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आज वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों की दरकार- अनिल प्रकाश जोशी

सर्वोच्च अदालत ने उत्तराखंड में विवादित पनबिजली योजनाओं को निरस्त कर राज्य सरकार और निजी कंपनियों को साफ और सख्त संकेत दिए हैं। अदालत ने अनियमितताओं को गंभीरता से लिया है और स्पष्ट किया है कि पर्यावरण के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता। इस कदम से भागीरथी और अलकनंदा नदी बेसिन वाली 24 परियोजनाओं पर रोक लग गई है।

ऊर्जा आज की जरूरत है, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता। मगर सरकारें ताबड़तोड़ तरीके से जल ऊर्जा के उत्पादन में जुट गईं। असल में ऊर्जा को लेकर हमारे पास कोई स्पष्ट और सार्वभौमिक नीति नहीं है। क्या दुनिया में ऊर्जा के स्रोत सिर्फ जल और कोयला ही हैं? आखिर सरकारें वैकल्पिक स्रोतों पर विचार क्यों नहीं करतीं। मसलन, पहाड़ों में सौर, वायु और जैविक ऊर्जा जैसे छोटे छोटे, मगर ढेरों विकल्प मौजूद हैं। सरकारों को ये विकल्प अव्यावहारिक लगते हैं। वास्तव ऊर्जा नीति स्थानीय जरूरतों और स्रोतों को देखकर बनाई जानी चाहिए। अब शंकर ऊर्जा का जमाना है। इसमें स्थान विशेष की विभिन्न ऊर्जा उत्पादन क्षमताओं को देखकर ही क्षेत्र की ऊर्जा उत्पादन की कार्य योजना बनानी चाहिए।

असल में किसी भी हिमालय राज्य का ऊर्जा नक्शा नहीं बना है। राज्य विशेष के किन-किन संसाधनों से ऊर्जा उत्पादन संभव है और उसके बाद उनका सामूहिक पर्यावरण आकलन कर ही ऊर्जा योजना तैयार की जानी चाहिए। पूरा हिमालय सौर, जैविक व वायु ऊर्जा की संभावनाओं से भरा पड़ा है। पर हमारे पास रोडमैप नहीं है। बस जल विद्युत संभावनाओं के पीछे पड़कर आज और अपना कल बरबाद करने में तुले है।

असल में जलविद्युत परियोजनाओं के पर्यावरणीय असर घातक हैं। जितनी बड़ी योजना उतना बड़ा नुकसान। यह इन योजनाओं का सीधा समीकरण है। इसीलिए जलविद्युत योजना जितनी छोटी होगी, पारिस्थितिकीय जोखिम उतना कम होगा। पर अर्थशास्त्र बड़ी योजनाओं को लाभप्रद मानते हुए छोटे के पक्ष में नही रहता। यह भी सच है कि बड़ी योजना में साठगांठ और भ्रष्टाचार भी बड़ा होता है।

आर्थिक रूप से सबल ये बड़ी योजनाएं तत्काल रूप से असरदार तो होती हैं, पर पारिस्थितिकीय रूप से भविष्य के लिए घातक हैं। छोटे आकार की योजनाएं ही पर्यावरणीय दृष्टि से सही हैं। मुख्य नदियों को न छेड़ते हुए छोटे गदेरे ही योजनाओं के केंद्र में होने चाहिए। साथ ही राज्य का अपना ग्रिड हो, ताकि छोटे-छोटे उत्पादन को एक ही ग्रिड में डालकर बड़ी योजनाओं की बराबरी की जा सके। समय आ गया है कि सरकार बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं से परहेज करे, खास तौर से तब, जब एक के बाद एक त्रासदी हमें गर्त में ले जा रही हो।

दूसरा बड़ा सवाल यह है कि जलविद्युत योजनाओं का स्थानीय लाभ क्या है। मात्र कुछ रेत, बजरी, सीमेंट और निर्माण के ठेके को अगर सरकार स्थानीय रोजगारों से जोड़कर देखने की कोशिश करती है, तो यह धोखा है। अगर इन योजनाओं से बड़ा व स्थायी रोजगार जोड़ना है, तो उन बेरोजगारों से जुड़े, जिन्हें सरकारी शिक्षण संस्थानों ने आईटीआई, पॉलिटेक्निक डिग्री देकर सड़क पर छोड़ रखा है। आखिर ये बेरोजगार इन योजनाओं को चलाने का काम क्यों नही कर सकते? मगर इसके लिए मजबूत इच्छाशक्ति की जरूरत है।