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आदिवासी अस्मिता का सवाल-- डा. अनुज लुगुन

आज दुनिया की कई भाषाएं मरने के कगार पर इसलिए खड़ी हैं, क्योंकि वैश्विक दुनिया के मानकों के अनुसार वे लाभकारी नहीं हैं. वैश्वीकरण के मुनाफे की इस प्रवृत्ति ने भाषाओं के बीच जो दूरी पैदा की है, वह पहले कभी नहीं थी. पहले भी भाषाएं मरती रही हैं, लेकिन उसके कारण के रूप में मुनाफे वाली मानसिकता नहीं रही है.

भाषाओं का यह संकट सामान्य रूप से भी रेखांकित किया जा सकता है और विशेष रूप से भी. लेकिन मैं यहां इस संकट को विशेष संदर्भ में यानी आदिवासी समाज के संदर्भ में रेखांकित करूंगा, क्योंकि संसाधनों पर नियंत्रण की वजह से वैश्वीकरण का दोहरा हमला आदिवासी जीवन पर हुआ है.

वैश्वीकरण ने दुनिया भर में विस्थापन की जिस अमानवीय प्रक्रिया को तेज किया है, उससे आदिवासी समाज सांस्कृतिक अजनबीपन की स्थिति में है. आदिवासियों की अपनी विशिष्ट समाज व्यवस्था है, संस्कृति है, दर्शन है, इतिहास है और इन सबको अभिव्यक्त करनेवाली उनकी अपनी मातृभाषाएं हैं.

लेकिन, विकास की तमाम घोषणाओं के बावजूद कथित मुख्यधारा का समाज आदिवासी दुनिया से लगभग अपरिचित है. कथित मुख्यधारा के ज्ञान में आदिवासी दुनिया अपने स्वाभाविक रूप में बहुत कम दिखाई देती है. आदिवासी दुनिया अपने स्वाभाविक रूप में अपनी मातृभाषाओं में ही मौजूद है. वहां गीत, कथाओं, लोकगाथाओं, मुहावरों, पहेलियों इत्यादि में ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, इतिहास की सामग्रियां बड़ी मात्रा में मौजूद हैं, लेकिन उसका अधिकांश अब तक अप्रकाशित ही है. उदहारण के लिए मुंडा आदिवासियों की लोकगाथा ‘सोसोबोंगा' है.

लगभग 600 ईपू (BC) के आस-पास रचित इस गाथा में अंधाधुंध उत्पादन से धरती की ताप के बढ़ने, उसकी वजह से सृष्टि और उसके सहजीवों पर होनेवाले खतरों की जो चिंता व्यक्त हुई है, उससे ऐसा लगता है, जैसे यह आज की वैश्विक दुनिया की रचना हो, जिसमें ‘ग्लोबल वार्मिंग' को लेकर चिंता हो रही है. यह रचना अमेरिकी रेड इंडियंस सियेंठेथल प्रमुख की उन बातों से बहुत साम्य लगती है, जिसमें उन्होंने गोरे अंगरेजों से बहस में कहा था कि ‘मनुष्य जीवन प्रकृति के केंद्र में नहीं है, वह अन्य प्रकृति जीवों की तरह ही है और उसका इस धरती पर एकमात्र अधिकार नहीं है.'

यह प्रसंग मौजूदा पूंजीवादी समाज की वैचारिकी के ठीक विपरीत है और यह अनायास नहीं है कि आज आदिवासी दुनिया का सीधा संघर्ष उसी से है.

भाषा का महत्व केवल विचारों और भावों की अभिव्यक्ति के रूप में नहीं है, बल्कि विचारों और भावों के द्वारा लगातार अपनी सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ते जाने से है. किसी भी समाज की भाषा का निर्माण और भाषा द्वारा व्यक्ति के मानस में ‘इमेज' (छवि) का निर्माण उस समाज के उत्पादन की प्रक्रियाओं से संबंधित होता है. भाषा के माध्यम से व्यक्ति के मानस में जो ‘इमेज' बनती है, वह उस समाज के उत्पादन की प्रक्रियाओं से ही जुड़ी होती है.

