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आम आदमी और उसका राजनीतिक प्रयोग- गिरिराज किशोर

जनसत्ता 24 अक्तूबर, 2013 : आजादी के बाद एक प्रयोग डॉ राममनोहर लोहिया ने राज्यों में संविद सरकार बनवाने का किया था, जो सफल भी रहा। इसका कारण था, उन्होंने सरकारों के लिए कुछ मानक तय किए थे। उदाहरण के लिए, जब थानू पिल्लै की सरकार ने छात्रों पर गोली चलाई गई तो उन्होंने सरकार से त्यागपत्र देने को कहा। इस पर मतभेद हो गया। लेकिन वे इस सिद्धांत पर झुके नहीं। दूसरा प्रयोग जयप्रकाश नारायण ने किया, जब आरएसएस को वाया जनसंघ मिला कर जनता पार्टी बनाई। लगभग सारे महत्त्वपूर्ण मंत्रालय जनसंघ की जेब में चले गए। उसके बाद जनसंघ (जिसने 1980 में भारतीय जनता पार्टी का चोला धारण किया) सत्ताधारी दल बनता गया। जयप्रकाशजी पीछे रह गए। गांधी भी अपने लोगों से ही मात खा गए थे।

राजनीति में सिद्धांत कुछ नहीं होता, अवसर मुख्य होता है। जो अवसर लह ले, दांव उसी का। खैर, अब फिर एक राजनीतिक प्रयोग प्रक्रिया में है। आम आदमी पार्टी का। इसमें यह मौका नहीं कि किसी की फसल कोई दूसरा काट ले। वही बोने वाला वही काटने वाला। जवाहरलाल नेहरू के बारे में कहा जाता है कि वे पार्टी के लिए सब अनुदान चेक से लेते थे। यह किसी पार्टी की न्यूनतम ईमानदारी होती है और होनी चाहिए। इंदिरा जी के जमाने से ब्रीफ केस चालू हुए। लगभग सभी पार्टियां अब ब्रीफ केसों की आदी हो गर्इं।

आम आदमी पार्टी ने घोषणा की है कि उसने चौदह करोड़ रुपए बजरिए चेक इकट्ठा किए। राजनीति में पारदर्शिता लाने की यह पहली सीढ़ी है। हालांकि राजनीतिक पार्टियां आरटीआइ के जन-अधिकार को एक सिरे से खारिज कर रही हैं। जबकि यह हर पार्टी के लिए पारदर्शिता का पहला मानक होना चाहिए।

फेसबुक पर मैं किन्हीं सज्जन का भाजपा के संदर्भ में एक सवाल पढ़ रहा था कि इन पार्टियों में बुद्धिजावी, लेखक, प्रोफेसर वैज्ञानिक, डॉक्टर, वकील आदि क्यों नहीं? गांधी और नेहरू तक कांग्रेस में इस वर्ग के सब लोग थे। कृपलानी और राधाकृष्णन जैसे शीर्ष अध्यापक, केएम मुंशी और माखनलाल चतुर्वेदी जैसे लेखक, राजेंद्र प्रसाद और भोला भाई जैसे विधिवेत्ता राजनीति में थे। क्योंकि तब तक उनका सम्मान वहां था, उनकी उपस्थिति पार्टी के लिए भी सम्मान की बात थी। लोहियाजी के समय समाजवादी पार्टी में अनंतमूर्ति जैसे लेखक थे। इलाहाबाद और बनारस के तो अधिकतर लेखक उनके साथ थे। आज समाजवादी पार्टी में लेखक और बुद्धिजीवी नगण्य हैं। दरअसल, राजनीतिक पार्टियां इन सबको दोयम दर्जे का नागरिक मानने लगीं। धीरे-धीरे ऐसे लोगों का राजनीति से मोहभंग हो गया।

आज राजनीतिक पार्टियां यह उपदेश देती घूमती हैं कि राजनीति में अच्छे लोगों यानी बुद्धिजीवियों को आना चाहिए। पर बुद्धिजीवी को क्या चाहिए? स्वतंत्रता और सम्मान। अपनी बात निर्द्वंद्व कहने की आजादी और उनकी बात को न मानने पर उसका स्पष्टीकरण। हाल में विश्वविद्यालयअनुदान आयोग से एक बुद्धिजीवी प्रो योगेंद्र यादव को निकालने की घटना सामने आई। उसका कोई तर्कपूर्ण स्पष्टीकरण कहीं देखने को नहीं मिला।

