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आरक्षण की नीति के खतरे - संजय गुप्‍त

गुजरात में अनुभवहीन युवा नेता हार्दिक पटेल की ओर से अपने समुदाय को गोलबंद कर जिस तरह आरक्षण की मांग की गई और जिससे राज्य के कई इलाकों में जो हिंसा भड़क उठी, उससे आरक्षण का मसला एक बार फिर राजनीतिक बहस के केद्र में आ गया है। आजादी के बाद अनुसूचित जातियों और जनजातियों को सामाजिक-आर्थिक रूप से मुख्यधारा में लाने के लिए उन्हें दस वर्षों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया गया। बाद में दस वर्ष की यह समयसीमा लगातार बढ़ाई जाती रही, यह देखे बिना कि संबंधित तबकों को आरक्षण का पूरा लाभ सही तरह मिल रहा है या नहीं?

1990 में वीपी सिंह सरकार ने राजनीतिक चुनौतियों का सामना करने के लिए मंडल आयोग की सिफारिशों का सहारा लिया। उनकी सरकार ने सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ा वर्गों को भी आरक्षण प्रदान कर दिया। इसके बाद से ही आरक्षण राजनीति चमकाने का एक हथियार बन रहा है।

चूंकि कुछ समय बाद शैक्षिक संस्थानों में भी आरक्षण लागू कर दिया गया, इसलिए आरक्षण की मांग करने वाली जातियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। गुजरात का पटेल समुदाय भी इनमें से एक है। हार्दिक पटेल का कहना है कि या तो आरक्षण खत्म करें या फिर पटेल समुदाय को भी दें। वह इस तर्क को खारिज करते हैं कि पटेल समुदाय हर लिहाज से संपन्न् और समर्थ है।

आज आरक्षण को एक बुनियादी अधिकार के तौर पर देखा जाने लगा है, न कि इस रूप में कि यह सामाजिक और आर्थिक रूप से विपन्न् ऐसे तबकों को मुख्यधारा में लाने की व्यवस्था है, जो जाति विशेष के होने के कारण शोषण और उपेक्षा का शिकार हुए। आरक्षण की मांग इसके बावजूद बढ़ती जा रही है कि सरकारी नौकरियों की संख्या सीमित हो रही है। भले ही गुजरात में पटेल समुदाय की हिस्सेदारी 12 प्रतिशत के आसपास हो, लेकिन वह सामाजिक-आर्थिक और साथ ही राजनीतिक रूप से भी सक्षम है। यह समझना कठिन है कि एक ऐसा तबका अतार्किक बातें करने वाले 22 साल के हार्दिक पटेल के नेतृत्व में आरक्षण की मांग के लिए इतना आक्रामक क्यों हो गया?

गुजरात के पटेल समुदाय सरीखी स्थिति यूपी, हरियाणा और राजस्थान के जाटों की भी है। संप्रग सरकार ने राजनीतिक लाभ के चक्कर में पिछले आम चुनाव के पहले उसे आरक्षण प्रदान कर दिया था, लेकिन कुछ समय पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज कर दिया। इसके बाद भी जाट नेता आरक्षण की मांग करने में लगे हुए हैं। हालांकि आरक्षण पाने के अपने कुछ आधार हैं और सबसे प्रमुख है सामाजिक पिछड़ापन, लेकिन एक के बाद एक जातियां यह जानते हुए भी आरक्षण की मांग कर रही हैं कि उसकी सीमा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती, जो सुप्रीम कोर्ट ने तय कर रखी है।

पिछले कुछ समय से यह देखने को मिल रहा है कि जहां कई समर्थ समझी जाने वाली जातियां अपने को पिछड़ा घोषित कराने के लिए तैयार हैं वहीं अनेक अति पिछड़ी जातियां अजा-जजा वर्ग में आना चाह रही हैं। उन्हें लगता है कि आरक्षण के दायरे में आने से उनकी समस्याएं कम होंगी। यदि पटेल और जाट खुद को पिछड़ा बताएंगे तो आगे चलकर करीब-करीब सभी अगड़ी मानी जाने वाली जातियां आरक्षण की मांग कर सकती हैं। इसलिए और भी, क्योंकि गरीब वर्ग तो हर जाति-समुदाय में मौजूद है। उनकी यह शिकायत रहती है कि आरक्षित तबके के युवा कम योग्यता के बावजूद शैक्षिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में अपनी जगह बना ले रहे हैं और उनके लिए अवसर कम होते जा रहे हैं।