जो व्यक्ति उस समाज की भाषा के साथ ही उस समाज की उत्पादन प्रक्रियाओं को नहीं समझता है, वह व्यक्ति भले ही उसका शाब्दिक अर्थ समझ ले, लेकिन उसको उसकी अर्थ-ध्वनियों की प्रतीति नहीं होगी, जो संबंधित भाषा-भाषी के व्यक्ति को होगी. इसलिए जब हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मांग करते हैं, तो यह केवल विचारों या भावों की अभिव्यक्ति का मसला नहीं होता है, बल्कि उसका सांस्कृतिक और ऐतिहासिक निहितार्थ होता है.

मसलन, मुंडारी का एक लोकप्रिय शब्द है ‘उलगुलान', जिसका अर्थ है विद्रोह या आंदोलन. इस शब्द की अपनी ऐतिहासिक व्युत्पत्ति है. ‘उलगुलान' बिरसा मुंडा के विद्रोह का नाम है, जो उन्होंने अंगरेजी और देशी औपनिवेशिक सत्ताओं के विरुद्ध किया था. जैसे ही मुंडा भाषी के सामने ‘उलगुलान' शब्द आता है, उसके मानस में अनायास ही बिरसा मुंडा का संघर्ष और ऐसे ही हजारों कुर्बानियों की ‘इमेज' कौंध उठती है और वह स्वभावतन अपनी संस्कृति व इतिहास से जुड़ जाता है. इन्हीं संदर्भों में न्गुगी वा थ्योंगो ने कहा था कि अपनी मातृभाषाओं में अभिव्यक्ति का मतलब समाज के उत्पादन की प्रक्रियायों और उसमें अंतर्निहित संघर्षों से सीधा जुड़ाव है.
हमारा देश बहुलतावादी है. यहां सैकड़ों भाषाएं हैं, जिसमें बहुलतावादी संस्कृति और उसके ज्ञान का अस्तित्व है. हमारे ज्ञान को देशज बनाने के लिए जरूरी था कि यहां अधिक-से-अधिक भाषाओं का उपयोग हो. लेकिन, आजादी के बाद से अब तक यह हमारी नीतियों में शामिल नहीं है. फलत: आज हम अपने ही देश में एक-दूसरे से अपरिचित से हैं.

आदिवासी समाज के साथ शुरू से ही उपेक्षा का जो भाव रहा है, उसकी वजह से उनकी भाषाओं में निहित ज्ञान का विभिन्न स्वरूप अपने वास्तविक रूप में प्रस्तुत नहीं हो पाया है. कथित मुख्यधारा की दुनिया में यह मानसिकता जड़ जमा चुकी है कि आदिवासियों के पास तो कुछ भी ज्ञान नहीं है, या जो कुछ भी है, वह पिछड़ा हुआ है.

इस तरह की सोच लोकतांत्रिकरण की प्रक्रिया को कमजोर तो करती ही है, ज्ञान के विस्तार को भी बाधित करती है. चूंकि आदिवासी भाषाएं आज की वैश्विक दुनिया में उस तरह मुनाफे के लिए कोई अवसर उपलब्ध नहीं करती हैं, जैसे अन्य औपनिवेशिक भाषाएं करती हैं, ऐसे में कोई भी इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाने का जोखिम उठाना नहीं चाहता है.

आज साहित्य और विचार के क्षेत्र में दलित और स्त्री अस्मिता के साथ आदिवासी अस्मिता के विमर्श का स्वर भी तेजी से उभरा है.
इसमें आदिवासी विकास के स्वरूप के साथ ही आदिवासी वैचारिकी की बहस चल रही है. इस बहस में भाषा का प्रकरण उसी रूप में महत्वपूर्ण है, जिस रूप में आदिवासी विस्थापन का प्रकरण. आदिवासी भाषाओं में मौजूद ज्ञान के विभिन्न स्वरूपों को अभी सामने आना बाकी है, लेकिन फिलहाल इन भाषाओं पर मंडरा रहा संकट ऐसे में दोहरी चुनौती है.

भाषा से जुड़ा हुआ यह ऐसा बिंदु है, जहां आदिवासी अस्मिता का सवाल कुछ ज्यादा जटिल हो जाता है. आदिवासी भाषाओं का संकट स्वाभाविक रूप से आदिवासी अस्मिता के संकट का जनक है. भाषाओं की मृत्यु भाषाओं में निहित ज्ञान, विज्ञान, संस्कृति, इतिहास और दर्शन की मृत्यु भी है.