डॉ डीएस कोठारी के बाद से तो यूजीसी का लगातार राजनीतिकरण हो रहा है। भाजपा के कार्यकाल में एनसीइआरटी का हुआ था। मेरे विचार से कुछ माह के बाद ही किसी सम्मानित मनोनीत प्रोफेसर को यूजीसी जैसी एकेडेमिक संस्था से निकाल देना अधिक बड़ा राजनीतिकरण है। साहित्य अकादेमी का भी पूर्व अध्यक्ष द्वारा घोर राजनीतिकरण हुआ था, उसका असर आज तक है। राजनीतिकरण तो बर्फ का गोला है, एक बार लुढ़कना शुरू हुआ तो वह मोटा होता चला जाता है।

आम आदमी पार्टी ने बुद्धिजीवियों को जोड़ने की परंपरा को पुन: आरंभ किया है।  उनमें जितने राजनीतिक हैं लगभग बराबर के बुद्धिजीवी भी हैं। जैसे जेएनयू के समाजशास्त्री आनंद कुमार। मैं समझता हूं ये लोग किसी लालच से नहीं गए। उनका उद्देश्य राजनीति को गंदगी से निकालना है। जब अण्णा हजारे और अरविंद केजरीवाल साथ थे, तो लगा था गांधी का युग फिर से आ रहा है।

अण्णा गांधीवत देखे जा रहे थे। जब अण्णा ने अनशन किया था तो हम लोग भी कानपुर में धरने पर बैठे थे। कुछ लोग तब तक अनशन पर रहे जब तक अण्णा जी अनशन पर थे। देश में असीम उत्साह था। लोग समझ रहे थे कि समय आ गया जब भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलेगी। दुर्भाग्य यह कि अण्णा और केजरीवाल के बीच मतभेद हो गया। सत्ता मिल गई होती तो भी बात समझ में आती।

मुल्क से भ्रष्टाचार मिटाने जैसे सद्-उद्देश्य के लिए  ये दोनों लड़ रहे थे। मैं समझता हूं कि उत्तर भारत में अण्णाजी को लाने वाले केजरीवाल थे। एक सुलह-सफाई से संबंधित संयुक्त बैठक में मैं भी था। केजरीवाल और लगभग सभी लोग अण्णाजी से कह रहे थे कि आप इस आंदोलन का नेतृत्व करें, दिशा दिखाएं, संभलने के लिए कुछ समय दें। इस समय जब यह आंदोलन अपने उरूज पर है, समाप्त न करें। लेकिन अण्णा जी तैयार नहीं हुए।

शायद यह देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य था कि एक ऐसा आंदोलन जो समाज को बदल रहा था, एकाएक बिखर गया। अण्णाजी ने पहले किरण बेदी को साथ लिया। फिर जनरल वीके सिंह

आए। लोग कहते हैं कि ये देश के लिए नहीं, सरकार से अपनी-अपनी नाराजगी के चलते आए थे। किरण बेदी हालांकि बहुत मन लगा कर काम कर रही थीं। पर बाद में वे भी अण्णा से अलग हो गर्इं। केजरीवाल के पास एक ही रास्ता था कि उन्होंने हालात को देखते हुए अपने दायरे को समेट कर छोटा किया और दिल्ली ले आए।

यह आकांक्षाओं और संसाधनों का पुनर्संयोजन था। अण्णा राष्ट्रीय व्यक्तित्व बन चुके हैं, उनके लिए ऐसा करना संभव नहीं था। अमेरिका के दौरे ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति दे दी। जनरल वीके सिंह उधर मोदी की गोद में जा बैठे। आरोपों के घेरे में भी आ गए। गांधी की तरह बनने के लिए यह जरूरी है कि कोई भी नेतृत्व अपने अहंकार को उद्देश्य से बड़ा न होने दे। अपने नाम का गरूर कई बार काम का अवमूल्यन कर देता है।

गांधीजी की तरह की सहिष्णुता इंसान को काम से बड़ा नहीं होने देती। जिन्ना और डॉ आंबेडकर गांधीजी के परम विरोधी थे, पर देश के लिए वे उनसे सहयोग की मांग करते थे। गांधी पाकिस्तान जाकर वहां के लोगों के साथ समन्वय करना चाहते थे। शायद फरवरी 1948 में पाकिस्तान जाने की बात लगभग तय हो गई थी। आंबेडकर को संविधान मसविदा समिति का अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव गांधी का था। आज अगर अण्णा और केजरीवाल साथ होते तो मंजिल की तरफ  काफी दूरी नाप चुके होते।

