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आधी सजा भुगती, अब पूरा इंसाफ - जगदीप धनकड़

गत सप्ताह सर्वोच्च अदालत ने उन विचाराधीन कैदियों की रिहाई के आदेश दिए, जो उन पर लगाए गए आरोपों के लिए निर्धारित सजा की आधी अवधि पहले ही काट चुके हैं। इस निर्णय के बाद अब लगभग दो लाख कैदी जेल से मुक्त हो सकेंगे। इनमें से अधिकतर गरीब, अशिक्षित या अर्द्धशिक्षित हैं और ये बहुत मामूली अपराधों के चलते जेल की सजा काटने को मजबूर हो रहे हैं। उन्हें यह नहीं पता कि उन्हें नि:शुल्क कानूनी सहायता प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त है या कि उन्हें पर्सनल बॉन्ड पर मुक्त किया जा सकता है। इनमें से अनेक जमानती आरोपों पर जेल में बंद हैं, लेकिन चूंकि उनके पास जमानत की राशि देने के भी पैसे नहीं हैं, इसलिए वे जेल से छूट नहीं पा रहे हैं। कई तो ऐसे हैं, जो उन पर लगाए गए आरोपों के लिए निर्धारित अधिकतम सजा की मियाद पहले ही पूरी कर चुके हैं। अदालत के इस आदेश के बाद अब कैदियों से खचाखच भरी जेलों पर निर्मित हुआ दबाव भी कम हो सकेगा।

वर्ष 2005 में दंड प्रक्रिया संहिता में धारा 436ए का समावेश किया गया था। इसमें यह प्रावधान भी था कि जो विचाराधीन कैदी उन पर लगाए गए आरोपों के लिए निर्दिष्ट सजा की आधी अवधि जेलों में गुजार चुके हैं, उन्हें मुक्त कर दिया जाए। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि हजारों बदनसीब कैदियों के दु:ख-संतापों को समाप्त करने वाले इस प्रावधान पर पिछले लगभग एक दशक से कोई अमल नहीं किया गया। प्राप्त सूचना के अनुसार केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कानून मंत्रालय से मंत्रणा के बाद सभी राज्य सरकारों और उच्च न्यायालयों को परामर्श-पत्र भेजने का निर्णय लिया था, जिसमें उनसे दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436ए का अनुपालन सुनिश्चित करने को कहा गया था, ताकि विचाराधीन कैदियों को मुक्त किया जा सके। गृह मंत्रालय ने देशभर की जेलों में बंद ऐसे सभी विचाराधीन कैदियों की एक अद्यतन सूची बनाने की भी योजना बनाई है। नेशनल इंफॉर्मेटिक्स सेंटर द्वारा इस संबंध में एक सॉफ्टवेयर बनाया जा रहा है।

बहरहाल, इस मामले से एक बार फिर यह पता चलता है कि हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली समाज के गरीब और वंचित तबके के प्रति कितनी संवेदनहीन है। कानून भी सक्षम लोगों का मददगार साबित होता है और अक्षम लोगों की एक नहीं सुनी जाती। सर्वोच्च अदालत के आदेश ने मानो गहरी नींद में डूबे तंत्र को झकझोर कर जगा दिया है। अगर सर्वोच्च अदालत धारा 436ए के उल्लंघन के लिए तंत्र को दोषी भी ठहराती तो और बेहतर होता। यह सुखद है कि सर्वोच्च अदालत ने कैदियों की रिहाई के लिए बहुत सरल व जवाबदेह प्रणाली बनाई है।

अदालत ने ट्रायल कोर्ट के जजों को निर्देशित किया है कि वे विचाराधीन कैदियों को पर्सनल बॉन्ड पर जेल से मुक्त होने की अनुमति दें, फिर चाहे वे कोई जमानत दे पाएं या न दे पाएं। अदालत ने ट्रायल कोर्ट के जजों को यह निर्देश भी दिया कि वे 1 अक्टूबर से जेलों में जाकर उन सभी विचाराधीन कैदियों की सूची बनाएं, जो पहले ही आधी सजा काट चुके हैं। उन्हें दो माह की समयसीमा में यह कार्य पूरा करना होगा।

