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आयात नहीं, दाल का उत्पादन बढ़ाएं-- बाबा मायाराम

जब आग लगती है, तभी हम कुआं खोदने के बारे में सोचते हैं। दालों के मामले में भी ऐसा ही हुआ। जब दाल के दाम इतने बढ़ गए कि उसे खाना मुश्किल हो गया, तब जाकर सरकार जागी। अब आनन-फानन में कई फैसले लिए जा रहे हैं। दाल आयात करने का फैसला लिया गया, व्यापारियों के गोदामों और दाल मिलों में छापे मारे गए, स्टॉक की क्षमता तय की गई। दालों की कमी को प्राकृतिक आपदा बताया जा रहा है। लेकिन यह मामला इतना सतही नहीं है। सवाल यह है कि जब सरकार को पता है कि सूखे का यह दूसरे साल है, बेमौसम बारिश से फसलों का नुकसान हुआ है, तो फिर पूर्व तैयारी क्यों नहीं की गई?

हालांकि यह स्थिति अचानक पैदा नहीं हुई है। दालों की उपलब्धता लगातार कम होती गई है। सरकार के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1951 में देश में प्रति व्यक्ति को खाने के लिए औसतन 60.7 ग्राम दाल उपलब्ध थी, जो घटते-घटते वर्ष 2007 में मात्र 35.5 ग्राम रह गई। रही सही कसर अब महंगे दामों ने पूरी कर दी है। दालों की उपलब्धता कम होने का बड़ा कारण हरित क्रांति में छिपा है। हमने हरित क्रांति से गेहूं और चावल की पैदावार तो बढ़ा ली, लेकिन दालों के मामले में हम फिसड्डी रह गए। गेहूं और चावल की खेती को तो खूब बढ़ावा दिया गया, मगर दलहन की उपेक्षा होती रही। इसी दौरान सोयाबीन, गन्ने और कपास जैसी नकदी फसलों को भी बढ़ावा मिला।

हरित क्रांति के पहले हमारे देश में कई तरह की दालें हुआ करती थी, और हम दाल के प्रमुख उत्पादक देश थे। इसके बावजूद हमारी कृषि नीतियों में दाल उत्पादन पर जोर नहीं रहा। नतीजतन हरित क्रांति के दौर में खाद्य तेल और दालों का आयात तेजी से बढ़ा। जो परंपरागत मिश्रित खेती पद्धती और फसल चक्र थे, उसे हरित क्रांति ने बुरी तरह नुकसान पहुंचाया। इससे भी दलहन व तिलहन की उपलब्धता बहुत कम हो गई।

असल में, दाल लंबे समय की फसल है। कम पानी में होती है, और ढलान वाली जमीन में पैदा होती है। मध्य प्रदेश का होशंगाबाद जिला एक जमाने में दालों की खेती के लिए प्रसिद्ध था। यहां की मुख्य फसल अरहर ही हुआ करती थी। नर्मदा कछार की दालें दूर-दूर तक जाती थीं। मगर यहां भी अब दालों का उत्पादन बहुत कम गया है। उन्हें महाराष्ट्र जैसे राज्यों से अरहर लाना पड़ता है। इसी प्रकार रबी की फसलों में चना और गेहूं की मिश्रित बिर्रा खेती हुआ करती थी। मगर एकरूपी व नकदी फसलों के चलन ने मिश्रित फसलों को तहस-नहस कर दिया है। रही-सही कसर सोयाबीन ने पूरी कर दी। करीब 30-35 साल पहले इसने दलहल की फसलों की जगह ले ली।

हालांकि कहने को सरकारें दालों के उत्पादन बढ़ाने की बात करती हैं। वे योजनाएं भी बनाती हैं, मगर इसका नतीजा कुछ नहीं निकलता। जो संकट हरित क्रांति के समय से आया हुआ है, वह निरंतर बना हुआ है। इसलिए आयात करने की नीति छोड़कर हमें दालों के उत्पादन बढ़ाने पर जोर देना चाहिए। परंपरागत मिश्रित खेती अपनाने की कोशिश होनी चाहिए। किसानों को दाल उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके लिए बाजार में अच्छे दामों की गारंटी, अच्छे बीज, खाद की व्यवस्था के खाद्य सुरक्षा पर जोर देना होगा। इससे मनुष्य को संतुलित आहार तो मिल ही सकेगा, बल्कि मिट्टी की उर्वरता भी बनी रह सकेगी।