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आत्महत्या से बड़ा अपराध नहीं-- आशुतोष चतुर्वेदी

मेरा मानना है कि आत्महत्या और उसमें भी सामूहिक आत्महत्या से बड़ा कोई अपराध नहीं है. पिछले दिनों सामूहिक आत्महत्या की कई घटनाएं सामने आयीं, जो चिंतित करती हैं. इनमें से अधिकांश मामले आर्थिक परेशानियों से जुड़े हुए थे. रांची में आर्थिक तंगी से परेशान दो सगे भाइयों दीपक कुमार झा और रूपेश कुमार झा ने पहले परिवार के पांच सदस्यों की हत्या कर दी और फिर दोनों ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली.

जिनकी हत्या हुई, उनमें दीपक झा की पत्नी सोना देवी, 15 माह को बेटा जंगु, छह वर्षीय बेटी दृष्टि के अलावा पिता 65 वर्षीय सच्चिदानंद झा और 60 वर्षीया मां गायत्री देवी शामिल हैं. आत्महत्या की इस घटना ने पूरे रांची को स्तब्ध कर दिया. पुलिस को घर से सुसाइड नोट मिला, जिससे यह स्पष्ट हो पाया कि इतने लोगों की क्यों जान गयी.

जो जानकारी मिली, उसके अनुसार, दीपक झा का परिवार कर्ज में डूबा था. करीब छह महीने से मकान का किराया भी नहीं दे पा रहा था. दीपक परिवार का इकलौता कमाऊ सदस्य था. बताते हैं कि दीपक के बेटे के इलाज पर 20 लाख रुपये खर्च हो गये थे और अब भी उसका इलाज चल रहा था, बेटा भी ठीक नहीं हुआ और कर्ज भी बढ़ गया. दीपक एक फैक्टरी भी लगाने का प्रयास कर रहा था.

उसके लिए भी उसने कुछ कर्ज ले रखा था. दीपक के कर्ज के कारण चिंतित रहता था. काफी कोशिशों के बावजूद पैसों का इंतजाम नहीं हो पाया, इससे निराश होकर दीपक झा ने सामूहिक आत्महत्या की योजना बनायी, लेकिन इसमें मासूम बच्चों और बूढ़े माता-पिता का कुसूर क्या था? उनसे जीने का अधिकार छीनने से बड़ा अपराध और क्या हो सकता है. इसके पहले झारखंड के हजारीबाग में एक ही परिवार के छह लोगों ने सामूहिक रूप से आत्महत्या कर ली थी. बताया जा रहा है कि यह परिवार भी कर्ज में दबा हुआ था.

पुलिस को मौके से सुसाइड नोट भी मिला था . इस मामले की जांच अब भी जारी है. देश की राजधानी दिल्ली में एक ही परिवार के 11 लोगों ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी. हालांकि आर्थिक रूप से मजबूत इस परिवार के ऐसा करने की क्या वजह थी, यह अब भी रहस्य बना हुआ है. इसी तरह का मामला मुंबई में सामने आया, जहां एक परिवार के सभी सदस्यों ने खुदकुशी करने की कोशिश की थी.

हमारे पूर्वजों ने वर्षों के अध्ययन और मनन के बाद एक बात कही थी, तेते पांव पसारिये, जेती लांबी सौर. जितनी लंबी चादर है, उतने ही पैर फैलाएं, लेकिन हम इस जीवन दर्शन को भूल गये और आर्थिक चकाचौंध में फंस गये हैं. यह सही है कि बाजार की भोगवादी आर्थिक प्रवृत्तियों का संबंध कहीं-न-कहीं हमारी आर्थिक नीतियों से है, जिनके कारण हमारा जीवन दर्शन बदल गया है.

हमारी लालसा बेलगाम हो गयी है. विदेश से पूंजी निवेश आयेगा, तो उसके साथ खानपान, पहनावे और विदेशी संस्कृति को आने से कोई रोक नहीं सकता. सांस्कृतिक बदलाव किस तरह आता है, उसका एक उदाहरण देना चाहूंगा. वर्षों पहले बीबीसी लंदन में काम करने का मुझे प्रस्ताव मिला. मेरे पिता का जल्दी निधन हो गया था और मेरी मां मेरे साथ रहती हैं और मुझ पर आश्रित हैं. मैंने बीबीसी के मानव संसाधन विभाग से अनुरोध किया कि पत्नी और बच्चों की तरह मां को भी आश्रित माना जाए, तो विभाग का जवाब था कि पश्चिम में परिवार की परिभाषा होती है, पति-पत्नी और 18 साल के कम उम्र के बच्चे. माता-पिता और 18 साल से अधिक के बच्चे परिवार का हिस्सा नहीं माने जाते हैं.