धारा 436ए में सुधार किए जाने की भी जरूरत है, ताकि उसे आसानी से अमल में लाया जा सके। इस प्रावधान के मौजूदा स्वरूप में दो बहुत गंभीर त्रुटियां हैं, जिनकी वजह से यह लगभग निष्प्रभावी हो गया है। पहला यह कि अदालत लोक अभियोजक की सुनवाई के बाद संबंधित आरोपी की कारावास अवधि को आधी अवधि से भी अधिक समय तक जारी रखने के लिए कह सकती है। और दूसरा यह कि जमानत देने के लिए कारावास की अवधि के परिकलन में कार्यवाही में हुई देरी के कारण आरोपी द्वारा कैद में बिताए गए समय को नहीं शामिल किया जाएगा। ये दोनों प्रावधान नकारात्मक हैं और इस धारा के अमल को कठिन बना देते हैं। आखिर कार्यवाही में हुए विलंब के लिए उस व्यक्ति को कैसे दोषी ठहराया जा सकता है, जो कि जेल में कैद है?

वास्तव में हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली की स्थिति अनेक स्तरों पर चिंतनीय बनी हुई है। समय आ गया है कि अब तदर्थवाद की मानसिकता से ऊपर उठा जाए। सर्वोच्च अदालत अनेक बार आपराधिक न्याय प्रणाली की दशा पर चिंता जता चुकी है और संविधान के अनुच्छेद 21 के उल्लंघन के लिए जिम्मेदार इस प्रकार की तदर्थवादी प्रवृत्ति पर पहले भी सवालिया निशान लगा चुकी है। यह दु:खद तथ्य है कि हमारा तंत्र त्वरित न्याय दिलाने में लगातार नाकाम साबित हो रहा है। सर्वोच्च अदालत द्वारा अपने एक निर्णय में कहा जा चुका है कि त्वरित मुकदमे का अधिकार एक बुनियादी अधिकार है, इसके बावजूद इसकी स्थिति दयनीय बनी हुई है। देश में न्याय प्रणाली के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे की भारी कमी है। दूसरे देशों की तुलना में हमारे यहां हर न्यायाधीश के बरक्स लोगों की संख्या देखें तो अंतर समझ आ जाएगा। न्याय प्रक्रिया के सभी स्तरों पर महत्वपूर्ण पद रिक्त हैं। लगभग हर क्षेत्र में तकनीक का प्रभाव नजर आ रहा है, लेकिन न्यायपालिका इससे महरूम बनी हुई है।

संजय चंद्र बनाम सीबीआई मामले में सर्वोच्च अदालत ने कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां की थीं, जिन पर इस संदर्भ में ध्यान दिया जाना चाहिए। अदालत ने कहा था कि वह 'इस सिद्धांत को महज एक कागजी विचार भर नहीं मानती कि किसी व्यक्ति पर दोष सिद्ध होने के बाद ही उसकी वास्तविक सजा प्रारंभ होती है और तब तक उसे निर्दोष ही माना जाना चाहिए। विचाराधीन कैदियों को अनिश्चित काल के लिए न्यायिक हिरासत में रखा जाना संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) का घोर उल्लंघन है। गिरफ्तार किए गए या कारावास में कैद हर व्यक्ति को त्वरित मुकदमे का अधिकार है। यह न्याय-प्रक्रिया के हित में नहीं है कि आरोपी को अनिश्चित काल के लिए जेल में कैद रखा जाए।" आज हमारे सामने यही चुनौती है कि हम आपराधिक न्याय प्रणाली को कैसे दुरुस्त करें ताकि सर्वोच्च अदालत द्वारा कही गई उपरोक्त बातों का उचित अनुपालन किया जा सके।

(लेखक सर्वोच्च अदालत में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। ये उनके निजी विचार हैं