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आत्मनिर्भरता के लिए हो महिला रोजगार--- जयश्री सेनगुप्ता

आज युवा बेरोजगारी की बात तो लगभग हर कोई करता है लेकिन महिला रोजगार की बात बहुत कम लोग ही करते हैं। महिलाओं को काम के लिए प्रेरित करने के तो कई तरीके हैं। यह बात उनके अपने लिए भी बहुत फायदेमंद रहेगी और उनके परिवार के लिए भी। हाल ही में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने ध्यान केंद्रित करने के लिए जिन 10 क्षेत्रों की रूपरेखा तय की तब उसमें भी महिला रोजगार एक अलग विषय के रूप में नज़र नहीं आया। दरअसल श्रमिक वर्ग में महिलाओं की भागीदारी में भारी गिरावट आ गई है। नेशनल सैंपल सर्वे (68वां दौर) के 2011-12 के अनुमान के मुताबिक श्रमिक वर्ग भागीदारी की दर 25.51 प्रतिशत थी। ग्रामीण क्षेत्रों में यह सिर्फ 24.8 प्रतिशत तथा शहरी क्षेत्रों में 14.7 प्रतिशत थी। विश्व बैंक के ताजा आंकड़ों के मुताबिक 2016 में एलएफपीआर 27 प्रतिशत थी। आज के संकुचित श्रम बाजार में महिलाओं को नौकरियां नहीं मिल रही हैं। एक पुरुष ज्यादा घंटे काम कर सकता है, उसे मातृत्व अवकाश नहीं चाहिए और उसे दौरे पर बाहर भेजना भी सुरक्षित है। जहां तक निर्माण कार्यों की बात है तो इसमें महिला वर्करों के लिए क्रेच की सुविधा उपलब्ध करवाना अनिवार्य है।


भारत में श्रमिक वर्ग में महिलाओं की भागीदारी कम क्यों हुई और दक्षिण एशिया के देशों में यह पाकिस्तान के बाद सबसे कम क्यों है, इसके कई कारण हैं। भारत के सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में महिलाओं का योगदान सिर्फ 17 प्रतिशत है, जो कि दुनियाभर के औसतन 37 प्रतिशत के मुकाबले आधे से भी कम है। जैसे कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रमुख क्रिस्टीन लागार्डे के मुताबिक ‘भारत की जीडीपी में महिलाओं की भूमिका 27 प्रतिशत के ऊपर हो जायेगी, बशर्ते श्रमशक्ति में और अधिक महिलाएं भागीदारी करें।'


भारत में खेती संबंधी तथा खेती से इतर नौकरियों की कमी ही ग्रामीण श्रमशक्ति में महिलाओं की कम भागीदारी के लिए मुख्य तौर पर जिम्मेदार है, क्योंकि कृषि उत्पादन में कमी आ जाने के कारण खेती के क्षेत्र में नौकरियां भी कम हो गई हैं। खेती में मशीनों के बढ़ते इस्तेमाल के कारण बेरोजगार हुए पुरुष तो हालांकि उत्पादन तथा सर्विस उद्योग में नौकरियां पा सकते हैं लेकिन महिलाओं के लिए ऐसे अवसर कम हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों की देखभाल के चक्कर में कई महिलाएं काम छोड़ देती हैं। इस संख्या में कमी की वजह 15 से 24 साल के आयु वर्ग में लड़कियों के लिए पढ़ाई के सुअवसर तथा अच्छी पारिवारिक आमदन को भी ठहराया जा सकता है।


ग्रामीण इलाकों में लड़कियों को बिना पहरे के दूरदराज में काम करने अथवा पढ़ने जाने भी नहीं दिया जाता है। चीन में साधारणत: ग्रामीण क्षेत्रों की लड़कियां तब तक फैक्टरियों में काम करती हैं और होस्टल में रहती हैं जब तक कि वे शादी करने और घर बसाने से पूर्व इतना पैसा नहीं कमा लेती हैं कि वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जायें। भारत में महिला कामगारों के लिए होस्टल और शयनागार आमतौर से सुलभ नहीं हो पाते हैं। मनरेगा के कारण भी गांवों में महिलाओं की मजदूरी तथा परिवार की आमदन में बढ़ोतरी हुई है, जिस कारण वे श्रमिक वर्ग से हट गई हैं। उत्तर भारत के कई गांवों में महिला के घर में ही रहने की स्थिति में उसका अपना तथा परिवार का दर्जा बढ़ा हुआ माना जाता है।


