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आपके मन पर असर या बे असर?- योगेन्द्र यादव

अब आपने इन पंक्ितयों को पढ़ने की जहमत उठाई है तो एक तकलीफ़ और कीजिये. अपने घर या पड़ोस से दूसरी से पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों को बुलाइये. उनसे कहिये कि वे निम्नलिखित पैरा को पढ़ कर सुनाएं. यह पैरा दूसरी कक्षा की पाठय़पुस्तक से लिया गया है. ’मैं और मेरी बहन रीता छत पर खेल रहे थे.

अचानक असमान में बादल गरजने लगे. बिजली कड़कने लगी. बारिश की बड़ी-बड़ी बूंदें पड़ने लगीं. मैं और रीता भाग कर जल्दी से नीचे आ गये. तभी भैय्या गरम-गरम पकौड़े और समोसे ले आये. हम सबने नीचे बैठ कर समोसे और पकौड़े खाये और बारिश का मजा लिया.’ अगर कोई दूसरी कक्षा में पढ़ने वाला बच्चा इस पैरा को सहजता से पढ़ ले तो उसे जरूर कुछ इनाम दीजियेगा.

ग्रामीण भारत के दूसरी कक्षा में पढ़ने वाले दस बच्चों में से एक ही अपनी ही भाषा की अपनी ही  पाठय़पुस्तक का यह पैरा पढ़ पाता है. उस कक्षा के 45 फ़ीसदी बच्चे तो ’आलू’और ’मौसी’जैसे शब्द भी नहीं पढ़ पाते हैं.  तीसरी में पढ़ने वाले पांच बच्चों में से सिर्फ़ एक इस पैरा को पढ़ सकता है.

हाल ये है कि अगर पांचवीं के विद्यार्थियों से दूसरी कक्षा का यह पैरा पढ़ने कहा जाये तो उनमें से आधे (सही-सही कहें तो 47 फ़ीसदी) इस साधारण पैरा को पढ़ नहीं पायेंगे. यहां तक कि गावों में सातवीं में पढ़ने वाले एक-चौथाई बच्चे भी इस इम्तिहान में बगलें झांकेंगे.अभी बच्चों को अपने साथ बनाये रखिये.

अब उन्हें दहाई वाली किसी संख्या से एक और दहाई वाली संख्या घटाने को कहिये, जिसमें उन्हें हासिल लेना पड़े. मसलन 48 में से  29 घटाने कहिये, या फ़िर 75 में 37. तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले दो-तिहाई बच्चे और पांचवीं के कोई एक तिहाई विद्यार्थी इतना साधारण गणित भी नहीं सीखे हैं. औपचारिक गणित को छोड़ दें और बाजार में खरीद-फ़रोख्त के लिये न्यूनतम जमा-घटाव की बात करें, तो भी पांचवीं के आधे बच्चे इस मामले में गोल हैं.

गुणा-भाग तो ऊंची बात है. गावों में रहने वाले सातवीं कक्षा के करीब  आधे विद्यार्थी 919 जैसी तीन अंकों की संख्या को 6 से  भाग नहीं दे सकते.अब आप बच्चों की  छुट्टी कर सकते हैं और हमारे देश में शिक्षा की इस कड़वी हकीकत से रू-ब-रू हो सकते हैं. आपने अपने घर या पड़ोस के बच्चों के साथ जो प्रयोग किया, यह प्रथम नामक एक गैर सरकारी संगठन द्वारा देश भर के ग्रामीण बच्चों के एक विशाल सर्वे पर आधारित है.

यह सर्वे देश के सभी राज्यों और लगभग सभी जिलों में किया गया. शिक्षा की गुणवत्ता की जांच के लिये बच्चों से स्कूल में नहीं, घर पर मुलाकात की गयी. कुल तेरह हजार से ज्यादा गावों में आठवीं तक के बच्चों से उनके घर में जाकर ये सवाल पूछे गये. सवाल हर प्रदेश और भाषा के हिसाब से ढाले गये. भाषा का पैरा उस राज्य की  पाठय़पुस्तक से लिया गया था.यह सर्वेक्षण कोई पहली बार नहीं हो रहा था. पिछले पांच साल से यह संगठन ’असर’यानी एनुअल स्टेटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट नामक इस सर्वेक्षण को कर रहा है और शिक्षा की इस दयनीय तसवीर को देश के सामने रख रहा है.

इस बार रपट का विमोचन करने उप-राष्ट्रपति आये, लेकिन भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने रपट का संज्ञान लिया हो, ऐसा दिखाई नहीं पड़ा. विडंबना यह है कि शिक्षा को अपनी प्राथमिकता बताने वाली यह सरकार खुद ऐसा कोई सर्वे नहीं करवाती. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि किस विभाग ने कितना खर्च किया, कितनी योजनाएं बनीं, कितने अध्यापक नियुक्त हुए, कितनी इमारतें उठीं, कितने कमरे बढे. यह भी बताते हैं कि स्कूल के रजिस्टर में कितने नाम चढ़े. बस यह नहीं बताते कि कितने बच्चे सचमुच पढ़े और क्या कुछ सीखे.

इस लिहाज से ’असर’शिक्षा व्यवस्था को एक आइना दिखाता है. इस आईने में दिखने वाली तसवीर खौफ़नाक है. 21वीं सदी के इस पहले दशक में शिक्षा का सार्वजनिक ढांचा चरमरा रहा है. शहरों में तो सरकारी स्कूल पहले ही उजड़ चुके हैं, अब गावों की बारी आ गयी लगती है. सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़ रही है, पर उनमें दाखिला लेने वाले बच्चों का अनुपात घट रहा है.

