Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/आपातकाल-से-हमने-क्या-सीखा-नीलांजन-मुखोपाध्याय-8487.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | आपातकाल से हमने क्या सीखा- नीलांजन मुखोपाध्याय | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

आपातकाल से हमने क्या सीखा- नीलांजन मुखोपाध्याय

किसी भी देश में थानेदार मानसिकता वाले लोगों की बड़ी संख्या आपको मिल जाएगी। भारत में इस तरह की सोच दरअसल औपनिवेशिक मानसिकता वाले ऐसे लोगों के जरिये आई है, जिन्हें अंग्रेजों ने स्थानीय स्तर पर महत्वपूर्ण पदों पर बिठाया था। स्थानीय थाने के वे दारोगा हमारे आदर्श बने, जिनके पास निरंकुश क्षमता थी और जिन्हें अपने अधीनस्थों को किसी भी किस्म की सफाई देने की जरूरत नहीं थी। गणतंत्र बनने के बाद भारतीय राज्यव्यवस्था को भी इस कमजोरी का नतीजा भुगतना पड़ा। देश में भ्रष्टाचार के सर्वव्यापी होने के बाद मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से की शिकायत थी कि भारत की स्थिति तो बदतर तानाशाहियों से भी बुरी है। इसीलिए संविधान में उल्लिखित मौलिक अधिकारों में कटौती करने के बावजूद इंदिरा गांधी के इक्कीस महीने लंबे उस आपातकाल को मध्यवर्ग का कमोबेश समर्थन मिला, जिसकी इसी सप्ताह चालीसवीं वर्षगांठ है।

आपातकाल के दौरान जिस तरह के जुल्म ढाए गए और आम लोगों पर जिस तरह की बंदिशें लगाई गईं, उसमें सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन संभव नहीं था। इसके बावजूद इंदिरा गांधी की निरंकुशता के बहुत अधिक विरोधी नहीं थे, तो इसकी वजह यह थी कि जनमत बनाने वाला एक बड़ा वर्ग मानता था कि देश को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाने के लिए अनुशासन की जरूरत है। उसका मानना था कि विरोध अनावश्यक है और समय पर कार्यालयों में पहुंचना प्राथमिकता होनी चाहिए। मैं यह नहीं कह रहा कि किसी राष्ट्र को सुचारु रूप से चलाने के लिए अनुशासन की जरूरत नहीं है। लेकिन क्या करोड़ों लोगों का ठीक समय पर कार्यालय पहुंचना ही पर्याप्त है? हर दिन कार्यालयों में एक नियत वक्त बिताने के लिए बाध्य करने के बजाय क्या यह जरूरी नहीं कि सरकार उन नीतियों पर अपना ध्यान केंद्रित करे, जो आम लोगों के लिए फायदेमंद हैं?

आपातकाल का उदाहरण हमारे सामने है। दुर्भाग्यवश उस दौर के दस्तावेजों में आपातकाल की ज्यादतियों के बारे में ज्यादा कुछ नहीं मिलता। पर इसका अनुमान कोई भी लगा सकता है कि सरकारी तंत्र का अधिकतर इस्तेमाल 20 सूत्री कार्यक्रम अथवा जबरन नसबंदी जैसे कार्यक्रमों पर किया गया। तब बेशक सरकारी मशीनरी बेहद चुस्त थी, पर इसकी वजह इसे न्यायपालिका से लेकर बुद्धिजीवी तक, समाज के सभी तबकों से मिला व्यापक नैतिक समर्थन रहा। तब विपक्ष न सिर्फ भूमिगत था, बल्कि उसकी गतिविधियां इसलिए भी सार्वजनिक नहीं हुईं, क्योंकि मीडिया पर प्रतिबंध लगा था, और पत्रकारों की सुरक्षा व स्वतंत्रता को बड़ा खतरा था। तब समाचार पत्रों और समाचार एजेंसियों पर प्रतिबंध का आदेश (तब निजी टेलीविजन चैनल नहीं थे) आधिकारिक रूप से जारी किया गया था और इसके उल्लंघन का कोई रास्ता भी नहीं था, इसके बावजूद जिस तरह पत्रकारों का बड़ा हिस्सा सरकार के सामने दंडवत हो गया था, उस कारण वह भारतीय मीडिया के इतिहास का सबसे शर्मनाक दौर बना।