पटेल समुदाय ने हार्दिक पटेल के बहकावे में जैसा आंदोलन खड़ा किया और अभी भी तीखे तेवर अपनाए हुए है, उसे देखते हुए आरक्षण मांग रहे अन्य तबके भी आक्रामकता और जोर-जबरदस्ती का सहारा ले सकते हैं। यह ठीक नहीं होगा। ऐसी किसी स्थिति से बचने के लिए यह जरूरी है कि आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था पर नए सिरे से विचार किया जाए। यह सही है कि समाज में कुछ जातियों को अभी भी कमतर माना जाता है और उनके प्रति हीनभावना का भी प्रदर्शन किया जाता है, लेकिन सामाजिक परिवेश में तेजी से बदलाव भी आ रहा है। शहरी इलाकों में इसकी परवाह कम ही की जाती है कि कौन किस जाति का है।

आरक्षण के मामले में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उसके चलते नए सिरे से जातीय विभाजन की रेखाएं गहरी हो रही हैं। जब-जब आरक्षण की मांग उठती है, गैरआरक्षित तबका आरक्षित तबके को इस नजरिये से देखने लगता है कि वह उसके अधिकारों में बाधक बन रहा है। हमारे नीति-नियंता इस सामाजिक परिदृश्य से मुंह नहीं मोड़ सकते। उन्हें आरक्षण की विसंगतियों को दूर करने के लिए आगे आना चाहिए। समय के साथ जो जातियां आरक्षण का लाभ लेकर सामाजिक-आर्थिक रूप से सक्षम हो गई हैं, उन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर लाया जाना चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है ताकि वास्तव में वंचित एवं पिछड़े तबकों को आरक्षण का लाभ मिल सके।

आरक्षण के मामले में इसकी जरूरत बढ़ रही है कि आरक्षित समुदायों को शैक्षिक योग्यता में रियायत एक सीमा तक ही दी जाए। ऐसी स्थितियां ठीक नहीं कि न्यूनतम अंकों के बावजूद आरक्षित वर्गों के युवा आगे बढ़ जाएं और अधिकतम अंकों के बावजूद गैरआरक्षित समुदाय के युवा अवसर पाने से वंचित रह जाएं।

बात केवल सरकारी नौकरियों की ही नहीं, बल्कि शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश की भी है। चूंकि प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थानों की संख्या सीमित है और उनमें आरक्षण भी लागू है, इसलिए संपन्न् तबकों के लोग अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजने का विकल्प चुनते हैं। इसमें खासी विदेशी मुद्रा खप जाती है। यदि यह मुद्रा बाहर जाने से बच सके तो उसका उपयोग देश की आर्थिक तरक्की में हो सकता है।

देश में पसंदीदा शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश से वंचित जो छात्र विदेश पढ़ने चले जाते हैं, उनमें से कई वहीं बस जाते हैं और इस तरह देश उनकी मेधा का लाभ नहीं उठा पाता। कई मेधावी छात्र ऐसे भी होते हैं जो आरक्षण के चलते देश में उपयुक्त शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश भी नहीं पा पाते और आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण विदेश भी नहीं जा पाते। एक तरह से देश उनकी क्षमता से भी वंचित रहता है। स्पष्ट है कि आरक्षण की ऐसी व्यवस्था बनाना समय की मांग है, जिससे सामाजिक न्याय भी हासिल हो और श्रेष्ठ मेधा की अनदेखी भी न हो।

जहां केंद्र सरकार के स्तर पर आरक्षण की रीति-नीति पर नए सिरे से विचार की दरकार है वहीं गुजरात सरकार को यह देखना होगा कि किन कारणों से महज आठ माह में इतना बड़ा आंदोलन उठ खड़ा हुआ। पटेल समुदाय न केवल हर हाल में आरक्षण चाह रहा है, बल्कि वह जरूरत से ज्यादा आक्रामक भी है। चूंकि ऐसी आक्रामकता सामाजिक समरसरता को भी नुकसान पहुंचा सकती है इसलिए सरकार को सतर्कता और संवेदनशीलता का भी परिचय देना होगा।

(लेखक दैनिक जागरण समूह के सीईओ व प्रधान संपादक हैं)