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आदिवासी संघर्ष का जख्मी चेहरा- अपूर्वानंद

हिड़मे कौन है? क्या वह लड़का है या लड़की? हिड़मे भारतीय कानों के लिए एक अटपटा शब्द है। सांस्कृतिक-स्मृतिहीन लेकिन परंपराग्रस्त भारतीय माता-पिताओं को उनके पुत्र-पुत्रियों के नामकरण में सहायता करने के लिए हिंदी और अंगरेजी में जो नामावली पुस्तकें छपती हैं, उनमें यह नाम नहीं मिलेगा।
 
हिड़मे का पूरा नाम है कवासी हिड़मे। वह लड़की है। बेहतर हो कहना कि वह युवती है। लड़की से युवती बनने की यात्रा उसने स्कूल में तय नहीं की, जैसा कि भारतीय राज्य जोर-जोर से नारा लगा कर अपने नागरिकों से आह्वान करता है। उसका यह सफर भारतीय कारागार में पूरा हुआ। पंद्रह साल से तेईस साल तक की उम्र उसने छत्तीसगढ़ की जेलों में काटी है। हिड़मे की कहानी सबसे पहले हमें हिमांशु कुमार ने सुनाई थी। उस वक्त यह कहानी ही लगी थी: अविश्वसनीय, काल्पनिक, जिसे सुन कर रोएं खड़े हो जाएं। लेकिन छत्तीसगढ़ ऐसी अनेक कहानियों की जन्मस्थली है।
 
यहां उस कहानी को कहानी सुनने वाले की जो कुतूहलप्रियता होती है, जिसे निम्न कोटि का कहा गया है, उसे संतुष्ट करने के लिए ब्योरेवार सुनाने का कोई इरादा नहीं। हिड़मे एक साधारण आदिवासी लड़की थी, पंद्रह बरस की और अपनी उम्र की लड़कियों की तरह मेला देखने गई थी, जब पुलिस ने उसे उठा लिया। फिर वह लंबी कहानी शुरू हुई, जिसे अत्याचार, यातना, अमानुषिकता जैसे शब्द पूरी तरह व्याख्यायित नहीं कर पाते। वह एक के बाद दूसरे थाने ले जाई जाती रही, उसकी पिटाई होती रही, उसे पुलिसवालों के घर नौकरानी का काम करना पड़ा, उसके साथ बलात्कार किया गया। और फिर वह जेल में डाल दी गई। पुलिस ने अदालत को बताया कि वह खतरनाक माओवादी है, जिसका हाथ माओवादी हमलों में रहा था। भारतीय अदालत ने भारतीय पुलिस की बात मान ली, एक बार उसने मानवीय ढंग से आंखें उठा कर हिड़मे को देखना जरूरी न समझा, यह न देखा कि वह तो अभी बच्ची है।
 
हिड़मे की कहानी को कायदे से कहने के लिए एक निर्मम कलम चाहिए। लेकिन अभी हम सिर्फ इस पर विचार करें कि उसने आठ साल, पूरे आठ साल जेल में गुजारे। वह जेल में अभी और रहती, अभी हमें उसका किस्सा मालूम न होता अगर सोनी सोरी न होती। सोनी की कहानी तो कुछ समय से हम बीच-बीच में सुनते आए हैं। सोनी सोरी को उनके इलाके के लोग एक स्कूल की अध्यापिका के रूप में जानते हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ की पुलिस उन्हें माओवादी, या माओवादियों की मददगार बताती है। ध्यान रहे, भारतीय राज्य माओवादियों के समर्थकों को उतना ही खतरनाक मानता है, जितना माओवादियों को। वे अगर शहर में हैं तो और भी।
सोनी सोरी वह भारतीय अत्याचार झेल चुकी थीं, जो उनके बाद की पीढ़ी की हिड़मे नामक बच्ची झेलने वाली थी। इसलिए जब जेल में उन्हें हिड़मे के बारे में मालूम हुआ तो उन्होंने उसका मामला हाथ में लेने की ठानी। सोनी और कुछ इंसानी दिलो-दिमाग रखने वाले वकीलों के कारण साबित किया जा सका कि हिड़मे पर लगाए गए सारे आरोप गलत और मनगढ़ंत हैं। आठ साल के बाद रिहा हुई और अब वह आजाद कही जा सकती है।
 
हिड़मे पिछले दिनों दिल्ली आई। सबसे बड़ी अदालत का दरवाजा खटखटाने। इंसाफ मांगते हुए, जो कि एक इंसान का हक है। आठ सालों का, जो भारतीय राज्य ने नष्ट किए, न्याय कैसे किया जाएगा? इस बीच के हिड़मे के अनुभव को कैसे कानूनी जुबान में दर्ज किया जा सकेगा? क्या अदालत इस अन्याय की माप ठीक तरीके से कर सकेगी, क्या वह उन लोगों की शिनाख्त कर सकेगी, जिन्होंने ठंडे ढंग से वह सब कुछ किया। क्या वह इस अन्याय के अनुपात में सजा तय कर सकेगी?
 
