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आयोग एक-चुनौतियां अनेक- अश्विनी महाजन

नवगठित नीति आयोग के पहले उपाध्यक्ष, जाने-माने अर्थशास्त्री अरविंद पनगड़िया ने पदभार संभाल लिया है। उनके सामने बड़ी चुनौती उस नीतिगत ठहराव से पार पाने की है, जो पूर्व के योजना आयोग में दिख रहा था। उल्लेखनीय है कि लाल किले के प्राचीर से अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने योजना आयोग के इसी ठहराव की ओर इशारा किया था, और उसी कड़ी में नीति आयोग यानी नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया (एनआईटीआई) का गठन किया गया है। यहां यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि जिस योजना आयोग का गठन 65 वर्ष पूर्व मंत्रिमंडलीय प्रस्ताव द्वारा हुआ था, उसे भंग करते हुए नए नीति आयोग का गठन भी कैबिनेट के प्रस्ताव द्वारा ही किया गया है।

बहरहाल, यह सही है कि पूर्व के योजना आयोग द्वारा पूरे देश के लिए लगभग एक जैसी नीति बनाना सही तरीका नहीं था। क्योंकि कोई राज्य कृषि प्रधान है, तो कहीं उद्योगों की बहुलता है। कहीं प्रति व्यक्ति आय बहुत कम है, तो कहीं बहुत अधिक। ऐसे में एक जैसी नीति पूरे देश में भला कैसे सफल हो सकती है? इसलिए नीति बनाते हुए विविधताओं का सही विचार जरूरी है। यदि नए आयोग में ऐसा संभव हो, तो बेहतर होगा। वैसे प्रधानमंत्री आश्वस्त करते हैं कि नीति निर्माण में राज्यों का महत्व उन्हें अच्छी तरह मालूम है। इसलिए नीति आयोग में समस्याओं के निदान हेतु क्षेत्रीय परिषदों के गठन की बात है, जो मजबूत संघीय प्रणाली हेतु राष्ट्रीय एजेंडे का निर्माण करेगा। यह सोच वाकई एक संघ के रूप में भारत को और मजबूत बना सकती है।

फिलवक्त भारत एक मिश्रित अर्थव्यवस्था के रूप में जाना जाता है। देश में एक विशालकाय सार्वजनिक क्षेत्र है, जिसमें बैंक, बीमा कंपनियां, कोयला, इस्पात, पेट्रोलियम, मशीनरी, रेलवे, नागरिक उड्डयन समेत कई महत्वपूर्ण व्यवसाय शामिल हैं। अधिकतर सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग हालांकि लाभ कमाते हैं, फिर भी वे नागरिक सुविधा, रोजगार, सर्वसमावेशी विकास की नीति के क्रियान्वयन आदि में सरकार की मदद करते हैं। चूंकि उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण के युग में सार्वजनिक निजी भागीदारी एक नियम बन चुका है। इसलिए यह स्वाभाविक मांग थी कि नीति आयोग के रूप में एक ऐसी व्यवस्था बने, जो इस प्रकार के प्रकल्पों में निवेश के लिए नीति बनाए।

लेकिन ऐसी व्यवस्था में देश की चारित्रिक विशेषता का भी ध्यान रखना होगा। भारत की आत्मा गांवों में बसती है, और यहां कृषि के बाद अधिकतर रोजगार लघु, कुटीर उद्योगों और छोटे व्यवसायों में ही निहित हैं। लेकिन विडंबना है कि अब तक देश की सत्ता जिन लोगों के हाथों में रही, वे पश्चिमी सभ्यता, पश्चिमी जीवन शैली और पश्चिम की अर्थव्यवस्थाओं से अभिभूत रहे। नब्बे के दशक से पहले सरकारीकरण और नब्बे के दशक के बाद निजीकरण और भूमंडलीकरण, दोनों मार्ग भारत की आत्मा से निकले हुए नहीं थे। इसीलिए अधिसंख्यक लोग, व्यवसाय और क्षेत्र विकास की दृष्टि से अछूते रहे। लिहाजा नीति आयोग के सामने चुनौतियों का पहाड़ है। पर सवाल यह भी है कि भूमंडलीकरण के प्रबल समर्थकों को ही इसमें प्रमुख की भूमिका देने से क्या देश का भला होगा! जवाब भविष्य के गर्भ में है।

-लेखक स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह-संयोजक हैं