दमन और हत्या से अतिक्रमित होते नहीं देखते. वे असमानता पैदा करनेवाली अनुचित आर्थिक संरचनाओं से भी मानवाधिकार को अतिक्रमित होते देखते हैं. 90 के दशक से उन्होंने पूंजीवाद की आलोचना की, अमेरिकी पूंजीवाद के प्रभंजन का उल्लेख किया. 1998 की अपनी एक किताब का पूरा अध्याय 'दि लिमिट्स ऑफ कैपिटलिज्म' रखा. इसमें उन्होंने विकास के लिए पूंजीवाद के अच्छा हो सकने की बात कही, पर यह भी समझाया कि यह पूंजीवाद नैतिक व्यवहार को समाप्त कर स्वार्थी व्यवहार को बढ़ाता है. वे लालच और अधिकतम धन के प्रमुख आलोचक रहे हैं. पोप फ्रांसिस की चिंताएं गहरी हैं- 'जब पूंजी देवमूर्ति बन लोकनिर्णयों को संचालित और धनलिप्सा संपूर्ण सामाजिक सत्ता को नियंत्रित करने लगती है, तब यह समाज को बरबाद करती है, स्त्री-पुरुषों पर दोष मढ़ कर उन्हें गुलाम बनाती है और मनुष्यों में आपसी भाईचारे को खत्म कर उन्हें लड़ाती है. यह पृथ्वी को भी संकटग्रस्त करती है.' रीगनोमिक्स, मनमोहनोमिक्स, मोदीनोमिक्स की चर्चा होती है, पर 'फ्रांसिसनोमिक्स' की बात नहीं होती. पिछले 25 वर्ष के भारत के पूंजीपतियों व विश्व के पूंजीपतियों की आर्थिक संवृद्धि देखें और सामान्य जन की स्थिति देखें, तो पाते हैं कि ढाई दशक में आर्थिक संपन्नता और असमानता भयावह हुई है.

आज दुनिया के महज 62 सर्वाधिक संपन्न लोग धरती के आधे संसाधनों के मालिक बन बैठे हैं. इनकी संपत्ति 44 प्रतिशत बढ़ी है और करोड़ों लोगों के धन में इससे कुछ ही कम गिरावट हुई है. यह ट्रेंड खतरे की घंटी है. नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में कल्पनातीत ढंग से संपन्नता और असमानता बढ़ी है. कल्याणकारी राज्य और कॉरपोरेट राज्य में अंतर है. अभी 'विकास' का मतलब कॉरपोरेट का विकास है. बैंक के लाखों करोड़ रुपये कॉरपोरेटरों पर कर्ज हैं, पर वे मजे मेें हैं. गांधीजी ने 'हिंद स्वराज (1908)' में पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता की आलोचना की थी और उसे 'चांडाल सभ्यता' कहा था. भारत ने इसी सभ्यता (यूरोपीय और अमेरिकी) का अनुकरण किया. जिस प्रकार अमेरिका में 10-12 वर्ष के छात्र अपने सहपाठियों की हत्या करते हैं, भारत में भी वह सिलसिला आरंभ हो चुका है. गांधीजी ने 20 के दशक में 'भारत के सामने अपनी आत्मा को खोने के खतरे' की बात कही थी. वे 'कंचन मृग के पीछे दौड़ने का अर्थ आत्मनाश' मान रहे थे. ब्रिटिश भारत में 20-30 के दशक में धनलाेभ से हमें सावधान किया गया था. चिंतक और विचारक, लेखक, कवि, कथाकार, संपादक, आलोचक- सब कंचन-प्रेम की आलोचना कर रहे थे. रामचंद्र शुक्ल ने 'लोभ और प्रीति' निबंध में दोनों में अंतर बताया था. प्रेमचंद 'महाजनी सभ्यता' के कटु आलोचक थे. सब समझते थे कि धन हमारे मानस को बदलता है. चार पुरुषार्थ में उसका स्थान दूसरा था. पहले पर धर्म था, वह भी आज धन के अधीन हो चुका है.

जयशंकर प्रसाद की 'कामायनी' में देहवाद और भोगवाद का विरोध है. देव-सभ्यता के नष्ट होने का प्रमुख कारण यही था. इसी कारण जल-प्रलय हुआ. उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और चेन्नई में पिछले दिनों जो हुआ है, उसके पीछे हमारी विकास नीति है, अर्थलोभ और लिप्सा है. 1935 में (कामायनी का प्रकाशन वर्ष) जितना 'भीषण एकांत स्वार्थ' था, आज उससे हजारों गुना अधिक है. फिरंट पूंजी ने हमारे दिल-दिमाग पर कब्जा जमा रखा है. राजनीतिक संबंध-रिश्ते मात्र दिखावटी हो गये हैं, समाज का ताना-बाना बिखर रहा है. यह सब उस पूंजी का कमाल है, जिसके निवेश के लिए विदेश-यात्राएं हो रही हैं. भारत ने अपनी अस्मिता खो दी है. वह 'डार्क जोन' में प्रवेश कर चुका है. भय, आतंक, अपराध, हिंसा, बलात्कार, हत्या-आत्महत्या सबके तार वैश्विक पूंजी से जुड़े हैं. देश में 80-90 करोड़ लोगों की दयनीय दशा है. धरना, प्रदर्शनों और आंदोलनों पर सत्ता-व्यवस्था ध्यान नहीं दे रही है. न हम पोप फ्रांसिस की आवाज सुन रहे हैं, न गांधी, प्रसाद और निराला की. एक आत्मघाती दौर से देश गुजर रहा है. हम सब शोर में फंसे हुए हैं. नरेंद्र मोदी ने कहा था कि जो 60 वर्ष में नहीं हुआ, उसे वे पांच वर्ष में पूरा कर देंगे. प्रतिदिन नेतागण बोलते हैं, आश्वासन देते हैं, झांसा भी. हमारा सारा ध्यान उसी ओर टंगा रहता है. हमें उन आवाजों को निरंतर सुनना चाहिए, जो वैश्विक पूंजी के विरुद्ध हैं. मनुष्यता, भाईचारे, समाज, नैतिकता और सच्चे प्रेम को बचाने का प्रश्न है, जिनसे हम आंतरिक रूप से समृद्ध होते हैं. बाजार भोग को बढ़ाता है. भोगवादी संस्कृति घातक है. कामायनी में श्रद्धा ने मनु से कहा था- 'औरों को हंसते देखो मनु, हंसो और सुख पाओ/ अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ.'