ये प्रश्न काल्पनिक कहे जा सकते हैं। यह अपेक्षा अत्यंत महत्त्वाकांक्षी कही जा सकती है। विकास पर आमादा सरकारें और उनसे वैचारिक तौर पर सहमत न्याय-तंत्र को आदिवासी एक सुस्वादु भोजन के ग्रास में पड़ गए कंकड़ की तरह लगते रहे हैं। न्याय तंत्र का प्राथमिक स्तर उनसे जैसे पेश आता है, उससे यह बात साफ होती है। उच्चतम न्यायालय तक पहुंच पाने के लिए कितने साधनों की जरूरत है और कितनी मशक्कत की, और वह हर आदिवासी को मयस्सर नहीं। मानवाधिकार-कार्यकर्ताओं की संख्या और साधन भी इतने नहीं कि वे हिड़मे और सोनी जैसी असंख्य आदिवासियों के मामले उजागर भी कर सकें।
छत्तीसगढ़ की जेलें आदर्श भारतीय जेल कही जा सकती हैं। वे भारत की सबसे भीड़ भरी जेल हैं। कुछ का हाल यह है कि बारी-बारी से कैदियों को सोने की इजाजत मिलती है, क्योंकि अगर वे सब एक साथ सोने की जिद करें तो जेल को अपने आकार से दस गुना अधिक फैल जाना होगा। आखिर इतने आदिवासी जेल में क्यों हैं? क्या उनकी संख्या ही राज्य के असली आदिवासी-विरोधी चरित्र की गवाही नहीं? जेवियर डायस ने बातचीत में पूछा कि क्या भारत के लोगों को पता है कि छत्तीसगढ़ और झारखंड में सैन्यबल और जनता का अनुपात फिलस्तीन के पश्चिमी किनारे पर इजराइली कब्जे के समय इजराइली सैन्य-बल और फिलस्तीनियों की संख्याओं के अनुपात से भी बुरा है!
 
भारतीय राज्य भारत की आदिवासी जनता के साथ युद्ध कर रहा है। इसीलिए छत्तीसगढ़ की पुलिस को सेना का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। अरुंधति राय को एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने आगे जाने से मना करने के लिए कहा कि नदी के उस पार हमारे लिए पाकिस्तान है। वहां पुलिस को संदेह होते ही गोली मार देने की आदत है। अपने ही देश में शत्रु-देश की कल्पना करके राष्ट्रवादी संकल्प के साथ कू्ररता की बाकायदा शिक्षा पुलिस को दी गई है।
 
उच्चतम न्यायालय ने नंदिनी सुंदर और राम गुहा आदि की अर्जी पर सलवा जुडूम को गैर-कानूनी ठहराया। तब सरकार ने स्पेशल पुलिस ऑफिसर का नाम देकर आदिवासी नौजवानों के हाथ में हथियार थमा दिए। जो माओवादियों का साथ छोड़ते हैं, उन्हें भी काम यही दिया जाता है।
कई बरस हुए, एक फिल्म आई थी आक्रोश। रघुवीर सहाय ने उसकी कड़ी आलोचना की थी, क्योंकि उसका आदिवासी युवक अत्याचारी की हत्या तो कर देता है, लेकिन वह एक मूक के क्रोध का विस्फोट लगता है। रघुवीर सहाय ने इसे आदिवासी का अपमान माना था। आदिवासी सोच सकता है, अपने लिए बोल भी सकता है। वह सिर्फ और सिर्फ हिंसा की भाषा में खुद को व्यक्त नहीं करता।
 
हिड़मे के साथ सोनी सोरी और लिंगराज दिल्ली आए थे यह कहने कि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों को जनतांत्रिक तरीके से अपनी बात कहने की इजाजत नहीं। सब कुछ को माओवादी षड्यंत्र में शेष करके पुलिस और प्रशासन आदिवासियों को होंठ सिल कर घर बैठने और अनुशासित नागरिकों की तरह बर्ताव करने को कह रहा है।
क्या शहरी भारत, जो छत्तीसगढ़ और झारखंड को उसकी अनुपम प्राकृतिक सुषमा और अपार खनिज संपदा युक्त प्रदेशों के रूप में ही जानता है, यहां रहने वाले आदिवासियों को हमशहरी मान पाएगा? क्या उनकी कथा हिमांशु कुमार, नंदिनी सुंदर ही कहते रहेंगे? क्या हमारे शिक्षा केंद्रों को जो नागरिकता का पाठ पढ़ाने का दम भरते हैं, उन्हें यह अपना काम नहीं लगता? और भारत के राजनीतिक दलों को, अगर वाम दलों के अलावा बात करें? या उनमें विकासवादी-राष्ट्रवादी मतैक्य स्थापित हो चुका है कि राष्ट्र के इस विकास यज्ञ में आदिवासी समिधा हैं? वे इसे मान लें, लेकिन रघुवीर सहाय यह नहीं मानते थे कि आदिवासी इसे खामोशी से स्वीकार कर लेंगे। आदिवासी यह कह रहे हैं और बेहतर हो कि हम सुनें कि वे इस राष्ट्र के साधन नहीं स्वतंत्र, स्वायत्त सत्ता हैं।