यह भारतीय परंपरा के एकदम उलट है. आप गौर करें कि भारत में जिन विदेशी इंश्योरेंस कंपनियां ने पूंजी निवेश किया है, उन्होंने भारतीय परिवार की परिभाषा को ही बदल दिया है. इसमें माता-पिता परिवार का हिस्सा नहीं हैं. कुछेक ने तो इसमें बस इतना परिवर्तन किया है कि 18 साल के स्थान पर आश्रित बच्चे की उम्र 21 तक कर दी है.

कहने का आशय यह कि जितनी चादर है, उतने ही पैर फैलाएं जैसे चिंतन को भूलकर अब हम उधार लेकर घी पीने के पश्चिमी चिंतन के मायाजाल में फंस गये हैं. जाहिर है कि ऐसी परिस्थिति में जीवन में ऐसे अनेक अवसर आयेंगे, जब व्यक्ति आर्थिक कारणों से तनाव का शिकार होगा.

इसका एक दूसरा पक्ष भी है. खेती-किसानी में संकट व्यापक है और इसकी चपेट में अनेक राज्यों के किसान आ गये हैं. यही वजह है कि आर्थिक कारणों से अब तक सैकड़ों किसान आत्महत्या कर चुके हैं. किसानों की आत्महत्या का सिलसिला अब थोड़ा थमा है, लेकिन अब भी बीच-बीच में ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं सामने आ जाती हैं. दरअसल, अवसाद और आत्महत्याएं नये दौर की महामारी के रूप में उभरकर सामने आ रहा है. किसी भी समाज के लिए यह बेहद चिंताजनक स्थिति है.

कोई शख्स आत्महत्या को आखिरी विकल्प क्यों मान रहा है? विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग पांच करोड़ लोग अवसाद पीड़ित हैं. इनमें से ही अनेक लोग आत्महत्या जैसा रास्ता चुन लेते हैं. ऐसा नहीं है कि केवल निराशा और अवसाद से पीड़ित भारत में ही हों. अमेरिका में सबसे अधिक लोग अवसाद से पीड़ित हैं.

इसके बाद जापान, नाइजीरिया और चीन का नंबर आता है, लेकिन चिंताजनक बात यह है कि पीड़ित लोगों में से केवल आधे लोगों का इलाज हो पाता है. आत्महत्या के आंकड़े और भी चौंकाने वाले हैं. दुनिया में हर 40 सेकेंड में एक शख्स आत्महत्या कर लेता है. हालांकि दुनियाभर में आत्महत्या की दर में कमी आयी है, लेकिन भारत में स्थिति चिंताजनक है और आत्महत्या की दर में इजाफा हुआ है.

ऐसा नहीं है कि लोग आत्महत्या सिर्फ आर्थिक परेशानियों के कारण ही करते हों, अन्य सामाजिक कारणों से भी लोग अपनी जान दे देते हैं. मौजूदा दौर की गलाकाट प्रतिस्पर्धा के कारण लोगों को जीवन में भारी मानसिक दबाव का सामना करना पड़ता है और वे अवसाद में चले जाते हैं.

यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि परीक्षा अथवा प्रेम में असफल होने, नौकरी छूटने अथवा बीमारी जैसी छोटी-छोटी वजहों से भी लोग आत्महत्या कर लेते हैं. सबसे बड़ी समस्या यह है कि भारत में अवसाद को बीमारी नहीं माना जाता. इलाज तो दूर, पीड़ित की मदद करने के बजाय लोग उसका उपहास उड़ाते हैं. कई बार तो पढ़े-लिखे लोग भी झाड़-फूंक के चक्कर में फंस जाते हैं.

दरअसल, भारत में परंपरागत परिवार का तानाबाना टूटता जा रहा है. व्यक्ति एकाकी हो गया है और नयी व्यवस्था में उसे आर्थिक और सामाजिक सहारा नहीं मिल पाता है, जबकि कठिन वक्त में उसे इसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है. यही वजह है कि अनेक लोग अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं और आत्महत्या जैसे अतिरेक कदम उठा लेते हैं.