मीडिया की वह छवि, दुर्योग से, सूचना क्रांति के बाद भी बहुत नहीं बदली है। यह सच है कि मीडिया के विस्तार में आपातकाल की महत्वपूर्ण भूमिका रही। जनता पार्टी की जीत मीडिया के लिए ताजा झोंके की तरह थी। इसलिए न सिर्फ अखबार धीरे-धीरे आधुनिक हुए, बल्कि नई पत्रिकाओं की भी शुरुआत हुई। लगभग उसी दौरान खोजी पत्रकारिता अस्तित्व में आई और पत्रकारिता एक मिशन के तहत की जाने लगी। जनमत तैयार करने वाले लोग भी खुद को देश के बौद्धिक विकास की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा मानने लगे।

आज की पत्रकारिता आपातकाल के बाद जैसी नहीं रह गई है, तो इसकी वजह बढ़ता व्यावसायीकरण और बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों का इस क्षेत्र में आगमन है, जिसका असर उन मीडिया समूहों पर पड़ा है, जो सिर्फ मीडिया व्यवसाय तक सीमित हैं। व्यावसायिक वजहों से तो मीडिया की निष्पक्षता बाधित हुई ही है, लोकतांत्रिक मूल्यों और स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता भी अब बहुत कम रह गई है।

आपातकाल की 40वीं वर्षगांठ पर एक इंटरव्यू में दिग्गज भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने जो बातें कहीं, उनमें से एक चीज ध्यान देने लायक है। उनका कहना था कि अगर भविष्य में कोई सरकार आपातकाल थोपती है, तो मीडिया शायद ही उसका प्रतिरोध करे, क्योंकि उसमें लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता इतनी नहीं बची है। अगर किसी को लगता है कि सूचना क्रांति के युग में यह संभव नहीं, तो उसे पता कर लेना चाहिए कि खराब लोकतांत्रिक रिकॉर्ड वाले देशों में मीडिया की क्या स्थिति है। चीन में स्वदेशी सोशल मीडिया का व्यापक नेटवर्क है, पर चीनियों की पहुंच गूगल, ट्विटर, फेसबुक और यू-ट्यूब तक भी नहीं है। इलेक्ट्रॉनिक निगरानी व्यवस्था ने अब टेलीफोन पर बातचीत या ई-मेल के आदान-प्रदान की जांच को सुगम बना दिया है। आपातकाल के समय अगर ऐसी निगरानी व्यवस्था होती, तो विपक्ष के भूमिगत रहने का भी मतलब नहीं होता, क्योंकि सरकार पता लगा लेती कि कौन-से नेता भूमिगत होने के इच्छुक हैं और कौन गिरफ्तार होना चाहते हैं।

आपातकाल की 40वीं वर्षगांठ पर हमें यह अप्रिय तथ्य समझना होगा कि देश में लोकतंत्र की संस्कृति अस्थिर है। हर परिवार को अपने बच्चों में यह भावना विकसित करनी होगी कि लोकतंत्र सिर्फ सरकार का एक रूप नहीं है, बल्कि जीने का तरीका है। अगर भविष्य में कभी लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन हो, तो संभवतः यही स्पष्टीकरण दिया जाएगा कि देश को मजबूत बनाने के लिए यह जरूरी था। तीन दशक बाद किसी एक पार्टी को हमने पूर्ण बहुमत दिया है। इसका इस्तेमाल लोकतांत्रिक भावना को मजबूत करने के लिए किया जाना चाहिए, व्यक्तिगत अधिकारों और स्वतंत्रता में कटौती करने के लिए नहीं।

-वरिष्ठ पत्रकार और नरेंद्र मोदी-द मैन, द टाइम्स के लेखक