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'आधार' पर राज्यसभा की उपेक्षा से संसदीय व्यवस्था को खतरा

लोकसभा में ‘आधार' को मनी बिल के तौर पर पास करवाने के बाद राज्यसभा में बिल पेश किया गया है जिससे यह बिल संसद में पारित हो ही जाएगा। इस असंवैधानिक कदम को उठाने के लिए सरकार क्यों मजबूर हुई जो और भी कई वजहों से गैरकानूनी है?

राज्यसभा की उपेक्षा से संविधान तथा संसदीय व्यवस्था को खतरा - मोदी सरकार का राज्यसभा में बहुमत नहीं है जिसकी वजह से कई महत्वपूर्ण कानून अटके हुए हैं। संविधान के अनुसार राज्यसभा राज्यों के हित का प्रतिनिधित्व करती है। पूर्ववर्ती यूपीए सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा वर्तमान भाजपा सरकार में वित्तमंत्री अरुण जेटली, रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर, रेल मंत्री सुरेश प्रभु तथा एचआरडी मंत्री स्मृति ईरानी राज्यसभा सदस्य हैं। सत्ता पक्ष द्वारा राज्यसभा में बहुमत ना हो पाने से इसके औचित्य पर सवाल उठाये जा रहे हैं पर राज्यसभा का संवैधानिक अस्तित्व तो बरकरार ही है जिसका सम्मान करना सरकार के लिए आवश्यक है। दिल्ली में केजरीवाल सरकार द्वारा उपराज्यपाल को दरकिनार कर निर्णय लेने को यदि अराजकता कहा जाता है तो फिर ‘आधार' को मनी बिल के तौर पर पारित करना क्या संविधान के साथ धोखाधड़ी नहीं है?

‘आधार' नहीं है मनी बिल - योजना आयोग जिसे अब नीति आयोग कहते हैं, ने जनवरी 2009 के प्रशासनिक आदेश से भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) का गठन किया था। इसे कानूनी आधार देने के लिए यूपीए द्वारा संसद में बिल पेश किया गया पर स्थायी समिति के अस्वीकार करने से वह पारित न हो सका। मोदी सरकार अब इसको मनी बिल के तौर पर पास कराने की कोशिश कर रही है। संविधान के अनुच्छेद 110 के तहत टैक्स लगाने, हटाने, रेगुलेट करने या राजकोष से जुड़े मामलों पर ही मनी बिल पारित हो सकता है जिसका अंतिम फैसला लोकसभा स्पीकर करते हैं। सरकार के अनुसार ‘आधार' से सब्सिडी तथा अन्य लाभ दिये जाएंगे इसलिए यह मनी बिल है। इस कुतर्क से हर कानून मनी बिल बन जायेगा, फिर तो राज्यसभा की कोई जरूरत ही नहीं है?

प्राइवेसी में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में लम्बित मामले की अनदेखी - व्यक्तिगत जानकारियों के संग्रह से सर्विलांस के खतरे तथा प्राइवेसी के उल्लघंन की आशंका के मद्देनजर ‘आधार' योजना को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी, जहां मामला संविधान पीठ के सम्मुख लम्बित है। सरकार द्वारा अदालत के सम्मुख यह कहा गया था कि प्राइवेसी का अधिकार मूल अधिकार नहीं है। आईटी एक्ट में प्राइवेसी के लिए पहले ही प्रावधान दिये गये हैं जिन्हें ‘आधार' के प्रस्तावित कानून में दोहराया गया है। प्राइवेसी के अधिकार को मूल अधिकार ना मानने के तहत बनाये गये नये ‘आधार' बिल को संसद में पेश करने से पहले क्या सरकार को सुप्रीम कोर्ट से स्पष्टीकरण नहीं लेना चाहिए था?

 

गैर-कानूनी बांग्लादेशी लोगों को क्यों मिले कानूनी आधार - सरकार के अनुसार 97 फीसदी वयस्क तथा 67 फीसदी बच्चों को ‘आधार' कार्ड दिया जा चुका है। प्रतिदिन 5-7 लाख लोगों को ‘आधार' कार्ड दिया जा रहा है। इससे देश में रहने वाले गैर-कानूनी बांग्लादेशी घुसपैठियों को भी ‘आधार' कार्ड मिल जायेगा जिसके द्वारा वे लोग बैंक एकाउंट, पैन नम्बर तथा अन्य दस्तावेज हासिल कर सकते हैं। इसी कारण भाजपा द्वारा यूपीए की ‘आधार' योजना का जबरदस्त विरोध तथा सीबीआई जांच की मांग की गई थी। प्रस्तावित कानून के अनुसार ‘आधार' को नागरिकता का प्रमाण नहीं माना जा सकेगा पर गैर-कानूनी घुसपैठियों को ‘आधार' कार्ड देने से उत्पन्न राष्ट्रीय खतरे के बारे में सरकार क्यों खामोश है?

संविधान संशोधन से ही पारित हो सकता है आधार बिल - ‘आधार' से सरकारी योजनाओं के प्रभावी क्रियान्वयन तथा सब्सिडी में बचत से इंकार नहीं किया जा सकता है। परन्तु ‘आधार' को अनिवार्य करने से नागरिकों के मूल अधिकार प्रभावित होते हैं। ‘आधार' राज्यों की योजनाओं को भी प्रभावित करता है। ऐसे कानून को पारित करने के लिए राज्यों की सहमति तथा संविधान में अनिवार्यता का प्रावधान आवश्यक है जिसका पालन ‘आधार बिल' को पारित करने में नहीं किया जा रहा है।

 

सरकार ने मनी बिल के तौर पर आधार को लोकसभा में पारित कराकर अपनी मंशा स्पष्ट कर दी है और अब राज्यसभा को 14 दिन में इसे पारित करना जरूरी होगा। राज्यसभा का सत्र 16 मार्च को समाप्त हो रहा है और अगर सत्र बढ़ाने की मांग स्वीकार नहीं हुई तो आधार बिल कानून बन जायेगा। ‘आधार' कानून को मनी बिल के रास्ते क़ानून बनाने की बजाय क्या सरकार को राज्यसभा खत्म करने का बिल भी नहीं लाना चाहिए जिससे भविष्य में संविधान के साथ धोखाधड़ी रोकी जा सके?

विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं...

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