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आदिवासियों की आवाज थे जयपाल सिंह मुंडा-- अनुज कुमार सिन्हा

तीन जनवरी यानी जयपाल सिंह मुंडा का जन्म दिन. उस नेता का, जिसने न सिर्फ झारखंड आंदोलन को पहली बार एक स्वरूप दिया, बल्कि संविधान-सभा में भी पूरे देश के आदिव़ासियों का प्रतिनिधित्व करते हुए उनके हक के लिए संविधान में व्यवस्था करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. एक अच्छे और प्रभावशाली वक्ता होने के साथ-साथ वे वक्त को पहचानते थे. संगठन बनाने की कला उनमें थी. 


20 साल बाहर रहने के बाद जयपाल सिंह 19 जनवरी 1939 को ट्रेन से रांची आये थे. 20 जनवरी से महासभा का आयोजन किया गया था. एक उत्सव का माहौल था. एक साल से इस महासभा की तैयारी चल रही थी.

आंदोलन को एक नया और प्रभावशाली नेता मिल रहा था. इस महासभा के लिए गांव-गांव में नोटिस भेजा गया था. यह सभा हरमू नदी के किनारे मैदान में (संभवत: अभी का खेत मुहल्ला) हुआ था. थियोडोर सुरीन की अध्यक्षता में स्वागत समिति बनी थी. इसमें बंदी उरांव, पॉल दयाल, जोसेफ तोपनो, थेयोफिल कुजूर, ठेबले उरांव आदि थे. इस महासभा में कई ऐसी बातें हुई थीं जो आज भी राजनीति करनेवालों की आंख खोल सकती है. आज से 75 वर्ष पहले इतनी सुव्यवस्थित सभा की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था.


सभा में आनेवालों को हिदायत दी गयी थी कि वे अपने साथ गांव से झंडा और बाजा लेकर आयें, साथ में एक आना पैसा (सदस्य शुल्क) भी. यह भी हिदायत दी गयी थी कि आनेवाले अपने खाने का खर्च खुद उठायेंगे. महासभा में भीड़ होगी, इसलिए हर थाना क्षेत्र के लोग अपने साथियों का हिसाब सचिव को देंगे. ऐसी तैयारी आज भी नहीं दिखती. आज बड़ी-बड़ी रैलियां होती हैं, आनेवालों से शुल्क तो नहीं ही लिया जाता बल्कि ढो कर लाया जाता है, खाने-पीने की व्यवस्था की जाती है. उन दिनों की राजनीति बिल्कुल अलग थी.


एक समर्पण, जुड़ाव की राजनीति. यही कारण था कि जयपाल सिंह को सुनने के लिए दो-तीन दिन पैदल चल कर रांची के अलावा गुमला, लोहरदगा, हजारीबाग, सिमडेगा से भी आदिवासी खाना बांध कर पैदल आये थे. महिलाओं को खास जिम्मेवारी दी गयी थी. रात-दिन जग कर महिलाओं ने लगभग 25 हजार बैज और झंडा-माला तैयार किया था. यह जयपाल सिंह के प्रति विश्वास का उदाहरण है.


महासभा के अंतिम दिन जयपाल सिंह ने जब लोगों से आंदोलन के लिए दान देने की अपील की थी तो जिस आदिवासी के पास जो कुछ था, दान में देने लगा. यहां तक कि पेंसिल, गुलबंद और घड़ी भी दान में मिली. आंदोलन के लिए पैसे की जरूरत थी. जयपाल सिंह ने पेंसिल, गुलबंद और घड़ी को सभा स्थल पर नीलाम करने की घोषणा की. पेंसिल और गुलबंद के 50-50 रुपये मिले जबकि घड़ी 21 रुपये में बिकी. उन दिनों यह बड़ी राशि थी.


महासभा के खत्म होने के बाद जयपाल सिंह ने धन्यवाद देने के लिए खूंटी, मुरहू, चाइबासा और टाटानगर का दौरा किया. उन्हें फूल-मालाओं से लाद दिया गया. जयपाल सिंह ने उन मालाओं को भी नीलाम कर 600 रुपये जमा किये और उससे आंदोलन को आगे बढ़ाया. जयपाल सिंह का क्रेज इतना बढ़ गया था कि उनके गले की माला को नीलामी में खरीदने के लिए भी होड़ लगी थी. यह उनकी लोकप्रियता और दूरदर्शिता को बताता है.


आज की राजनीति में चुनाव के वक्त टिकट बांटने को लेकर आरोप लगते हैं. बगैर जमीनी हकीकत जाने दिल्ली या पार्टी के दफ्तर में बैठ कर टिकट बांटा जाता है. जयपाल सिंह इसके पक्ष में नहीं रहते थे. यही कारण है कि 1952 और 1957 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी (झारखंड पार्टी) को बड़ी सफलता मिली थी. खुद पूरी टीम के साथ विधानसभा क्षेत्र में जाते थे.


वहां बैठक कर लोगों से उनकी राय लेते, यह देखते कि कौन चुनाव जीत सकता है, फिर उसी जगह यह घोषणा कर देते कि कौन चुनाव लड़ेगा. 1952 के चुनाव में पटमदा से कैलाश प्रसाद और चक्रधरपुर से सुखदेव माझी को टिकट देना इसी का उदाहरण है.