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आयकर का दायरा बढ़ाना ही होगा-- मधुरेन्द्र सिन्हा

बीती सदी के नब्बे के दशक में जब नरसिंह राव और उनके सुयोग्य मंत्री मनमोहन सिंह ने देश में आर्थिक सुधारों की शुरुआत की, तब समृद्धि का एक दौर आया। उसके साथ ही करोड़पतियों की कतार बढ़ती गई। लंबी-लंबी कारें, बड़े-बड़े अपार्टमेंट और गहनों के चमकते शोरूम आम हो गए। देश में बढ़ते अरबपतियों की तादाद की खबरें दुनिया भर में सुनाई पड़ने लगीं। इन सब के बावजूद आयकर देने वालों की संख्या में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई। हैरानी की बात यह रही कि एक करोड़ रुपये आयकर देने वालों की तादाद दस हजार भी नहीं है। यह देखकर भी उतना ही आश्चर्य होता है कि सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश में महज तीन से चार प्रतिशत लोग ही आयकर चुकाते हैं, जबकि चीन में यह आंकड़ा 20 और अमेरिका में 45 प्रतिशत है। आयकर विभाग ने हाल ही में जो आंकड़े जारी किए हैं, उनके मुताबिक वर्ष 2000-01 से 2014-15 के बीच देश में महज 10 लाख लोग ही ऐसे आयकरदाता थे, जिन्होंने अपनी आय 10 लाख रुपये प्रतिवर्ष से ज्यादा दिखाई है। यह भी दिलचस्प-सी बात है कि 3.1 करोड़ लोगों में ज्यादा से ज्यादा 20 लाख लोग 5.5 लाख से 9.5 लाख रुपये के कर दायरे में हैं।

इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, देश में पैसा कमाने वाले लोगों में महज 5.5 प्रतिशत ऐसे हैं, जो आयकर चुकाते हैं। सच्चाई यह है कि देश में महज चार प्रतिशत मतदाता ही करदाता हैं। अगर सभी तरह के आंकड़े देखें, तो लगता है कि देश में कम से कम 23 प्रतिशत लोगों को आयकर देना चाहिए। इतनी तेज विकास दर और जबर्दस्त क्रयशक्ति के बावजूद यह निराशाजनक है। लेकिन भारत में बिल्कुल उल्टी-सी बात है कि अब भी कुल आबादी का 85 प्रतिशत आयकर के दायरे से बाहर है। पिछले दो दशकों में भारतीयों की क्रयशक्ति बढ़ने का ज्वलंत उदाहरण यह है कि हर साल हमारे यहां बीस लाख कारें बिकती हैं। मतलब साफ है कि लोग आयकर की धड़ल्ले से चोरी कर रहे हैं। यानी मुट्ठी भर लोग ही कर चुका रहे हैं और शेष गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। आयकर देने वालों में ज्यादातर वेतनभोगी वर्ग के लोग ही हैं।

नौकरीपेशा या वेतनभोगी वर्ग के अलावा खुदरा व्यापारी, दुकानदार, बड़े किसान, अपना काम करने वाले, ठेकेदार जैसे व्यवसायी आयकर के दायरे से बाहर ही हैं। इन्हें आयकर के दायरे में लाने के लिए कोई प्रयास नहीं हो रहा। इतना बड़ा वर्ग कर के दायरे से बाहर हो और सरकार की तरफ से कोई प्रयास न हो, यह हैरानी की बात है। हालत यह है कि कर और जीडीपी अनुपात में लगातार गिरावट आ रही है। जहां 2008-09 में करदाताओं की संख्या 5.9 प्रतिशत थी, वहीं 2014-15 में यह घटकर 5.5 प्रतिशत रह गई। यह चिंता का विषय नहीं, तो क्या है?