शहरों में भी कॉलेज तक पढ़ी-लिखी दो-तिहाई महिलाएं नौकरी के बिना हैं। पति की बढ़ती खुशहाली के चलते भी कई महिलाएं काम करना पसंद नहीं करती हैं। नयी दिल्ली के अमीर इलाकों में क्लब तथा रेस्टोरेंट ‘किटी पार्टियां' करती महिलाओं से भरे देखे जा सकते हैं। इनमें से अधिकतर दिल्ली के समाज के ऊपरी वर्ग से संबंधित होती हैं। कई महिलाएं ऐसी भी हैं, जो कि काम तो करना चाहती हैं लेकिन उन्हें उनके मुनासिब नौकरी मिल नहीं पाती है। उनकी अभिप्रेरणा भी कमजोर ही रहती है क्योंकि ये तो मुख्यत: पति से मिलती है तथा महिलाओं को परिवार की मदद करने के लिए पैसा कमाना जरूरी नहीं रहता है।


लेकिन अगर लाखों महिलाएं पैसा कमाती हैं तो इससे न केवल उन्हें वास्तव में फायदा होगा बल्कि उनका आत्म-सम्मान भी बढ़ेगा, अन्यथा वे तो घर में सारा दिन काम में लगी रहती हैं और इसके बदले में उन्हें कोई पैसा भी नहीं मिलता है। महिला के काम पर जाने से जहां वह परिवार की आय में इजाफा करने में मदद दे पायेगी, वहीं घरेलू फैसलों में उसका अधिक प्रभाव रहेगा। अगर मां काम करती है तो इससे बच्चों के स्वास्थ्य, आहार तथा शिक्षा में भी सुधार होगा।
एकल परिवारों के बढ़ते चलन के कारण भी महिलाओं को नौकरी छोड़नी पड़ रही है क्योंकि इसमें पति की तरफ से भी मदद की कमी रहती है। आर्थिक सहयोग एवं विकास नामक एक संगठन की 2012 की रिपोर्ट के मुताबिक पुरुष घरेलू कामों में कोई बहुत ज्यादा मदद नहीं करते हैं। लिंग के आधार पर घरेलू काम की बात करें तो भारत में इस मामले में महिलाओं तथा पुरुषों के बीच भारी अंतर है। भारत में जहां एक महिला अवैतनिक काम में जहां हर रोज औसतन 351.9 मिनट खपा देती है वहीं ऐसे कामों में पुरुष केवल 51.8 मिनट ही खर्च करते हैं।


भारत में महिलाओं की संख्या देश की आबादी का करीब-करीब आधा हैं। विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक अगर काम में महिलाओं की भागीदारी बढ़ती है तो इससे भारत को नि:सदेह बहुत फायदा होगा और इससे गरीबी भी तेजी से कम होगी। काम की अवधारणा के नारीकरण के मुताबिक भारत में जो कुछ घट रहा है उसमें बड़ी समानता है- श्रमशक्ति में महिला की भागीदारी यू-आकार की है क्योंकि पहले यह कम होती है और फिर काम को लेकर लांछन कम हो जाते हैं तो महिलाओं की भागीदारी में दोबारा इजाफा हो जाता है। कमी की वजह शिक्षा तथा पति की शिक्षा है, जो कि महिलाओं को तुच्छ तथा अरुचिकर नौकरी छोड़ने में समर्थ बनाती है। फिर बेहतर निपुण ट्रेनिंग, शिक्षा, कम जन्म दर तथा उच्च वेतन के प्रलोभन के चलते वे दोबारा ऐसा काम करने लग जाती हैं जहां कि नौकरी का दर्जा ऊंचा होता है। क्या भारत में ऐसा हो रहा है? नहीं।


महिलाओं के एक अंतराल के बाद श्रम शक्ति में वापसी के लिए हमें उनके लिए नौकरी के ज्यादा मौके पैदा करने होंगे, विशेषकर गारमेंट्स एवं टेक्सटाइल, चमड़ा, हस्तशिल्प, शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवा जैसे उद्योगों में। उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाओं को कॉरपोरेट तथा अधिक विशेषज्ञता वाली नौकरियों के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। कार्यस्थल पर महिलाओं को पेश आने वाली समस्याओं का निपटारा हर हाल में किया जाना चाहिए, क्योंकि उन्हें दफ्तरों में पुरुष प्रधान पदक्रम, यौन प्रताड़ना आदि का सामना करना पड़ता है। उनके लिए दफ्तर में अलग शौचालय जैसी उचित सुविधाएं भी होनी चाहिए। खेतों में भी महिलाओं द्वारा उनके लिए विशेष रूप से तैयार की गई मशीनरी का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। उनके लिए परिवहन के भी अच्छे तथा भरोसेमंद साधन उपलब्ध होने चाहिएं ताकि वे खुद द्वारा अपने घरों में तैयार खाद्यान्न तथा हस्तशिल्प जैसे उत्पादों को बेचने के लिए शहरों में आसानी से आ-जा सकें। स्वरोजगार प्राप्त ग्रामीण महिलाओं को अपने उत्पादों के विपणन के लिए सूक्ष्म-पूंजी तथा संस्थागत मदद की जरूरत रहती है। महिलाओं का कामकाजी होना हर दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है।

(लेखिका सामाजिक-आर्थिक विषयों की जानकार हैं।)