अब भी कुछ बिगड़ा नहीं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने अपने पैर काफी जमा लिए हैं। पिछले दिनों आए कई सर्वेक्षणों के नतीजों से भी इसके संकेत मिले हैं। अगर अखबार सच कहते हैं तो दोनों बड़ी पार्टियों से यह नई पार्टी बराबर की टक्कर ले रही है। बल्कि दोनों से कुछ अधिक गतिशील दिख रही है। हालांकि चुनाव के बारे में कहा जाता है कि यह ऊंट की तरह होता है। कोई नहीं जानता यह किस करवट बैठेगा। पर हर कोई मान रहा है कि दिल्ली में यह पहली बार होगा कि मुकाबला दो पार्टियों के बीच सीमित नहीं रहेगा। यहां आम आदमी पार्टी की सशक्त मौजूदगी से चुनावी लड़ाई त्रिकोणीय हो चुकी है।

पता नहीं इस पार्टी को चुनाव निशान झाड़ू क्यों दिया है। शुरू में अजीब-सा लगा। पर झाड़ू भी इस चुनाव में एक प्रयोग का हिस्सा बन गया। झाड़ू का चिह्न आरंभ में हास्यास्पद लगा था। लेकिन बाद में सोचा तो लगा कि झाड़ू का चिह्न दो बैलों की जोड़ी जितना सामान्य जीवन से जुड़ा है। झाड़ू हर परिवार का सबसे प्रभावी हथियार है। जितना कूड़ा माताएं और बहनें रोज बाहर निकालती हैं अगर वे न निकालें तो परिवार के लोग उसके नीचे दबे नजर आएं। झाड़ू कमजोरों की हथियार भी है। एक बार एक बस्ती में देखा कि बाबूसाहब लगने वाले व्यक्ति ने झोपड़पट्टी की एक महिला के साथ बदजुबानी की। उसने झाड़ू से ही उनके शब्दों का नया अर्थ उन्हें समझा दिया। एक आदिवासी परिवार में मैंने देखा, जहां झाड़ू की पूजा करके बेटी को दहेज में दी जाती है। वैसे भी देश में सफाई के लिए एक मजबूत झाड़ू चाहिए। शायद अरविंद केजरीवाल की पार्टी का प्रयोग झाड़ू के साथ सफल हो जाए।

जहां काम आए झाड़ू, वहां डंडे का क्या काम! हालांकि सत्ता में आने के बाद हर पार्टी डंडे के सहारे चलने लगती है। लोहियाजी ने केरल में इसी का विरोध किया था। राजनीति से डंडे और मुस्टंडे जितना दूर रहें उतना ही अच्छा। ये सब बातें हम छोड़ भी दें तो आम आदमी और उसका आम प्रतीक, अपारंपरिक अधिक है। शायद यह प्रतीक लोगों के गद्दी पर बैठ कर आम बने रहने की शुरुआत कर सके। विशिष्टता मनुष्य को विशिष्ट तो बनने ही नहीं देती, उसकी साधारणता को भी मिटा देती है। मुझे स्मरण है कि कई बार डॉ लोहिया इलाहाबाद में साहीजी के स्कूटर पर बैठ कर चल देते थे। अंग्रेज गवर्नर रेल से चलते थे। आज मुख्यमंत्री और मंत्री एक शहर से दूसरे शहर जाने के लिए हेलिकॉप्टर इस्तेमाल करते हैं। मैंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्त को लखनऊ से कानपुर कार से आते-जाते देखा था। देश राजनीतिक विशिष्टताओं के कारण बहुत भुगत चुका।

लोगों को तड़क-भड़क से बचाने के लिए झाड़ू जैसी पहल ही करनी होगी। कहीं रख दो और काम ले लो। लेकिन कैसे? जबांदराजी से नहीं, सेवा से। सेवा हवाई जहाज की सवारी से संभव नहीं। जब तक सियासत जमीन से नहीं जुड़ेगी और सत्ता के सिंहासन से नीचे पैर नहीं रखेगी तब तक वह अपारदर्शिता के परदे में छिपी रहेगी। सेवा उसके जमीर का हिस्सा नहीं बनेगी। राजनीति में पारदर्शिता लाने और उसे सेवा-भाव से जोड़ने का यह एक प्रयोग है जो आम आदमी पार्टी कर रही है। वह इसमें कितना कामयाब होगी यह फिलहाल भविष्य के गर्भ में है।