पिछले पांच साल में प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले ग्रामीण बच्चे 16 फ़ीसदी से बढ़कर 24 फ़ीसदी हो गये हैं. इस छोटे से आंकड़े के पीछे एक बहुत बड़ी त्रासदी छुपी है. मतलब यह है कि गांव में जो कोई थोड़ा-बहुत भी सामथ्र्य रखता है वो परिवार अपने बच्चों को सरकारी स्कूल की बजाय प्राइवेट स्कूल में भेज रहा है.

फ़ाइलों का पेट भरने के लिए सरकारी स्कूलों में फ़र्जी नाम लिखे जा रहे हैं, लेकिन बच्चे दरअसल किसी और स्कूल में पढ़ रहे हैं.सरकारी स्कूलों के उजाड़ीकरण कि यह प्रक्रिया कुछ राज्यों में बहुत गंभीर हो चुकी है.  केरल में 54 फ़ीसदी, हरियाणा में 42, उत्तर प्रदेश के 39, पंजाब के 38 और आंध्र प्रदेश के 36 फ़ीसदी ग्रामीण बच्चे (उम्र 6 से 14  बर्ष) अब प्राइवेट स्कूलों में हैं. कम्युनिस्ट राज वाले बंगाल और त्रिपुरा में यह संख्या अब भी नाम-मात्र की है.

लेकिन वहां पिछले दरवाजे से प्राइवेट शिक्षा आ रही है. इन दोनों राज्यों में गावों में तीन-चौथाई बच्चे प्राइवेट ट्यूशन का सहारा लेते हैं. देश भर में सरकारी स्कूल अब गांव के दीन-हीन का ही आसरा बचे हैं. स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या बेशक बढ़ रही है, पर उन्हें शिक्षा कैसे और कैसी मिलेगी उसका भगवान ही मालिक है.देश में एक तरफ़ शिक्षा के अधिकार का डंका बज रहा है, दूसरी तरफ़ सरकार शिक्षा हाशिये पर जा रही है.

ऐसा नहीं कि प्राइवेट शिक्षा से बच्चों का बहुत भला हो रहा है. फ़ीस की बात छोड़ दीजिये, देहात के अधिकांश प्राइवेट स्कूलों के पास न तो खेलने कि जगह है, न ठीक इमारत और न ही पढ़े-लिखे अध्यापक. कहने को इंग्लिश मीडियम, लेकिन न विद्यार्थी अंग्रेजी जानता है न ही अध्यापक. इस सर्वे के मुताबिक प्राइवेट स्कूलों के बच्चों का भाषा और गणित ज्ञान सरकारी स्कूलों के बच्चों से थोड़ा सा ही बेहतर है.

और वो भी शायद इसलिए, क्योंकि प्राइवेट स्कूलों में गांव के अपेक्षाकृत शिक्षित और समर्थ परिवारों के बच्चे पढ़ते हैं.इस बार ’असर’सर्वे ने सरकारी स्कूलों के भीतर भी झांकने की कोशिश की है. शिक्षा के अधिकार कानून के तहत ’स्कूल’कहलाने के लिए हर तीस विद्यार्थियों पर एक अध्यापक होना चाहिए, हर कक्षा के लिए एक कमरा जरूरी है, साथ में खेल का मैदान, दोपहर के खाने के लिए रसोई और एक पुस्तकालय. इस कसौटी से जांचेंगें तो सरकारी स्कूलों में आधे से कम स्कूल है ये सुविधाएं मुहैया कराते हैं.

45 फ़ीसदी स्कूलों में विद्यार्थी-अध्यापक अनुपात जरूरत से ज्यादा है, 38 फ़ीसदी में खेल का मैदान नहीं है, 62 फ़ीसदी में या तो पुस्तकालय नहीं है या बच्चे उसका इस्तेमाल नहीं कर सकते. आधे से ज्यादा सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में एक से ज्यादा कक्षाओं के बच्चे एक साथ बैठते हैं.

एक अन्य अध्ययन के मुताबिक औसतन 20 फ़ीसदी अध्यापक बिना छुट्टी या अर्जी के गैरहाजिर रहते हैं.अब जब आप इस लेख के अंत तक पहुंच गये हैं तो एक जहमत और कीजिए. अपने मन के दरवाजे पर दस्तक दीजिए और पूछिए कि इस खौफ़नाक हालात में आपका क्या फ़र्ज बनता है.

केंद्र और राज्य की सरकार पर आपका-हमारा बस नहीं है, लेकिन क्या हम अपने गांव-मोहल्ले के स्कूल में भी कुछ नहीं कर सकते? अगर आप यह लेख पढ़ सकते हैं तो आप निश्चित ही अपने पास-पड़ोस के उन बच्चों के शैक्षणिक अभिभावक भी बन सकते हैं, जिनके मां-बाप उन्हें मिलने वाली शिक्षा की जांच नहीं कर सकते. आप स्कूल के पुस्तकालय में बच्चों के साथ बैठकर कहानियां पढ़ सकते हैं.

और कुछ नहीं तो इस सर्वे की तरह बच्चों की शिक्षा कि गुणवत्ता की जांच कर सकते हैं, शोर मचा सकते हैं. ’असर’ का सरकार पर असर हो या नहीं, आपके मन पर कुछ असर हुआ?
(लेखक जाने-माने समाजशास्त्री हैं)