लेकिन नॉर्थ ब्लॉक इस दिशा में उदासीन ही दिखता है। वहां बैठे बाबुओं के दिमाग में अभी तक ऐसा कोई विचार नहीं कौंधा कि देश में कर का दायरा किस तरह बढ़ाया जा सकता है। कई सरकारें आईं और गईं, लेकिन किसी ने इस दिशा में कोई गंभीर प्रयास नहीं किया। एक समय धनी किसानों को आयकर के दायरे में लाने की बातें होती थीं, लेकिन अब उसकी चर्चा भी नहीं होती। इसका नतीजा है कि धनी व्यापारी, पैसे वाले लोग और यहां तक कि सेवानिवृत्त अफसर भी किसान बनकर आयकर रिटर्न दाखिल करते हैं। इससे देश को अरबों रुपयों के कर की क्षति होती है।

कई दशक पहले एक बार छोटे व्यापारियों से एक सांकेतिक टैक्स फॉर्म भरवाने की व्यवस्था की गई थी, ताकि आगे चलकर एक ठोस आधार तैयार हो, लेकिन उस दिशा में आगे कुछ नहीं हुआ। यानी कर न देने वालों की तादाद बढ़ती ही चली गई। वित्त मंत्रालय के बाबुओं की निगाहों में बस नौकरीपेशा ही रहे। उनसे न केवल पूरा कर निकलवाया जाता है, बल्कि तरह-तरह के कागजी कामों में फंसाया जाता है। उनके लिए कई तरह के काम बढ़ाए जाते रहे हैं, जैसे अब उन्हें लीव ट्रैवल व्यय का पूरा ब्योरा देना होता है। होम लोन में भी उन्हें कई तरह की बाधाओं का सामना करना होता है। आयकर अधिकारियों की नजर वेतनभोगी वर्ग से आगे नहीं जाती। दूसरी ओर, असंगठित क्षेत्र में लाखों लोग ऐसे हैं, जो कर नहीं देते और मजे उड़ा रहे हैं। छोटे-छोटे व्यापारी और कारोबारी बिना आयकर चुकाए कारों में फर्राटे भर रहे हैं। महानगरों में रहने वाला और मामूली-सा दिखने वाला एक खुदरा व्यापारी भी यहां लाख रुपये से ज्यादा प्रतिमाह कमा लेता है। लेकिन जब आयकर चुकाने की बारी आती है, तो वहां सन्नाटा दिखाई देता है। आयकर विभाग की भी उससे कर लेने में कोई रुचि नहीं है, क्योंकि उसमें काफी भागदौड़ करनी होगी।

इन सबका नतीजा है कि देश में अप्रत्यक्ष कर का भार निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। सर्विस टैक्स 14.5 प्रतिशत तक बढ़ा देना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यह बहुत ज्यादा है और वित्त मंत्रालय ने एक आसान-सा रास्ता ढूंढ़ा है। इसका बोझ फिर वेतनभोगी वर्ग उठाने को मजबूर है, क्योंकि वह खर्च करता है और हर बार उसे सर्विस टैक्स देना पड़ता है। दरअसल सरकार आयकर की सीमा बढ़ाने में झिझकती है, क्योंकि इससे उसकी लोकप्रियता घटने का खतरा रहता है। इसलिए सर्विस टैक्स का आसान-सा रास्ता निकाला गया है। यह वेतनभोगी वर्ग के लिए बोझ है और कारोबारियों तथा विभाग के भ्रष्ट कर्मियों के लिए एक तोहफा है। भारत में कितना सर्विस टैक्स वसूला जा रहा है और कितना जमा किया जाता है, इस पर चर्चा होनी चाहिए। यह बहुत बड़ा घपला है।

बहरहाल, आयकर का दायरा बढ़ाने के लिए वित्त मंत्रालय को रास्ता तलाशना चाहिए। लेकिन फिलहाल इसकी संभावना कम ही दिखती है, क्योंकि इस बारे में सरकार कुछ सोच भी नहीं रही है।